उनको करने दें ये हमारा काम नहीं:—

ये हम जो थोड़े—थोड़े इकॉनॉमिस्ट हैं, थोड़ा पॉलिटिशियंस हैं और थोड़ा बुद्धिजीवी का कीड़ा जो बैठा है खोपड़िया में ठोनकतेच रहता है बीच—बीच में। इस अलकरहा टाइप के दर्द को भूलाने कोई मोदी भक्त बना बैठा है तो कोई ऐसा लिख मार रहा है जिसे भक्तों के नजरिए से बराबर देशद्रोही करार दिया जा रहा है। बुजा के ह एके बात समझ म नई आत हे निपोर। वो ये कि जिनके उपर निसार होकर हम ये जो धारणा बना रहे हैं उन नेताओं का भी तो कोई एक दर नहीं है। कभी यहां तो कभी वहां। दर नहीं तो विचारधारा और नीतियां तो बदलते ही रहते हैं अपनी सहुलियत के मुताबिक।
   
 नोटबंदी को ही देख लीजिए, कभी कांग्रेसनीत सरकार ने 2005 के बाद के 500 के नोट बंद करने का विधेयक संसद के पटल पर रखा तो भाजपा की तत्कालीन प्रवक्ता ने बकायदा प्रेस कांफ्रेंस दे मारा उसके विरोध में। आज खुद उसकी पार्टी ने ये निर्णय ले डाला तो उ बबुआ नराज हो गया। अब क्या कहेंगे आप। भई इनके माथेच पे लिखा है जो विरोधी करे उसका विरोध करो। वो आम को आम कहे तो इनको इमली कहनेच है। वरना दुकानदारी कइसे चले। उधर मोदी काका कहत हैं कि एकेच झाड़ू में आतंकवादी, भ्रष्टाचारी, कालाबाजारी सबको पेल दिया। इधर धन्ना सेठ कह रहा है कि भई जइसन हुआ फेर अपना सेटलमेंट हो गया। इधर बैंक की लाइन में समारू कका के पेट का पोटा मारे भूख के सुख गया, तो उधर इसी माहौल में उनके ही मंत्री की बेटी की शादी में मेहमान छप्पन भोग हकन रहे हैं।
 अब हम लिए बैठे हैं एक लीक को। मोदी की ईमानदार कोशिश मतलब सब हरा ही हरा। कोई ठंड ज्यादा है कहे तो जवाब देने तैयार बैठे हैं कि क्या कांग्रेसी दौर में नहीं पड़ती थी ठंड। विरोध में हैं तो बेशर्मी के साथ यही कहने के लिए कि बिना बीवी का आदमी क्या समझेगा घर गृहस्थी का दर्द।
इसीलिए कहता हूं प्यारे, थोड़ा—थोड़ा के चक्कर में भट्ठा बइठारने से अच्छा है जनता हैं तो जनता ही बनने में नफा है। नाक में गोबर रखकर फूल सूंघने से फूल की नहीं गोबर की बू आती है। गोबर हटाइए और ठोंक बजाकर सही चीज वाजिब दाम में खरीदिए। क्या गारंटी है कि सेमसंग ​कभी डिफेक्ट माल नहीं बनाएगा और माइक्रोमेक्स धांसू।
    हमरा त एकेच फंडा है लल्लू, कोई बोले तो तोलो फिर बोलो पर अपना कोना बचाइच के बोलो।

इस सीने में भी धड़कता होगा एक दिल

     
हाल ही में मैंने सर्वश्रेष्ठ हिंदी कहानियां (२०००-२०१०) पीडीऍफ़ फोर्मेटमें वंदना राग की लिखी कहानी यूटोपिया पढ़ी है, जिसमें एक दक्षिणपंथी विचारधारा से अतिरंजित नवयुवक की कुंठाओं को सरल ढंग से अभिव्यक्त किया गया है. कहानी पढ़ने के चंद रोज बाद १४ फरवरी अर्थात प्रेम दिवस उर्फ़ संस्कृति को लाठी से हांकने वालों की भाषा में ओछी पाश्चात्य संस्कृति के नग्न प्रदर्शन का दिन था. इस दिन मेरे साथ एक मजेदार अनुभव हुआ. हुआ यूँ था कि पूरे दिन जहाँ कानन पेंडारी, बिलासा ताल, स्मृति वन, मॉल आदि उन्मुक्त प्रेम की ऊँची उड़ान उड़ने की ख्वाहिश लिए पहुंचे प्रेमी युगलों से आबाद था, तो दूसरी ओर सड़कों पर खुद को भारतीय संस्कृति का पुरोधा कहने वाले नवयुवकों की बाइक रैली निकली थी. ये कभी मॉल में पहुचकर वेलेंटाइन डे स्पेशल पार्टी का बैनर-पोस्टर फाड़ते तो कभी कानन पहुंचकर युगलों पर आँखे तरेरते. मानों पाकिस्तान से दाखिल हुए आतंकवादियों की तलाश करने की जिम्मेदारी सरकार ने इन्हें ही दे रखी हो.
      रात के समय मैं प्रेस में कम्प्यूटर पर बैठकर ख़बरें पढ़ने की अपनी जिम्मेदारी निभा रहा था. तभी एक गोल-मटोल चेहरे वाला नवयुवक एडिटोरियल कक्ष में धडधडाते हुए दाखिल हुआ. पीछे ऑफिस का गार्ड चला आ रहा था. लड़के की उम्र वही रही होगी २२-२३ के आसपास. आते ही पहले तो सम्पादक महोदय से दुआ सलाम किया. फिर वेलेंटाइन डे पर दिनभर में भारतमाता की तथाकथित भक्ति में कमाए पुण्य पर आधारित विज्ञप्ति को छपवाने की डिमांड करने लगा. एक से दूसरे हाथ होते हुए वो विज्ञप्ति मेरे हाथों में पहुंची. लड़के की एक परेशानी तो दूर हुई. अब रह गया फोटो का टेंशन जो उसके मोबाइल पर था. नेटवर्क प्रोब्लम के चलते वो वाट्सएप पर मुझे फोटो नहीं दे पा रहा था. उसने अंतिम आजमाइश के तौर पर मुझे अपना फोटो ब्लूटूथ से देना तय किया. पेयर करने के फेर में उसने जैसे ही झुककर अपना मोबाइल नीचे किया, मुझे उसका स्क्रीन दिखने लगा. एक इमेज था जिसे वो ब्लूटूथ से शेयर करने सलेक्ट किया हुआ था. हाथ में सांस्कृतिक डंडा लहराते दूसरे युवाओं के बीच वो युवक भी खड़ा था. लेकिन मेरा ध्यान उसके ठीक ऊपर वाले फोटो पर चला गया. सुर्ख आभा लिए बड़ा सा इलेक्ट्रोनिक दिल धक-धक धडक रहा था. उसके ठीक ऊपर वेलेंटाइन डे का मैसेज लिखा था. पूरा पढ़ तो नहीं पाया, लेकिन लब्बोलुआब प्रेम पर ही आधारित था. मैंने एक नजर युवक के चेहरे पर फिराई. लाठी-डंडे व उन्माद की भाषा बोलते रहने वाले जुबान के ऊपर गढ़े शक्ल में मुझे मासूमियत छिपी नजर आई जो अब भी अंतिम साँसें लेते हुए जी रही थी. एकबारगी मैंने पलटकर उसका सीना देखने लगा. सोच रहा था कि क्या इसके अंदर भी कोई दिल धड़कता होगा, क्या कोई अनजानी सूरत इसे भी परेशान करता होगा. कुछ देर बाद लड़का चला गया. फिर हल्के-फुल्के मजाक के माहौल में मैंने दिल वाली बात सबको बताई. सभी हंस रहे थे. इसी बीच मैंने एक भैया से पूछ ही लिया कि भैया ये वेलेंटाइन डे मनाके संस्कृति बचाने निकला रहा होगा या लौटने के बाद मनाया होगा. भैया भी डेढ़सयाने निकले, बोले- अबे इनका अगला दिन रिजर्व रहता है. और सभी ठठाकर हंस पड़े..

विकास: दिखाने के लिए (पर्यावरण को तो बख्श दो)

आमतौर पर हम सरकारों को सरोकार के प्रति संवेदनशीलता और संवेदनहीनता के तराजू पर तौलते हैं. अब इसका पैमाना विकास हो गया है. लेकिन एक सवाल पर गौर फ़र्माइएगा कि सत्ता पर बैठा सख्श क्या सचमुच विकास कर रहा है या विकास होते दिखा रहा है. मार्केटिंग और विज्ञापन के इस दौर में ये फर्क करना वैसा ही मुश्किल काम हो गया है जैसे पानी में से नमक निकालना. लेकिन मैं आपको एक बहुत ही साधारण व सुलभ तरीके से आपको इस ओर ध्यान दिलाना चाहूँगा. बिलासपुर की सड़कों के किनारे से एक ही झटके में गायब कर दिए गए पेड़ और इस साल शहर के बेतहाशा बढ़ते तापमान के बीच के संबंधों पर विचार करें. क्या आपको नहीं लगता की सड़क चौडीकरण के लिए किए गए आधे-अधूरे काम विकास होते दिखाने का ही एक उपक्रम है. अमूमन हम सरकारों की ऐसी कारगुजारियों पर ये कहकर सवाल उठाते हैं कि ये विकास के नाम पर विनाश कर रहे हैं. तो क्या मामला वाकई ऐसा ही है. या फिर हम अनजाने ही सही इस बहाने सरकार की उस मंशा को ढांपने का काम कर रहे होते हैं. दरअसल सरकार और उनके नुमाइंदे करने के बजाय दिखने के चक्कर में उन कड़ियों को भूला देते हैं जिनका वो वादा किये होते हैं और निहायत जरूरी हिस्से भी होते हैं. याद करिए जब लिंक रोड के पेड़ों की बलि चढ़ने की ख़बरें अखबारों के पन्नों पर दर्ज हुए तो वर्जन स्टाइल टेक्स्ट फॉण्ट में कलेक्टर से लेकर एक्जीक्यूटिव इंजीनियर पीडब्ल्यूडी के वर्जनों में लिखे होते थे, आज 74 पेड़ काट रहे हैं तो रोड के किनारे उसका 10 गुना पौधे लगाएंगे. और आज स्थिति क्या है? डिवाइडर पर इलेक्ट्रोनिक रौशनी में सिंथेटिक पेड़ राहगीरों के मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं. वो 10 गुना पौधे क्या भेंट नहीं चढ़ गए शासन-प्रशासन के इसी नजरिए की.

      अब उसी लिंक रोड पर आगे बढ़िए, देखिए सिविल लाइन क्षेत्र में अफसरान के बंगलों के आसपास जिंदगी की भीख मांगते पेड़ों को. यहाँ इस खुशफहमी में न रहें कि चलिए यहाँ विकास दिखाने की जद्दोजहद में इनकी बलि नहीं चढ़ाई गई है. उनकी पत्तियों की थकन को महसूस करने के लिए मुझे नहीं लगता कि आपको बोटनिकल साइंस पढ़ने की जरूरत होगी. चौड़ी सड़क और फुटपाथ के नाम पर पेड़ों के निचले हिस्सों को सीमेंट से ऐसा फिक्स किया गया है कि जड़ें चाहकर भी अपने हलक तर नहीं कर सकते.
इसी शहर में बैठकर आपको प्रकृति से खेलने का नंगा नाच ही देखना है तो भी आपको ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा. बीडीए के दौर में राजकिशोर नगर बसा तो शहरवासियों को शुद्ध आबोहवा दिलाने के वादे के साथ स्मृति वन अरपा के तट पर बसाया गया. ये सही मायनों में शहरी हरियाली की अवधारणा को साकार करने की बेहतरीन सोच थी. शहरवासियों की भावना को भुनाने यहाँ उनके पूर्वजों की याद में उनसे पौधे रोपवाए गए और नाम दिया गया स्मृति वन. आज स्मृति वन का हाल क्या है यह किसी से छिपा नहीं है. पूर्वजों की थाती को सहेजने में नाकाम हुए और जंगल कटने लगे तो फिर विकास दिखाने की इच्छा बलवती हुई. रातों-रात एक हिस्से को लेकर कांक्रीट का जंगल बना दिया गया और दूसरे हिस्से को कूड़ाघर.

अंत में, मेरे आदरणीय वरिष्ठजन सीवरेज प्रोजेक्ट, चिमनियों के नित्य प्रति छोड़ते जहर और खेतों में फसल की जगह उगती अट्टालिकाओं को लेकर हर दिन जाल पन्नों को रंगते रहते हैं. सो मैंने सोचा कि बड़ी जिम्मेदारी बड़ों को निभाने दो. मैं कुछ छोटे-छोटे मसलों का पुलिंदा ही बना लेता हूँ. प्रयास कैसा लगा बताइएगा. अरे.. अरे.. एक मिनट. उपसंहार तो लिखा ही नहीं. वैसे पढ़ते-पढ़ते मुझे विकास का दुश्मन मान रहे होंगे तो मेरा ये कहना है कि बेशक विकास हो. ईमानदारी से हो. इस फेर में पर्यावरण का कुछ अंश अगर भेंट चढ़ना ही है तो ये अंतिम विकल्प होना चाहिए, न कि पहला कदम.     – नमस्ते.
                                               
                                                      आपका अपना

                                                      संदीप यादव

हां मैं दल-बदलू हूँ

               हां मैं गाँव का वही गंवार हूँ, जिसे गरीबी की सोंधी मिटटी ने जहां ममत्व का खजाना दिया तो उसी ने वो औकात भी दिखाया जहां से महलों की एक-एक सीढ़ी कदमों को बौना कर देता है. कोरबा में बीते बचपन के भोर की धुंधली शहराती यादों के साथ गवई के ठेठ मिजाज को जीता आया हूँ मैं. अब आप ही बताइए कि ऐसा आदमी भला कैसे नार्मल इंसान बन सकता है जो विषम को सम मानकर भोगा भी है और उसे बदकिस्मती मानकर उस पर रोया भी है. इतनी उलझनों के बीच मन स्थिर रहना और किसी को परमानेंट इष्ट और दूसरे को दुष्ट कहना संभव नहीं. घर के आत्मिक माहौल और प्यार ने मुझे कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा (तुष्टतावादी नहीं न जो अब साफ़ चश्मे से दिखने लगा है) से इश्क कराया और तो बार-बार मल्गुझिया खानदान का वारिश होने की पिलाई गई घुट्टी ने भाजपा के गौरव (दक्षिणपंथी नहीं जो खुली आँख से दिख रहा है) का हुश्न दिलाया. इसी इश्कबाजी के चक्कर में मैं दल-बदलू कब से बन गया मुझे पता ही नहीं चला. अब चूँकि मैं आम आदमी से ताल्लुकात रखता हूँ तो मेरे भी तो वही आम सपने रहेंगे न. सपनों के क्या कहने, हम मैंगो पीपुल्स को सस्ता भी चाहिए सुंदर और टिकाऊ भी चाहिए, कैसे मिलेगा भला हमें ये सब एक ही स्टोर पर. इसलिए घूम-घूमकर खरीदते हैं. भई राजीव गाँधी की सरकार ने जो 52वें सम्विधान संशोधन में दल-बदल कानून बनाया है वह खास लोगों के वास्ते है. हम फालो करने लगे तो सत्ता परिवर्तन कैसे करेंगे और लोकतंत्र का मतलब ही क्या रह जाएगा.
                         अब थोडा प्रोफेशन और व्यक्तिगत विचारधारा की ओर भी झाँक लिया जाए. मेरी औपचारिक पढ़ाई और पत्रकारिता की प्रोफेशनल पढ़ाई के बीच का दौर भी अनगढ़ खयाली में बीता है. टीवी पर शूट-बूटधारी टीवी एंकर और तोप मुकाबिल नहीं तो अख़बार निकालो की चौपाई बांचने वाले पत्रकार को पार्टी प्रेम और जाति-धर्म से परे उठकर आम आदमी के वास्ते कलम घसीटते देखा था. तब सोचता था कि ये प्रोफेशन में जैसे पेश आते हैं व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसी ही सोच रखते होंगे. मैं तब तक मुगालते में रहा जब तक कि उन सहपाठियों के विचार नहीं सुन लिए जो मेरे साथ पत्रकारिता की नई फसल के रूप में तैयार हो रहे थे. किसी पर मोदी, हिंदुत्व और राम मन्दिर का भूत सवार था तो कोई फक्कड और निरा कम्युनिज्म की बातें करके उनके हर उलझे-सुलझे कार्यों को जायज की कसौटी पर कसते थे. कुछ कांग्रेसी चेले भी थे. सबकी आँखों में अंधभक्ति की पट्टी बंधी देखी तो मैं हतप्रभ रह गया. विचारधारा की बातें थीं पर पूर्वाग्रही. ऐसी आँखों में ये सभी आम आदमी की बातें करेंगे और कर्तव्य, अधिकार, स्वतन्त्रता, समानता, एकता, अखंडता, स्वाभिमान के मुद्दे उठाएंगे. मुझे इस बात की संतुष्टि थी कि दल-बदलू होने के नाते मुझे इसमें कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी. मुद्दे के हिसाब से श्रेष्ठ विचारधाराओं को चुनते जाऊँगा और मन को ठेस भी नहीं पहुंचेगा.
               आज जब मीडिया के महारथियों के व्यक्तिगत ब्लॉग पढ़ता हूँ और टीवी, अखबार में उनके पाठ्य व दृश्य अवतार को देखता हूँ तो दोहरी छवि स्पष्ट दिखने लगती है. मुझे मीडिया पर मुद्दों को लेकर उनके द्वारा निभाई जा रही निरपेक्ष भूमिका उनकी मजबूरी जैसी दिखने लगती है. इस मामले में मेरी दल-बदलू छवि काम आती है और मजबूरी का कभी एहसास ही नहीं होता. इसी के नाते मुझे न तो बीजेपी के संस्कृति-प्रेमी विचारधारा से एलर्जी है और न कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता से. इसी बहाने अति को चावल के बीच पड़ी गोटियों की तरह बीनने की सहूलियत भी रखता हूँ.

अंत में             

इन दिनों मोदी का चेला बन बैठा हूँ क्योकि उसने मुझे वादा किया है कि कुम्भ के मेले में गुम चुके मेरे दोस्त विकास को वो ढूंढ़कर लाएगा. जहां तक राज्य की बात है, तो आपकी नजर में कोई बेहतर विकल्प नहीं है क्या, जो किसानों का हक मारकर वादाखिलाफी करने का काम न करे. कांग्रेस उत्तराधिकारी होता पर वहां तो सास-बहू सीरियल ही चल रहे. कोई और विकल्प हो तो बताइए. नहीच मिलेगा तो कोई जोर-जबरदस्ती भी नहीं है, आईपीएल के बाद खाली बैठने से बेहतर है कि उकताकर ही सही सास-बहू सीरियल ही देख लें...

गरीबों के सब्र का ‘चीर हरण’

"नईदुनिया के पत्रकार दिलीप यादव के FB वाल से साभार"
कभी एक-एक एक प्याली चाय बेचने वाले पीएम नरेंद्र मोदी गरीबी को नजदीक से समझते ही नहीं, बल्कि गरीबी का दंश भी झेल चुके हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान ‘अच्छे दिन आने वाले हैं...’ नारे के साथ मजदूर, किसान और गरीबों के बीच गए. मोदी का जादू कहें या अच्छे दिन की लालसा, भाजपा ने रिकार्ड सीटों से केंद्र की सत्ता पर वापसी की. इसी के साथ ही भाजपा शासित राज्य सरकारों के सामने पीएम मोदी के अच्छे दिन के वायदों को कागज से बाहर निकालकर लोगों के जीवन में साकार करने की चुनौती बढ़ गई है. खासकर रमन सरकार की, जिन्होंने राज्य की सत्ता पर हैट्ट्रिक बनाई है. अपनी तीसरी पारी के दौरान रमन सरकार और उनके नुमाइंदे यह कहते नहीं थक रहे हैं कि अच्छे दिन आने वाले हैं. पर किनके लिए? पत्थर से पानी निकालने वाले मजदूर, हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले किसान या दो जून की रोटी के लिए पलायन करने वाले गरीब. या फिर दूसरों की कमाई पर दलाली करने वाले व्यापारी या महलों में रहने वाले धनाढ्यों के लिए. 
रमन सरकार की तीसरी पारी की शुस््रआत से अब तक के कामकाज का आंकलन तो यही बयां करता है कि रमन राज में राम राज्य की कल्पना सिर्फ कोरी कल्पना ही है. भाजपा सरकार ने अपनी तीसरी पारी की शुस््रआत में समर्थन मूल्य पर धान खरीदी में कटौती और बोनस बंद कर किसानों की आंखों से खून के आंसू टपका दिए. राइस मिल और मंडी के दलालों क¨ अपनी खून-पसीने की कमाई औने-पौने दाम में सौंपने के बाद किसानों की आंखों से आंसू सूख ही पाए थे कि ध्न खेती-किसानी के मौके पर सरकार ने कृषि ऋण पर खिले फूल की जगह कांटे ब¨ दिए. यानी कि खाद-बीज और नगद ऋण की मात्रा 50-50 फीसद निर्धारित कर दी गई. विरोध में शोर-शराबा भी हुआ, लेकिन खाद-बीज और ऋण की मात्रा को 40-60 फीसद कर बुलंद होती गरीबों की आवाज को कारवां मिलने से पहले दबा दिया दिया. राज्य की सत्ता के दो कार्यकाल के बीच डाॅ. रमन गरीबों के बीच च¦र वाले बाबा के नाम से मशहूर हुए और तीसरे कार्यकाल में उन्होंने गरीबों के राशन पर पारी-पारी कैंची चला दी. पहले एपीएल का पूरा राशन बंद किया. फिर गरीबों के कोटे से दाल-गेहूं छीन लिया. बदले में एक बीपीएल कार्ड पर 35 किलो चावल देने का सब्जबाग दिखाया, लेकिन फिर से प्रति यूनिट चावल का कोटा तय कर दिया गया. अब बारी आई है गरीब परिवार के मासूम बच्चों की, जिन्हें सरकारी स्कूलों के युक्तियुक्तकरण के बहाने दूसरी जगह तालीम लेने जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है. इसके लिए जुमला यह फेंका जा रहा है कि राज्य में लिंग भेद को मिटाना है. इसी जुमले के सहारे राज्य के 2000 से अधिक सरकारी स्कूलों में ताले जड़ने की तैयारी पूरी कर ली गई है. सरकारी नुमाइंदों की जुबां पर सफाई यह कि कम दर्ज संख्या वाले स्कूल ही बंद किए जा रहे हैं. सरकार के इस निर्णय से बिलासपुर से लेकर सरगुजा संभाग तक, रायपुर से लेकर दुर्ग और बस्तर संभाग तक के पालक झल्ला गए हैं. अपने बच्चों के भविष्य को चिंतित अभिभावक भी सड़क पर उतर आए हैं. वे यही पूछ रहे हैं कि चौक-चौराहों, बाजार और सार्वजनिक स्थलों पर छेड़खानी की घटनाएं किसी से छिपी नहीं हैं. फिर सह शिक्षा के नाम पर लड़कियों क¨ लड़कों के स्कूलों में जाने मजबूर क्यों किया जा रहा है? आखिर गरीबों के सब्र का चीर हरण कब तक किया जाएगा? आंकड़े बताते हैं कि सह शिक्षा के नाम पर अकेले बिलासपुर जिले में ही 110 कन्या शालाओं को बंद कर दिया गया है. इसमें आदिवासी ब्लाॅक व भालू प्रभावित मरवाही, गौरेला व पेंड्रा के स्कूल भी शामिल हैं. छात्राओं समेत पालक उसी स्कूल में इस साल भी पढ़ाई कराने अड़े हुए हैं. इसके लिए आंदोलन का सहारा लिया जा रहा है, लेकिन अब तक का अनुभव यही कहता है कि गरीबों की आवाज में इतना दम नहीं है, जो ज्यादा देर तक टिक सके. हमेशा की तरह बगावत के इनके सुर को दमन कर दिया जाएगा. बात सब्र के चीर हरण की हो रही है तो महाभारत की द्रोपती के चीर हरण का भी जिक्र होना लाजिमी है. द्वापर युग में उनकी लाज बचाने वाले तो वासुदेव कृष्ण थे, लेकिन इन गरीबों की लाज बचाने वाला इस कलयुग में कौन है?

Sandeep Yadav: मेरा संक्षिप्त जीवन परिचय

Sandeep Yadav


कलम का एक नन्हा सिपाही हूं, जो जाने अनजाने मुझसे जिंदगी के फलसफों और अनुभवों को कागज से मेल कराकर नए-नए कैनवास बनवाते रहता है। मेरा बचपन कोरबा जैसे शहर से लेकर करुमहूं(karumahun) जैसे छोटे से गांव के सिवाने से भी दूर बियाबान में भी बीता है। कभी बस्ती के यारों की टोली से संबंध रहा तो कभी भाठापारा का एकांत माहौल। इस एकांत माहौल ने जहां मुझे अंतर्मुखी दिशा में मोड़ा वहीं मेरे अंदर के रचनाकार को बाहर निकालने का काम भी किया। जितना मुझे इस बात की खुशी है कि एकांतता ने मेरे अंदर के रचनाकार को जिंदगी दिखाई उतना ही गम इस बात की भी है कि बदले में उसने मुझमें कुसमायोजन को भी जगह दे दी, जिससे मुझे बाहर आने में अलग से समय लगाना पड़ रहा है। लेकिन एक न एक दिन मैं बाहर निकलने में जरुर सफल रहूंगा। Sandeep Yadav

रही बात जिंदगी के लमहों को परिचय के टाइमलाइन में सेट करने की तो सोच रहा हूं कि क्या लिखूं और क्या छोड़ूं। मैं तीन भाइयों में सबसे छोटा हूं, इसलिए त्याग का अहसास है मुझे। आप भी सोंच रहे होंगे कि छोटों को क्या त्याग करना पड़ता है, तो सभी छोटे भाईयों से पूछिएगा कि उन्होंने कौन सा त्याग किया है, जिसकी कीमत चुकाने के लिए उन्हें जिंदगी का काफी समय और अवसरों को देना पड़ा है। जी हां कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का त्याग। बाबूजी की सीमित आय ने हम तीनों भाईयों को एक साथ पढ़ने की इजाजत नहीं दी। जब मैं आठवीं में था, तब बड़े भैया ने हम दोनों भाइयों को पढ़ाई में धकेलकर हमें जिम्मेदारियों से वंचित कर दिया और सारी जिम्मेदारियों को हथिया लिया। 

अब मौका मेरे मंझले भैया का था। उन्होंने भी मेरे नवमीं कक्षा में पहुंचते तक बची-खुची जिम्मेदारियांे पर कब्जा कर लिया। मैं अभागा जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से वंचित होकर पढ़ाई के मकान में कैद कर दिया गया। उस पर ताला लगाने का काम मेरे जरुरत से ज्यादा झुठी जिम्मेदारी और कर्तव्य के दिखावे ने किया। मैं पढ़ाई को अपनी जिम्मेदारी मानकर दोस्तों, सहपाठियों और क्रिकेट, खो-खो, बांटी जीत जैसों से अपने आपको अलग कर लिया। जिंदगी की गाड़ी पढ़ाई और मेरे लगाए ताले के साथ चलता रहा। अकेला आदमी जो जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से आजाद हो उसे खयाली लड्डू खाने को नहीं मिलेंगे तो भला और किसे मिलेगा। मैं भी पुस्तकों और पत्रिकाओं के सहारे लेखन की दुनिया से होते हुए स्क्रीप्ट राइटर से होकर निर्माता निर्देशक बनने की राह पर अपने भविष्य को जाते हुए महसूस किया। 

इसी के मद्देनजर बारहवीं और काॅलेज की पढ़ाई मुझे औपचारिकता लगने लगी। तब मैंने सभी के समझाने के बाद भी आर्थिक स्थिति के आधार पर सीमित दूरी तक ले जाने वाले विषय गणित को चुना। क्योंकि मुझे आखिर में कला में ही ग्रैजुएशन जो करना था। सो मैंने जिद करके गणित विषय ले लिया। लेकिन यही औपचारिकता मेरा एक साल भी छिन गया और मैं गणित में खयाली दूनिया के चक्कर में बारहवीं में अटक गया। अपने ख्वाबों को जुबां की देहरी में लाने की हिम्मत तो नहीं थी, सो मैंने घर की देहरी लांघना ज्यादा मुनासिब समझा और 2006 की गर्मी में एक रात मुंबई व्हाया अमृतसर जाने की सांेचकर तकिए में एक पत्र दबाकर निकल पड़ा। लेकिन विचारों के मंथन के बीच रत्न यह निकला कि मैं बिलासपुर स्टेशन पहुंचकर अमृतसर को आगे के लिए टालकर रुकने की स्कीम बनाने लगा। इस बीच रोटी, कपड़ा और मकान व घर के बड़ों के होने का अहसास क्या होता है उनके न रहने से होने लगा। पहला काम तो यह किया कि बुक स्टाल से एक अखबार खरीदकर क्लासिफाइड का पन्ना पलटाया। 

मुझ अनुभवहीन के लिए गार्ड की नौकरी से ज्यादा कुशल नौकरी की उम्मीद नहीं थी। सो एक विज्ञापन देखकर उसके पते में वहां तक पहुंच गया। डेढ़ महीने की इस नौकरी से पैसा तो मुझे फूटी कौड़ी भी नहीं मिला लेकिन जिंदगी के उसूलों और जिम्मेदारियांे से रूबरू कराने की सटीक दिशा जरूर मिली। इसी दिशा से होते हुए मुझे वापस घर जाना पड़ा और कुछ दिन बाद फिर लौटना भी पड़ा। इस दौरान याद आता है वो लमहा जब मेरे अनुभवहीन मन के ख्वाबों में बेसिर पैर के उड़ान रहते थे, जिसमें अहम, क्रोध और उदासी के डेरे और उथल-पुथल भी रहते थे। याद आता है बड़े भैया के किसी बात पर समझाने पर लोटे को खेत में फेंकना, याद आता है बेबात रोना। जब परफेक्ट घर वापस पहुंचा तब तक उथल पुथल शांत होने लगा था और दिल की बातें जुबां में आने लगी थी । 

इसी दम पर मैंने कला विषय के साथ स्वाध्याय के माध्यम से बारहवीं उत्तीर्ण किया और अपने शिक्षकों के कला को निकृष्ट विषय कहने पर तर्क से काटने की हिम्मत कर सका। मन में शांति भले ही आई लेकिन उड़ान भला कैसे रूके हां पतंग के उस उड़ान को संभालने के लिए कोमल डोर जरूर मिल गया। मैंने स्वाध्याय से बीए करने की सोंचकर बिलासपुर का डीपी विप्र कॉलेज का चयन किया। इसी दौरान मुझे कॉलेज में बीजे एमजे जैसे नए शब्दों के बीच पत्रकारिता जैसे मेरी उड़ान के एक पड़ाव को ढुंढ लिया। फिर क्या था, ठान लिया कि मुझे करना है तो बस पत्रकारिता ही करनी है। बीजे करने की सोंचता तो तत्काल अपनी बात मुझे घर में रखना पड़ता जिसकी हिम्मत मुझमें अब भी नहीं आयी थी। सो मैंने म नही मन एमजे करने की ठान ली, क्योंकि उसके लिए तीन साल का लंबा समय जो था अपनी बात घरवालों के बीच रखने का। बीए के साथ 2007 में परसदा-गोपालनगर, लाफार्ज के उस स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का मौका मिला, जिसके सारे शिक्षक मेरे ही शिक्षक थे, भले स्कूल अलग था।

 दूसरे साल बाबूजी के विशेषज्ञ सलाहकारों के दबाव और मेरी बात न रख पाने की कमजोरी के चलते आईटीआई में दाखिला लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन मेरे जज्बे ने भी एक अलग रास्ता निकाल ही लिया। वैसे भी झूठ का यह रास्ता अगर अपने जज्बे को मुकाम पर ले जाने के लिए हो तो मुझे कोई गलत नहीं लगता। एक हजार रुपए की फीस पटाने के बाद मैंने ड्ाफ्समेन मैकेनिक ट्रेड की क्लास बीमार पड़ने के चलते दो सप्ताह तक टालना पड़ा था। दो सप्ताह बाद जब मैं पहला क्लास अटेंड करने कोनी स्थित आईटीआई सेंटर जा रहा था, तब मेरे अंदर के आदमी ने बार-बार मुझे रोका-टोका बहुत समझाया कि देख यह तेरी जिंदगी के लिए निगेटिव साइड टर्निंग प्वाइंट हो सकता है, वापस घर आकर मैंने देरी से कॉलेज आने पर दूसरे को एन्ट्री दे देने की बात कहकर आईटीआई से अपने आपको मुक्त करा सका। 

इसके बाद फाइनल ईयर के साथ-साथ अकलतरा में जर्नलिज्म सपोर्टिव कम्प्यूटर कोर्स करने के उद्देश्य से एक वर्षीय डीसीए पाठ्यक्रम में दाखिला लिया। इस बीच मेरे अंदर की लिखने की कुलबुलाहट कलम को घसीटने के लिए बाहर आने लगा। कोर्स और ग्रेजुएशन पूरा होने के बाद वैवाहिक बातें घर में होने लगी, तब मैंने पहली बार पूरे हिम्मत के साथ जर्नलिज्म में पीजी करने की अपनी बात को बाबूजी के सामने रख सका। जिसके बदौलत मेरी शादी की बात टालने का भरपूर मौका मुझे मिला और फिर एमएमसीजे के लिए गुरु घासीदास विवि में दाखिला लिया। यहां मुझे डाॅ प्रदोष कुमार रथ, श्री गुरुशरण लाल, डा शिवकृपा मिश्रा और श्री देवाशीष वर्मा जैसे गुरुओं का सान्निध्य मिला और मैं चल पड़ा पत्रकारिता बेस्ड लेखन को चमकाने की दिशा में। कॉलेज में आशीष , निलेश . श्रवण , कृष्णा, अनुराग, आमिर, आदित्य, पिंटू, केदार, अनामिका, रश्मि दी, स्वाति, पूजा जैसे क्लासमेट और साथी मिले, जिनके सहयोग का भी मैं शुक्रियागुजार हूँ। 

याद रहेगा वो कैंटिन का समोसा, मंचूरियन, चाउमीन, कोल्ड्रिंक का अनवरत दौर। श्रवण की शादी, बारात, निलेश, आशीष, आदित्य की बर्थडे पार्टियाँ क्या-क्या बताऊँ पलों को समेटने के लिए शब्द तो नहीं सामर्थ्य कम पड़ जा रहे हैं काश वो पल फिर सिमट कर वापस आ जाते। चलिए आगे बढ़ते हैं कोर्स पूरा हुआ और श्री शिवकृपा मिश्रा सर के मार्गदर्शन में पत्रिका समाचार पत्र में इंटर्नशिप किया। जिसमें मुझे अखबार में लिखने की कला को जानने का भरपूर ज्ञान हासिल हुआ। 

वैसे भी कला सिखने का अंत तो जिंदगी भर चलती रहती है और हमेशा अधुरी ही रहती है। इसके बाद मैं रायगढ़ के लोकप्रिय अखबार केलो प्रवाह के बिलासपुर संस्करण प्रवाह के साथ कलम के प्रवाह को दिशा देने निकल पड़ा। साल भर स्थानीय प्रकाशन वाले  अखबारों में कलम को निखारने के बाद फिर पत्रिका से बुलावा आया। फिलहाल नईदुनिया में नई मंजिले तलाश रहा हूँ। देखना है कि यह कलम मुझे कहां-कहां और किस दिशा में ले जाती है।