विकास: दिखाने के लिए (पर्यावरण को तो बख्श दो)

आमतौर पर हम सरकारों को सरोकार के प्रति संवेदनशीलता और संवेदनहीनता के तराजू पर तौलते हैं. अब इसका पैमाना विकास हो गया है. लेकिन एक सवाल पर गौर फ़र्माइएगा कि सत्ता पर बैठा सख्श क्या सचमुच विकास कर रहा है या विकास होते दिखा रहा है. मार्केटिंग और विज्ञापन के इस दौर में ये फर्क करना वैसा ही मुश्किल काम हो गया है जैसे पानी में से नमक निकालना. लेकिन मैं आपको एक बहुत ही साधारण व सुलभ तरीके से आपको इस ओर ध्यान दिलाना चाहूँगा. बिलासपुर की सड़कों के किनारे से एक ही झटके में गायब कर दिए गए पेड़ और इस साल शहर के बेतहाशा बढ़ते तापमान के बीच के संबंधों पर विचार करें. क्या आपको नहीं लगता की सड़क चौडीकरण के लिए किए गए आधे-अधूरे काम विकास होते दिखाने का ही एक उपक्रम है. अमूमन हम सरकारों की ऐसी कारगुजारियों पर ये कहकर सवाल उठाते हैं कि ये विकास के नाम पर विनाश कर रहे हैं. तो क्या मामला वाकई ऐसा ही है. या फिर हम अनजाने ही सही इस बहाने सरकार की उस मंशा को ढांपने का काम कर रहे होते हैं. दरअसल सरकार और उनके नुमाइंदे करने के बजाय दिखने के चक्कर में उन कड़ियों को भूला देते हैं जिनका वो वादा किये होते हैं और निहायत जरूरी हिस्से भी होते हैं. याद करिए जब लिंक रोड के पेड़ों की बलि चढ़ने की ख़बरें अखबारों के पन्नों पर दर्ज हुए तो वर्जन स्टाइल टेक्स्ट फॉण्ट में कलेक्टर से लेकर एक्जीक्यूटिव इंजीनियर पीडब्ल्यूडी के वर्जनों में लिखे होते थे, आज 74 पेड़ काट रहे हैं तो रोड के किनारे उसका 10 गुना पौधे लगाएंगे. और आज स्थिति क्या है? डिवाइडर पर इलेक्ट्रोनिक रौशनी में सिंथेटिक पेड़ राहगीरों के मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं. वो 10 गुना पौधे क्या भेंट नहीं चढ़ गए शासन-प्रशासन के इसी नजरिए की.

      अब उसी लिंक रोड पर आगे बढ़िए, देखिए सिविल लाइन क्षेत्र में अफसरान के बंगलों के आसपास जिंदगी की भीख मांगते पेड़ों को. यहाँ इस खुशफहमी में न रहें कि चलिए यहाँ विकास दिखाने की जद्दोजहद में इनकी बलि नहीं चढ़ाई गई है. उनकी पत्तियों की थकन को महसूस करने के लिए मुझे नहीं लगता कि आपको बोटनिकल साइंस पढ़ने की जरूरत होगी. चौड़ी सड़क और फुटपाथ के नाम पर पेड़ों के निचले हिस्सों को सीमेंट से ऐसा फिक्स किया गया है कि जड़ें चाहकर भी अपने हलक तर नहीं कर सकते.
इसी शहर में बैठकर आपको प्रकृति से खेलने का नंगा नाच ही देखना है तो भी आपको ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा. बीडीए के दौर में राजकिशोर नगर बसा तो शहरवासियों को शुद्ध आबोहवा दिलाने के वादे के साथ स्मृति वन अरपा के तट पर बसाया गया. ये सही मायनों में शहरी हरियाली की अवधारणा को साकार करने की बेहतरीन सोच थी. शहरवासियों की भावना को भुनाने यहाँ उनके पूर्वजों की याद में उनसे पौधे रोपवाए गए और नाम दिया गया स्मृति वन. आज स्मृति वन का हाल क्या है यह किसी से छिपा नहीं है. पूर्वजों की थाती को सहेजने में नाकाम हुए और जंगल कटने लगे तो फिर विकास दिखाने की इच्छा बलवती हुई. रातों-रात एक हिस्से को लेकर कांक्रीट का जंगल बना दिया गया और दूसरे हिस्से को कूड़ाघर.

अंत में, मेरे आदरणीय वरिष्ठजन सीवरेज प्रोजेक्ट, चिमनियों के नित्य प्रति छोड़ते जहर और खेतों में फसल की जगह उगती अट्टालिकाओं को लेकर हर दिन जाल पन्नों को रंगते रहते हैं. सो मैंने सोचा कि बड़ी जिम्मेदारी बड़ों को निभाने दो. मैं कुछ छोटे-छोटे मसलों का पुलिंदा ही बना लेता हूँ. प्रयास कैसा लगा बताइएगा. अरे.. अरे.. एक मिनट. उपसंहार तो लिखा ही नहीं. वैसे पढ़ते-पढ़ते मुझे विकास का दुश्मन मान रहे होंगे तो मेरा ये कहना है कि बेशक विकास हो. ईमानदारी से हो. इस फेर में पर्यावरण का कुछ अंश अगर भेंट चढ़ना ही है तो ये अंतिम विकल्प होना चाहिए, न कि पहला कदम.     – नमस्ते.
                                               
                                                      आपका अपना

                                                      संदीप यादव

हां मैं दल-बदलू हूँ

               हां मैं गाँव का वही गंवार हूँ, जिसे गरीबी की सोंधी मिटटी ने जहां ममत्व का खजाना दिया तो उसी ने वो औकात भी दिखाया जहां से महलों की एक-एक सीढ़ी कदमों को बौना कर देता है. कोरबा में बीते बचपन के भोर की धुंधली शहराती यादों के साथ गवई के ठेठ मिजाज को जीता आया हूँ मैं. अब आप ही बताइए कि ऐसा आदमी भला कैसे नार्मल इंसान बन सकता है जो विषम को सम मानकर भोगा भी है और उसे बदकिस्मती मानकर उस पर रोया भी है. इतनी उलझनों के बीच मन स्थिर रहना और किसी को परमानेंट इष्ट और दूसरे को दुष्ट कहना संभव नहीं. घर के आत्मिक माहौल और प्यार ने मुझे कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा (तुष्टतावादी नहीं न जो अब साफ़ चश्मे से दिखने लगा है) से इश्क कराया और तो बार-बार मल्गुझिया खानदान का वारिश होने की पिलाई गई घुट्टी ने भाजपा के गौरव (दक्षिणपंथी नहीं जो खुली आँख से दिख रहा है) का हुश्न दिलाया. इसी इश्कबाजी के चक्कर में मैं दल-बदलू कब से बन गया मुझे पता ही नहीं चला. अब चूँकि मैं आम आदमी से ताल्लुकात रखता हूँ तो मेरे भी तो वही आम सपने रहेंगे न. सपनों के क्या कहने, हम मैंगो पीपुल्स को सस्ता भी चाहिए सुंदर और टिकाऊ भी चाहिए, कैसे मिलेगा भला हमें ये सब एक ही स्टोर पर. इसलिए घूम-घूमकर खरीदते हैं. भई राजीव गाँधी की सरकार ने जो 52वें सम्विधान संशोधन में दल-बदल कानून बनाया है वह खास लोगों के वास्ते है. हम फालो करने लगे तो सत्ता परिवर्तन कैसे करेंगे और लोकतंत्र का मतलब ही क्या रह जाएगा.
                         अब थोडा प्रोफेशन और व्यक्तिगत विचारधारा की ओर भी झाँक लिया जाए. मेरी औपचारिक पढ़ाई और पत्रकारिता की प्रोफेशनल पढ़ाई के बीच का दौर भी अनगढ़ खयाली में बीता है. टीवी पर शूट-बूटधारी टीवी एंकर और तोप मुकाबिल नहीं तो अख़बार निकालो की चौपाई बांचने वाले पत्रकार को पार्टी प्रेम और जाति-धर्म से परे उठकर आम आदमी के वास्ते कलम घसीटते देखा था. तब सोचता था कि ये प्रोफेशन में जैसे पेश आते हैं व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसी ही सोच रखते होंगे. मैं तब तक मुगालते में रहा जब तक कि उन सहपाठियों के विचार नहीं सुन लिए जो मेरे साथ पत्रकारिता की नई फसल के रूप में तैयार हो रहे थे. किसी पर मोदी, हिंदुत्व और राम मन्दिर का भूत सवार था तो कोई फक्कड और निरा कम्युनिज्म की बातें करके उनके हर उलझे-सुलझे कार्यों को जायज की कसौटी पर कसते थे. कुछ कांग्रेसी चेले भी थे. सबकी आँखों में अंधभक्ति की पट्टी बंधी देखी तो मैं हतप्रभ रह गया. विचारधारा की बातें थीं पर पूर्वाग्रही. ऐसी आँखों में ये सभी आम आदमी की बातें करेंगे और कर्तव्य, अधिकार, स्वतन्त्रता, समानता, एकता, अखंडता, स्वाभिमान के मुद्दे उठाएंगे. मुझे इस बात की संतुष्टि थी कि दल-बदलू होने के नाते मुझे इसमें कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी. मुद्दे के हिसाब से श्रेष्ठ विचारधाराओं को चुनते जाऊँगा और मन को ठेस भी नहीं पहुंचेगा.
               आज जब मीडिया के महारथियों के व्यक्तिगत ब्लॉग पढ़ता हूँ और टीवी, अखबार में उनके पाठ्य व दृश्य अवतार को देखता हूँ तो दोहरी छवि स्पष्ट दिखने लगती है. मुझे मीडिया पर मुद्दों को लेकर उनके द्वारा निभाई जा रही निरपेक्ष भूमिका उनकी मजबूरी जैसी दिखने लगती है. इस मामले में मेरी दल-बदलू छवि काम आती है और मजबूरी का कभी एहसास ही नहीं होता. इसी के नाते मुझे न तो बीजेपी के संस्कृति-प्रेमी विचारधारा से एलर्जी है और न कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता से. इसी बहाने अति को चावल के बीच पड़ी गोटियों की तरह बीनने की सहूलियत भी रखता हूँ.

अंत में             

इन दिनों मोदी का चेला बन बैठा हूँ क्योकि उसने मुझे वादा किया है कि कुम्भ के मेले में गुम चुके मेरे दोस्त विकास को वो ढूंढ़कर लाएगा. जहां तक राज्य की बात है, तो आपकी नजर में कोई बेहतर विकल्प नहीं है क्या, जो किसानों का हक मारकर वादाखिलाफी करने का काम न करे. कांग्रेस उत्तराधिकारी होता पर वहां तो सास-बहू सीरियल ही चल रहे. कोई और विकल्प हो तो बताइए. नहीच मिलेगा तो कोई जोर-जबरदस्ती भी नहीं है, आईपीएल के बाद खाली बैठने से बेहतर है कि उकताकर ही सही सास-बहू सीरियल ही देख लें...