कश्मीर मांगोगे तो साला चिर देंगे

मोबाइल, इंटरनेट, टेक्नोलॉजी, ऊर्जावान युवा... विकसित होता दिखाई देता देश. पर हम आखिर जा कहाँ रहे हैं. क्या ऊर्जा समाज को आइना दिखाकर रोशन कर रहा है या मोहरा बनकर सिमट जाना चाह रहा है. दूसरी ओर, देश में कुछ ऐसे हिस्से आज भी बचे हुए हैं जिन्हें मुख्यधारा वाले तो पिछड़ेपन की निशानी मानकर कन्नी काट लेते हैं, लेकिन बदलाव से दूर कुछ बातें ऐसी हैं जो वहां के लोगों को अँधेरे में रौशनी देती हैं. या यों कहें कि अन्धेरा ही उनकी सच्ची रौशनी है. दोनों पहलुओं को समेटने की कोशिश है कश्मीर मांगोगे तो साला चिर देंगे. आपकी प्रतिक्रिया के इन्तजार में...

(1)
          ट्यूनिशिया की सड़क पर हजारों की तादात में काले लिबास में लिपटी गोरी, मटमैली और गेहुंई काया के भीतर गहराइयों में गुस्से के लावे उफन रहे हैं। उनमें अमेरिका परस्त हुकुमत द्वारा जरूरी सेक्यूलर सिस्टम को तवज्जो देने को लेकर तरस से लिपटी खिन्नता है और अल्लाताला के वारिश होने का अभिमान भी बराबर उछालें मार रहा है। अंदर की तड़प आंखों से लालिमा के रूप में और जुबान से झर रहे हैं। नारा ए तकबीर, अल्लाहो अकबर की गूंज वातावरण को जोश से लबरेज कर रही है।
          झुंझलाती तश्वीरों और बीच-बीच में पुअर सिग्नल के साथ पटल से गायब होते दृश्य के एक कोने में अलजजीरा का मोनो अटका हुआ है। बेतरतीब बिखरे सामान और सीलन से उठती कसैली गंध के बीच रमजान की जर्द आंखें ही कमरे की इकलौती चीज है जो स्थायित्व पा रही है और टीवी के इन बदलते दृश्यों पर बराबर टिकी हुई हैं। इसी स्थायित्व की भेंट प्लेट में रखे ठंडा हो रहे पाश्ता के टुकड़े चढ़ रहे हैं और बेहद धीमी गति से रमजान के मुंह में जा रहे हैं, जिन्हें उसकी अम्मी रुखसार बानो ने बड़ी जतन से अपने बेटे और नए नवेले कंपाउंडर बाबू के लिए सुबह-सुबह ही बनाई हैं। टीवी पर ट्यूनिशिया की झुंझलाती तश्वीरें अभी भी चल रही हैं, लेकिन रमजान का ध्यान न जाने क्यों दो साल पहले सिटी बस से उतरकर गुरु घासीदास सेंट्रल यूनिवर्सिटी के कैंपस में उसके साथ दाखिल हो रहे एक कश्मीरी छात्र के धुंधले हो चुके चेहरे पर टिक गया।
          ’देख लेना भाईजान, तुम्हारी सरकार देखती रह जाएगी और हम कश्मीर को आजाद करा लेंगे। अभी पत्थर का जोर देखे हैं, एके-47 का स्वाद चखना बाकी है।....तो क्या सचमुच भूल चुका है हमारा कौम वो औरंगजेब की तलवार, लीग की भीड़ में बलखाती भुजाएं। या दबा दिया है काफिरों ने 47 से अब तक के नए इतिहास में पल-पल नोचते नारों और तानाकशी से। ऐसा ही विचार रमजान के मन में उस दिन उठा था जब कश्मीरी छात्र ने ये बात कही थी। तब काफिर शब्द का इस्तेमाल उसने मन में ही सही पहली बार ही किया था।
          उसका क्लासमेट जनार्दन पीठ के ठीक पीछे झुककर जय श्रीराम करके दहाड़ता हुआ उठता था, तो वह उसे मित्रता के नाम पर भूल जाता था। बीते छह दिसंबर को शौर्य दिवस मनाती कस्बे की सड़क पर बजरंगियों की बाइक रैली निकली। तभी एक निहायती कमीने शक्ल वाले लड़के ने सीट से उछलकर पुट्ठे का भोंपू बनाकर उसके कान के पास ही जाकर जय श्रीराम की दहाड़ मारी थी। उस दिन मन में आया कि क्यों न उसके सिर पर जोर का एक पत्थर मारा जाए। उसे लगने लगा था कि इन लोगों को बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराने के लिए मुगल सल्तनत के खंडहर होने से ज्यादा माकूल उनके उत्तराधिकारी मुसलमानों के मर चुके जज्बात रहे होंगे। हमारी कौमी गैरतमंदी की लाश को ही इन लोगों ने सीढ़ियां बनाई होंगी।
          एकाएक रमजान की नजर कलाई में बंधी घड़ी की ओर हुई, जिसकी सुईयां सुबह के दस बजा रही थीं। उसने खयाली दुनिया से वास्तविक दुनिया में कदम रखे। वैसे आजकल उसे खयाली दुनिया ही सच्ची दुनिया लगने लगी है। वास्तविक दुनिया ने उनके जैसों को इस छोटे कस्बे में तंग गलियां ही दी है, जिसमें दोनों ओर की श्रीराम निवास, कृष्ण कुंज लिखी इमारतों के आगे उसकी बिरादरी वालों के पान ठेले, मैकेनिक शॉप, ऑटो पार्ट्स की दुकानें ही ले-देकर फल-फूल सकती हैं। बड़े बिजनेस के लिए बैंक से लोन की उम्मीद आवेदक के नाम में मोहम्मद या खान जैसे उपनाम पढ़कर प्यून के सिकुड़ते भौंहे देखकर बड़े बाबू के टेबल पर पहुंचने से पहले ही टूट जाती है। खुद उसकी अनुकंपा नियुक्ति के समय के ढेरों चोचले वह कैसे भूल सकता है। 
          रमजान ने अपनी बाइक निकाल ली तो रुखसार ने भीतर से आकर उसके हाथ में रोटी और तरकारी से भरी टिफिन थमा दी। वह अमरैय्या भाठा को कस्बे से जोड़ने के लिए बनी नई सड़क के किनारे हाल ही में शिफ्ट हुए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जाने के लिए आगे बढ़ा। रोज की तरह एक बार फिर वहीं इमारतें उसे चिढ़ाकर उसके कौम के दोयम दर्जे पर हंस रही थीं।
          इधर रुखसार मकान के सामने अहाते के बीच लगे लोहे के गेट पर ठुड्डी टिकाकर रमजान को अस्पताल जाते हुए पुरसुकुन होकर देखे जा रही थी। उसे अपने बेटे के अंदर मची उथल-पुथल का रंचभर भी भान नहीं था। रहे भी क्यों, रमजान के अब्बा के इंतकाल के बाद भी उसके जीने का एकमात्र और बड़ा सहारा रमजान ही तो था। वरना वह तो टूट ही गई थी पूरी तरह से। आंसूओं के सैलाब के बीच उसके सिर को अपने कंधे पर टिकाकर बूढ़ी खाला ढांढस बंधाती थी तो वह और दहाड़ें मारकर रोती थी। देख, सून रुखसार, इधर देख मेरी ओर, शब्बीर मरा नहीं है, वो देख, रमजान की आंखों में वो अभी भी जिंदा है। हंस रहा है तुम्हारी रोनी सूरत देखकर।तब खाला की इस ढांढस बंधाती आवाज का जरा सा भी असर नहीं होता था। मगर धीरे-धीरे उसने रमजान के अब्बा को रमजान की आंखों में जिंदा देखना सीख गई थी। 
          सरकारी अस्पताल में रेडियोलाजिस्ट पति के रोड एक्सीडेंट में हुई मौत ने मानों रुखसार को जीते जी मौत दे दी थी। उसके बाद उसी अस्पताल में कंपाउंडर के पद पर रमजान की अनुकंपा नियुक्ति ने ऐेसी जिंदगी दी कि अब वह खुद की हिफाजत में जी-जान से जुट गई थी। कभी बिगड़ी तबीयत को खुद पर हावी होने नहीं देती, क्योंकि उसे डर था कि बेटे की ऊंची उड़ान में उसकी तबीयत हावी न हो जाए। हर काम को बड़े करीने से अंजाम देती थी, ताकि रमजान को कभी उसकी फिक्र में समय और खयाल जाया न करना पड़े। बस रमजान के बेतरतीब कमरे से वह हार मान चुकी थी। इस बात के लिए वह टोकती नहीं थी बल्कि हर दूसरे दिन आकर कमरे को सजा देती थी। करीने वाली बात उसने रमजान के अब्बा के गुजरने के बाद ही अपनी जिंदगी में लाई थी। वरना उसे तो किसी बात की जरा भी परवाह नहीं रहती थी। बेटा कौन-से क्लास में है, अच्छा रिजल्ट आया या न आया, उसका दाखिला कस्बे के कॉलेज में कराया जाए या जीजीयू में, प्लेन कोर्स ठीक रहेगा या ओनर्स जैसी बात तो वह जानती तक नहीं थी।
          रमजान के दिमाग में इन दिनों चल रहे उथल-पुथल भी रुखसार से कोसों दूर थे। कोटमी सोनार जैसे गांव में पैदा हुई थी, जहां उसने हिंदू-मुसलमान को एक जाति के रूप में ही जाना था, कौम के रूप में नहीं। वह भी बिना किसी भेदभाव के। शादी-ब्याह, मरनीए तेरही या चालीसवां सभी में परजातक के रूप में क्या हिंदू, क्या मुसलमान सभी एक पंगत में बैठते थे। त्योहार तक को तो आपस में मिलजुलकर मनाना नहीं भूले थे कोई। शहर में जरूर रहा होगा, क्योंकि इतिहास तो पढ़-लिखकर ही कुरेदा जाता है। फेसबुक, वाट्सएप और गुगल करने की कला विकसित होने के बाद ही आत्माभिमान तलाशने का शगल शुरू हुआ था, जो दूर के नफरतों, झगड़ों-टंटों को आईने की तरह रमजान जैसों के सिर में खपाने लगा था....
(2)
          ....सिर खपाना तो कोई सेमरवा पंचायत के आश्रित ग्राम बुटेना के चमरू पइकहा (मोची) से सीखे। घंटों बैठकर खुरपा से लाश की खाल ऐसे उधेड़ता है कि जरा सा भी चमड़ा लाश पर नहीं छूटता। वह लाश चाहे गाय का हो, बैल का हो या भैंसे का, चमड़ा भी कटान को छोड़कर इस तरह निकलता है कि दोबारा लाश में फीट कर दे तो किसी को पता भी न चले कि खाल उधेड़ी जा चुकी है। वैसे वह लोगों की खाल उधेड़ने में भी माहिर है। उसके लिए न राउत लगता है, न गोंड़, न केंवट और न सतनामी। जुबान की छुरी सब पर महीन चलती है। पहले तो वह किसी की परवाह ही नहीं करता था। रामभरोस केंवट के आजा बबा जग्गु गौंटिया ने ही चमरू के बाप मंगरू और उसकी घरवाली को रसेड़ा गांव से लाकर बसाया था, ताकि गांव में जचकी के समय नेरूहा (नाल) काटने, गाय-भैंस मरे तो उनका निपटारा करने जैसे काम हो सके। 
          जग्गु बबा के परसाद से ही चमरू का खानदान चढ़-बढ़ गया था। हालांकि पूरे खानदान ने कभी इसका बेजा इस्तेमाल नहीं किया। गांव में छुआछूत तो है, लेकिन बस रिवाजों में। दूसरी जात वालों से चमरू का खाना-पीना नहीं होता। छट्ठी-मरनी में सूखे सामानों का लेन-देन होता है। गांव में लड़ाई-झगड़ा तो होता है, लेकिन दुश्मनी एक सीजन से ज्यादा नहीं टिकती। जरूरतों से भेद मिट जाते थे।
          जग्गू बबा ने गांव में मंदिर से ज्यादा महत्व तालाबों को दिया था। पनभरिया, जग्गू डबरी के पाठ पर और लीलागर नदी के खड़ में बारोमहीना सब्जी लगती थी। इसलिए लोगों ने बस हाड़तोड़ मेहनत ही जाना था और धरम-करम को कुटीघाट मेले में मंदिर दर्शन तक ही सीमित रखा था। ढेड़हा बिहाव का रिवाज (दूल्हा-दुल्हन के दीदी-जीजा व बुआ-फूफा द्वारा रश्म निभाने की परंपरा) होने से सभी जात वालों की शादी-ब्याह तक बिना पंडित के निपट जाता था। इसी बात को लेकर दस खेत पार गाड़ा-रवन (भैंसागाड़ी चलने से बने निशान वाली पगडंडी) से जुड़े सेमरवा के लोग बुटेना को छोट जात वालों का गांव समझते थे और अपने गांव का हिस्सा भी शरीर में कोढ़ की तरह मानते थे।
          जिले का अंतिम गांव होने से बुटेना बरसों से कटा हुआ था और बाहरी प्रोडक्ट के रूप में सरपंच मनबोध ही पांच साल में एकात बार वोट बटोरने के लिए नजर आ जाता था। नदी पार बिलासपुर जिला को जोड़ने के लिए लीलागर में रपटा और प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत सेमरवा और बुटेना के बीच पक्की सड़क बनने से बदलाव जरूर आया था। सेमरवा में मनबोध को चुनौती देने वाली नई जमात के लोग तैयार हो जाने पर उसने खुद को बुटेना पर केंद्रित कर दिया था। सुंदर उसका खास चेला बन गया था। मनबोध की दखल से गांव में दुर्गा बैठने लगी थी और पूजा-पाठ के लिए पंडित ने पहली बार गांव में कदम रखे थे। इसी के चलते गांव की तासीर भी कुछ-कुछ बदलने लगी थी। शायद बदल नहीं रही थी, बस मनबोध के दबाव में बदलाव जैसा जरूर दिख रहा था। हालांकि चमरू से उनकी दूरी जरूर बढ़ने लगी थी और दूसरी दलित जातियों के प्रति भी मन में वैमनस्य जगह लेने लगी थी। अब चमरू के साथ-साथ उन लोगों को भी अपने दलित होने का दर्द महसूस होता जा रहा था।
          उस दिन, रात में अच्छी बारिश होने से सुबह का मिजाज बड़ा खुशनुमा था। सूरज की किरणें भरकनहा भाठा की हरी-हरी घास की नोंकों पर जमी ओस की बूंदों के साथ सतरंगी खेल खेल रही थीं। सेमरवा और बुटेना के बीच भाठा के एक किनारे पर ट्रांसफार्मर जैसे लोहे के दो खंभे एक साथ खड़े थे। उसी से सटकर एक अच्छी-खासी मोटी बलही बछिया औंधियाई पड़ी थी। चमरू रोज की तरह अपनी साइकिल के हैंडल में झोला लटकाए अंदर खुरपा और टांगी (कुल्हाड़ी) रखे और पीछे कैरियर में बोरी को चिपे सड़क के आजू-बाजू नजर हांकते ऐसे ही किसी मरे जानवर की तलाश में गुजर रहा था। औंधियाई बछिया की हट्टी-कट्टी काया को देखकर पहले तो उसे यकीन नहीं हुआ कि वह मर चुकी है। हां सिर को बाकी शरीर के समानांतर जमीन से सटे होने के चलते जरूर लगा कि यह उसके काम की है।
          साइकिल को किनारे लगाकर चमरू ने मुआयना करने की सोची और बछिया की पूछ को जैसे ही हाथ लगाया पूरा शरीर झनझना गया। वह दूर छिटक गया। समझते देर नहीं लगी कि खंभे के करंट से ही बछिया की जान गई है। तभी उसने महसूस किया कि बछिया का एक पैर खंभे से तब भी सटा था, जब उसने पूंछ को पकड़कर घसीटा था। थोड़ी सी हरकत में वह खंभे से अलग हो गई थी। पर चमरू जान का खतरा मोल नहीं लेना चाह रहा था। उसने अपनी टांगी का सहारा लिया और बेंठ का एक सिरा पकड़कर लोहे वाले हिस्से को बछिया की टांग पर फंसाकर उसे पलटा दिया। अब बछिया सुरक्षित स्थान पर आ गई थी। फिर वह जोर लगाकर उसे खंभे से और दूर ले गया।
          काम शुरू करने से पहले चमरू ने भरपूर नजरों से बछिया को देखा तो उसकी बाछें खिल गईं। हफ्तों क्या महीनों बाद उसे ऐसी ताजी तरकारी मिलने जा रही थी। उसने अपनी लुंगी खोलकर दोबारा बांधा और उसके निचले हिस्से को भी कमर में लपेटकर घुटनों से ऊपर चढ़ा लिया, ताकि हाथ सनने के बाद झिक-झिक न करना पड़े। पूरी तैयारी करने के बाद बछिया के सिर पर हाथ रखकर मां लक्ष्मी का सुमिरन किया। उसके काम पर भले कोई कैसा भी नाक-मुंह सिकोड़े, लेकिन उसे अपने काम पर गर्व होता था। किसान गाय से दूध और बछिया लेने तक और बैल से काम लेने तक पूजता है। मरने के बाद घसीटते हुए भाठा के किसी कोने में बास मारने के लिए डाल देता है। कुत्तों और गिद्धों के साथ एक वही तो है जो उसका निपटारा करता है और गउ माता को छिछालेदर होने से बचाता है।
          धूप अब बढ़ने लगी थी। रात की बारिश के चलते वातावरण में उमस भी भरपूर मात्रा में घुल चुकी थी। चमरू खुरपा से बछिया के पेटौरी के पास थन के ऊपर से चीरा लगाकर गर्दन तक फाड़ने के बाद खाल उधेड़ने में तल्लीन था। तब तक मोहल्ले के दो-तीन कुत्ते भी अपने हिस्से का बंटवारा लेने आ चुके थे। हालांकि इंसान के अतिक्रमण से उनमें मायूसी थी। एक काले कुत्ते ने जरूर विद्रोह की मुद्रा में आकर बछिया के पैर को दांत गड़ाकर खींचने की कोशिश की। चमरू ने खुरपा उठाकर उसे ललकारा। हालांकि कुत्ते भी जानते थे कि चमरू पेट का पोटा निकालकर हमेशा की तरह उनकी ओर जरूर फेंकेगा, लेकिन सब्र आजकल के इंसानों के बस की बात नहीं रही। वे तो कुत्ते ठहरे।
          अब सेमरवा के लोगों के खेत-खार निकलने, गाड़ी चढ़ने के लिए नदी पार जयरामनगर स्टेशन जाने और वहां के मार्केट से खरीदारी करने का समय हो गया था। जो भी गुजरता वह बिना दुर्गंध के ही नाक-मुंह सिकोड़ते और घिनाते हुए जगह को पार करते जाता था। यही बात चमरू की समझ में नहीं आती थी। सड़े मांस तो ठीक है, ताजे मांस से उन्हें क्यों घिन आती है। उनमें से कई अपने हाथ में छूरा-तब्बल से बकरे का गर्दन एक झटके में उड़ा देते हैं। और तो और काटने के बाद मांस के लालची पोटा धोने तक जाते हैं। उसने तो यहां तक सुन रखा है कि शहर के बड़े-बड़े होटल वाले तक पोल्ट्री-फारम से मरे मुर्गे को आधे से भी कम कीमत में लाकर लजीज से लजीज तरकारी बनाते हैं। लोग खुद को ऊंचा उठाने और दूसरों को दबाने के कायदे को धरम की गठरी में कसकर बांधते हैं। जहां अपनी चोटी फंसती दिखे वहां से खिसक लेते हैं।
          तल्लीनता की कोशिश के बाद भी आज चमरू के काम में वह सफाई नहीं आ पा रही थी। जल्दी घर जाकर बहुत से काम निपटाने हैं। उसकी पत्नी सुखमनी दो दिन से बीमार है। डाॅक्टर ने ठंडा खाने और छूने से मना किया है। खाना तो उसका काम है। पर घर का काम तो चमरू को ही निपटाना होगा। तभी जयरामनगर से लौट रहे सेमरवा के चुन्नीलाल के बेटे मन्नू ने अपनी साइकिल रोक ली और बछिया को घुरकर देखने लगा। चमरू ने संभलते हुए मन्नू की ओर देखा तो वह आगे बढ़ गया। चमरू भी नजरअंदाज करते हुए अपने काम में लगा रहा।
करीब आधे घंटे बाद हो-हल्ला सुनकर उसका ध्यान भंग हुआ। पलटकर सड़क की दिशा में देखा तो पंद्रह से बीस लोगों की भीड़ हाथ में लाठी, कुल्हाड़ी लिए उसी की ओर चली आ रही थी। उसके ठीक विपरीत दिशा में नरवा खार पड़ता है। उसने अंदाजा लगाया, फिर कोई दूसरे का पेड़ काटते पकड़ा गया होगा। सेमरवा का बंशी ही होगा। चाहे सेमरवा हो या बुटेना, जिस गांव के खार में छेरी (बकरी) चराने जाए और वहां से तुतारी के लिए एक लकड़ी की निशानी न लाए तो उसका नाम बंशी नहीं। खार सुना दिखा नहीं कि छेरी को तिवरा, अंकरी में ढील देता है और खुद सोझ, गुदार लकड़ी की खोज में जुट जाता है। सेमरवा में नवधा-रामायण बंशी के बिना होता नहीं। वहां दोहरा चरित्तर के बिना तो किसी की जय-जय ही नहीं है। चमरू बंशी के बारे में सोचता ही रहा और भीड़ उसके आसपास ही आकर कुछ दूरी बनाकर ठिठक गई। सबकी आंखों में जुगुप्सा भाव उभर आया था और भौंहें खींचकर एक-दूसरे के पास आने से माथे पर सिलवटें उभर आई थीं।
          सबसे आगे खड़ा मनबोध सिंह का बेटा भानूप्रताप, जिसने बिलासपुर के सीएमडी कालेज में चार साल पढ़ने के दौरान युवा नेता संजू तिवारी की शागिर्दी की थी। उनके कैंपेन का नतीजा था कि संजू युवा संगठन का जिला प्रमुख बन गया था, कमर से बेल्ट निकालकर हवा में लहराने लगा। चमरू सकपकाकर कमर झुकाए खड़ा हो गया था। हाथ से खुरपा भी छूट गया था।
          ’एती आ बे साले चमरा नीच कहीं के!मारे गुस्से के भानूप्रताप के हाथ-पैर झनझना रहे थे। बिलासपुर में रहने के दौरान वह यूथ ब्रिगेड के साथ गौरक्षा मंच से भी जुड़ गया था। वापस गांव आने के बाद लोकल नेता दीनदयाल तिवारी की चमचई कर रहा था। मंच से जुड़ने के बाद से वह गउ माता का परम भक्त बन गया था और गांव आकर भी आसपास के गांवों के दीनदयाल के चमचों की अलग फौज बना ली थी। वे सभी उसके साथ खड़े थे। हालांकि उसके घर की बलही बछिया उसके जवान होते तक बारह पिला जमनाकर और घरभर को हजारों लीटर दूध पिलाकर बुढ़िया गई थी पर उसे पहचानता तक नहीं था। 
          ’हरामखोर अतका सउख हे ताजा मांस खाए के त अपन डउकी (पत्नी), लइका के घेंच (गला) ल न पउल दार (काट डालो)। गउ माता को जिंदा काटते तेरा हाथ भी नहीं कांपा रे हरामी!झटके के साथ भानूप्रताप ने बेल्ट घुमाकर चमरू के बदन को सड़ाक से लपेटे में लिया। चमरू वहीं पर लड़खड़ाकर औंधे मुंह गिर पड़ा। होंठ और दाएं गाल पर लहू चुहचुहाने लगा था। इस बीच बछिया के मालिक और सुंदर के कका-बड़ा वाले भाई मनहरन को आगे कर दिया। मनहरन व दो-चार और लड़कों ने अपने हाथ की खुजली मिटाई। हालांकि छुआ लगने के फेर में हाथ किसी ने नहीं लगाया, बस लाठी-डंडे से काम चलाया। एक जोर का डंडा चमरू के कनपट्टी पर लगने से धारा-प्रवाह खून बहने लगा था।
          ’आदमी औं बेटा महूं, लक्ष्मी ल जियत काटके पांप नई बोहंव।चमरू की मुश्किल से भर्राई हुई सी आवाज निकली थी।
          ’नक्टा... स्साले... पापी कहीं के, बेटा किसको बोला बे! हत्या करके लक्ष्मी बोलते भी शरम नहीं आती क्या तेरे को?’ मार-मारके थक जाने के बाद चमरू के शब्द सुनकर मानों भानूप्रताप फिर से ऊर्जावान हो गया और दो-चार बेल्ट और जमाया। गाय को लक्ष्मी कहने से ज्यादा गुस्सा उसके बेटा कहने से आया था।
          भानूप्रताप के नेतृत्व में लोगों ने तय किया कि ट्रेक्टर मंगाकर बछिया और चमरू को लेकर थाने जाया जाए और सीधे तीन सौ दो की धारा लगवाई जाए। धार्मिक उन्माद फैलाने की धारा एक सौ तिरपन और उसके सारे सेक्शन तो भानूप्रताप का पहले से रटा-रटाया था। आधे घंटे में सारा इंतजाम करके चमरू से आधी खाल उधड़ी बछिया को ट्राली में डलवाया और उसे भी अपने सारे औजारों को लेकर ट्राली में बैठा दिया। इंजन में ड्राइवर के साथ केवल मनहरन ही बैठा। इस फौज में बुटेना गांव से वह इकलौता ही था। बाकी भानूप्रताप के साथ उसके बाप की कमाई से खरीदी गई सूमो गोल्ड में सवार हुए। उनकी गाड़ी आगे चल रही थी और सभी बेफिक्र भी थे। क्या चमरू ट्राली से कूदकर भाग नहीं सकता था? क्या भूगोल की एबीसीडी नहीं जानने और लंबा फेंकने वालों ने भी लाचारों के लिए ही कहा है कि दुनिया गोल है? या फिर इस लोकतांत्रिक जमाने में वह सत्ता का केंद्र आज भी मौजूद है जहां तिलक, तराजू और तलवार की छोड़ी गई धरती पर चमरू जैसे लोग रस्सी से बंधे मुर्गे की भांति रस्सी की लंबाई से बनी परिधि में इस गलतफहमी के साथ घूमते हैं कि वे आजाद हैं।
          उनकी गाड़ी जब थाना परिसर में दाखिल हुई तो दरोगा साहब मातहतों से रात वाला हिसाब निकलवाकर हिस्सेदारी में जुटे थे। पहले तो नया शिकार जान मूंछों पर तांव दियाए लेकिन चमरू की फटी हालत देख और माजरा जानकर मुंह में आई लार सूख गई। गौरक्षकों का तांडव तो पहले से जानते थेए लेकिन आजकल मानवाधिकार संगठनों ने भी सुस्ती से ही सही टांग खिंचना शुरू कर दिया था। लिहाजा उन्होंने जांच कराने की बात कही। भानूप्रताप भी दरोगा से सवा शेर निकला और दीनदयाल तिवारी से मोबाइल में बातचीत कर ट्रेक्टर को सीधे सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले गया।
          जय श्रीराम, गौ हत्या नहीं सहेंगे, नहीं सहेंगे-नहीं सहेंगे के नारे लगाते हुजूम में कस्बे के गौरक्षक भी शामिल हो गए थे। अधिकांश युवा चेहरे, जोश और जज्बे से लबरेज, मरने-मारने के लिए तैयार थे, लेकिन नेताओं ने फेसबुक और वाट्सएप की जुगलबंदी से उन्हें कुछ और बना दिया था। दशा तो सबकी सही थीए लेकिन धर्मांधता ने दिशाएं भटका दी थी।
          हंगामा सुनकर अस्पताल के स्टाफ से चार-पांच लोग प्रवेशद्वार तक आए और कुछ मरीजों के परिजनों के साथ खिड़कियों से कौतुहलवश झांकने लगे।
          भीड़ के बीच नाटे कद के बीएमओ साहब अपने काॅलर को ठीक करते हुए बाहर निकले। उनके पीछे दो-तीन स्टाफ के लोग थे, जिनमें से एक रमजान भी मुट्ठी भींचे चला आ रहा था।
          बीएमओ को सामने देखकर भानूप्रताप ने मनहरन को आगे किया।
          ’बीएमओ साहब! ये नीच आदमी इस बेचारे किसान की गउ माता को जिंदा मारकर काट रहा था। हमें तो पूरा यकीन है बस आपको तस्दीक करानी है कि सच में इसके काटने से ही बछिया मरी है।भानूप्रताप ने चमरू की ओर इशारा करते हुए एक सांस में बात पूरी की।
          बीएमओ को उस वक्त खिन्नता की जगह हंसी आ गई। मन ही मन सोचने लगे कि जितनी मोटी बुद्धि का यह दिख रहा है उससे ज्यादा का निकला। हालांकि भीड़ की तासीर देखकर उसे जुबान पर नहीं लाए, बोले,भाई मैं तुमसे सहमत हूं, तस्दीक तो होनी चाहिए, लेकिन यह उसकी जगह नहीं है। न तो यह चीर घर है और न चीर घर में जानवरों की चीर-फाड़ होती है। ढोर अस्पताल ले जाओ तो शायद काम बन जाए।
          ’ठीक है साहब, धन्यवाद।भानूप्रताप ने जोर लगाकर कहा और भीड़ धीरे-धीरे वहां से छंटने लगी।
लौटते समय रमजान को छोड़कर अस्पताल स्टाफ के प्रत्येक के मुख पर मुस्कान लिपटी थी तो रमजान का आभामंडल क्षोभ और व्यंग्य के मिश्रण से अलग ही रूप बना रहा था। तब तक उसे सारी मालूमात हो गई थी। वह चमरू की तड़प को भी महसूस कर रहा था।
          आमिर मोहम्मद के ब्लाॅग मुस्तकबिल ए कौम के लिंक वाले मैसेज उसके वाट्सएप ग्रुप में अक्सर आते रहते हैं। उसमें कई दफा उसने दलितों के अंतहीन शोषण और मनु स्मृति से संबंधित आलेख पढ़े हैं, जो आज साकार हुआ था। हालांकि अगड़ी, पिछड़ी सभी जातियों को लेकर रमजान की धारणा एक ही है, लेकिन उनकी यातना भरी जिंदगी रमजान की नफरतों वाली धारणा को और मजबूत करती थी।
(3)
          ...रमजान की धारणा उस वक्त और मजबूत हो गई, जब उसने प्राइम टाइम में उत्तरप्रदेश के दादरी हत्याकांड का ब्योरा देखा। हालांकि उसके ठीक बाद वाले स्लाॅट में छत्तीसगढ़ 24 में मुसलमान होकर भी जिंदगी के 68 साल रामायण की चौपाइयां गाकर जीवन गुजारने वाले दाउद खां रामायणी के निधन पर आधे घंटे के प्रोग्राम को आॅफ करके वह एफबी के पोस्ट चेक करने लगा। बड़े-बड़े शिक्षाविद् और महापुरुष शिक्षा को सम्पूर्ण इंसान बनाने का मुख्य जरिया मानते हैं, लेकिन रमजान शिक्षा व संचार के सारे माध्यमों को अपनी धारणा के अनुरूप ढालने और उसी हिस्से को लेने पर जोर देता है। उधर भानूप्रताप जैसों का भी यही हाल है।
        खाना खाने के बाद रुखसार अपने कमरे में सोने चली गई और रमजान अपने कमरे में आ गया। वह अपने शरीर को बिस्तर पर डालकर आराम तो दे रहा था, लेकिन मन आरएसएस, बाबरी विध्वंस, दादरी कांड, बाइक पर खड़े होकर पुट्ठे की भोंपू से जय श्रीराम का दहाड़ मारता बजरंगी, पाकिस्तान पर जीत की खुशी में पठान मोहल्ले की दिशा में तिरछा करके राॅकेट छोड़ने वाला माया सेल्स के मालिक का बेटा विक्की,  भानूप्रताप और चमरू के बीच रिश्ते जोड़ने में उलझ गया था। बाहुबल और संख्याबल हमेशा निरीह को देखकर ही उछालें मारता है। दुनिया का हर दमनकारी इसी के दम पर दहाड़ता है और हर कमजोर सख्श नतमस्तक होने पर मजबूर हो जाता है। तो इससे मुक्ति का मार्ग क्या है? संर्ष। मष्तिष्क के किसी कोने से निकलकर यह शब्द उसके मानस पटल पर झंकृत हुआ था। इंसान चाहे उत्तर आधुनिक हो या पथभ्रष्ट, वह किसी न किसी प्राचीन विचारधारा से अपनी सहुलियत की राह निकाल लेता है। जैसे रमजान ने संर्ष रूपी यह युक्ति निकाली थी। गीता में संर्ष के लिए कहा गया है कि मनुष्य को ईश्वर ने संर्ष करने और शक्तिवान बनने के लिए ही भेजा है। संर्षों से मुक्त सीधा-सरल जीवन स्वप्न मात्र है। कुरान भी दमित, शोषित का आर्तनाद सुनकर उनके न्याय के लिए संर्ष की इजाजत देता है। हालांकि रमजान इस समय किसी देवबंदी द्वारा संर्ष को जेहाद के रूप में की गई व्याख्या वाली वीडियो क्लिप से अपने विचारों को पोषित कर रहा था।
          रमजान की आंखें अब नींद से झुंझलाने लगी थीं। टीवी बंद कर देने से वातावरण में शांति घुली हुई थी। कस्बा होने के बाद भी इस मोहल्ले में रात के 11 बजते ही आम दिनों में ऐसा सन्नाटा पसर ही जाता है। तभी सिरहाने पर रखा मोबाइल अजान ए मदीना की मधूर धुन वातावरण में रुहानियन घोलते हुए वाइब्रेट करने लगा। घुमक्कड़ों से उसकी दोस्ती तो थी नहीं, रिश्तेदारी में भी रात गए ऐसे काॅल की उम्मीद नहीं थी। उसने स्क्रीन देखा, नया नंबर था। लगा कि रांग नंबर होगा। उसने रिसीव कर लिया।
          ’हैलो---। कौन---?’, उनींदे स्वर में रमजान ने कहा।
          ’अस्लाम वाले कुम भाईजान। सब खैरियत न।, उधर से सधी हुई आवाज गूंजी जो रियाज से गढ़े हुए शब्द लग रहे थे।
          ’ज्ज---जी! मैं पहचाना नहीं। कौन बोल रहे हैं।हकलाते हुए रमजान ने कहा।
          ’भाईजान बराओ नहींए जान-पहचान भी हो जाएगी। वैसे रमजान आप अपने हिंदुस्तान में अपने कौम की हालत को लेकर क्या खयाल रखते हैं।बर्फीली हवाओं के बीच कंपकंपाता सा स्वर गूंजा।
          ’आपको मेरा नाम कैसे पता।
          ’रमजान भाई। मुसलमान बिरादरी बड़ी आफत में सांस ले रही है। हमें सबका खयाल रखना पड़ता है। वैसे आपको अपने कौम के लिए नहीं लगता क्या कि कुछ किया जाए। कुछ बड़ा काम। आखिर कयामत वाले दिन आप क्या जवाब देंगे अल्लाह को।
          ’वैसे आप जो कोई भी हों, अपने कौम के बारे में मैं जरूर सोचता हूं, इसके लिए आपको मुझे कुछ समझाने या बताने की जरूरत नहीं है।
          ’बिल्कुल सही फरमाया भाईजान, ऐसा ही जज्बा होना चाहिए। लेकिन आप सोशल साइट पर लिखते ही रह जाएंगे और एक दिन पूरी दुनिया से हमारी बिरादरी का जनाजा निकल जाएगा।
          ’आप कहना क्या चाहते हैं?’
          ’भाईजान फिलीस्तीन, अफगानिस्तान, इराक तो तबाह कर डाले ये अमेरिकन कुत्ते। इधर कश्मीर में हमारे भाइयों का क्या हाल है किसी से छुपा है क्या। अल्लाह ने हम पर भरोसा किया है तो हमें कुछ करना पड़ेगा। अल्लाह के भरोसे हम रहेंगे तो यह हराम नहीं होगा क्या?’
          ’क्या करने की बात कह रहे हैं?’
          ’करेंगे, कुछ बड़ा सा करेंगे। ताकि आपकी काफिर सरकार की नस्लें याद रखें। और हो सके तो वो याद करने वाला नस्ल ही न रहे। ऐसा कुछ करेंगे।
          ’हां, लेकिन आपकी सरकार का मतलब समझ में नहीं आया। आप बोल कहां से रहे हैं।
          ’सब्र करिए भाईजान, सब कुछ बताऊंगा। पहले आप अच्छे से और सोच लो। ठीक है, आपसे फिर बात होगी। अल्लाह हाफिज।
          रमजान को विचारों के भंवर में डालकर अनजान सख्श ने फोन काट दिया। उसके माथे पर बल पड़ गए। नींद भी ओझल। कौन हो सकता है वह, क्या कोई फिदायीन? सुनने में आता है कि वे आजकल हर जगह सक्रिय हैं। चाहे सोशल साइट हो या वेबसाइट, मोबाइल व सिम से डेटा चुराने में भी माहिर हैं। पिछले आधे घंटे से करवटों का सिलसिला जारी है, जो उसके मन में चल रहे उधेड़बुन का अनुभाव बन गया है। घुप्प अंधेरे कुंए के रसातल में वह धंसा हुआ है। चारों ओर काले नाग गरल छोड़ते फन मार रहे हैं और वह बचने के लिए अकेले जूझ रहा है। ऊपर भी उम्मीद की कोई किरण नहीं दिख रही। अचानक एक डोरी उतारी भी तो किसने? बीहड़ के किसी दुर्दांत डाकू ने। वह तो उसका राॅबिनहूड होगा, लेकिन अमेरिकापरस्त दुनिया उसे लुटेरा कहता है। रसातल से निकलेगा भी तो आखिर बीहड़ में ही पहुंचेगा। अचानक अम्मीजान याद आई तो बरबस ही उसके साथ याकूब मेमन की मां भी चली आई। पुलिस डंडों से कमरे की दराजों-दरख्तों को पीट रही है और वह सहमी हुुई कोने में दुबककर खड़ी है। आंखें पथरा गई हैं। रमजान सिहर उठा। यह बीहड़ में जाने के बाद की उपजी कल्पना थी।
          अब वह रसातल में धंसे अपने दूसरे विकल्प को याद करने लगा जो उसका वर्तमान है। यह वर्तमान भी उसे उसके भविष्य को लेकर डरा रहा है। अचानक उसे बाजू वाले जुम्मन हज्जाम के साथ हुए वाकये याद आ गए। डेढ़ साल पहले कैसे सिसोदिया क्रेसर के संचालक के बेटे ने उसके ठेले पर कार चढ़ाई थी और भरपाई की बात पर थप्पड़ रसीदे थे। रिपोर्ट दर्ज कराने के बाद टीआई जीपी ठाकुर जुम्मन के र ही शिकायत की जांच के बहाने घुस आया था। तब कैसे बूटों की खड़खड़ से सहमकर जुम्मन के सात साल के बेटे ने पेशाब कर डाला था। खयालों के रील घुमते गए और वह भेदभाव, शक और दोयम दर्जे के व्यवहारों पर अटककर अपने इस पक्ष को मजबूत करता गया।
          अगली सुबहए फिर शाम और देर रात भी अनजान नंबर वाले का काॅल आया। इस दौरान वह सख्श अनजान नहीं रह गया। उसकी कौम का था और मसीहा बनकर उसकी जिंदगी में आया था। चारों काॅल को मिलाकर इतना तय हुआ था कि एक ग्रुप से जुड़े कुछ लोगों को बस हिंदुस्तान में अराजक माहौल चाहिएए कुछ को आजाद कश्मीर और दोनों को जरूरत थी देशभर में स्लीपर सेल की फौज की। रमजान को अपने कौम की हिफाजत करनी थी और वह हक दिलानी थी जिसमें वह बराबरी के साथ खड़ा हो सके। चाहे वह दहशतगर्दी से हो या याराना तरीके से। हालांकि याराना वाली बात उसके पिछले अनुभवों से बेमानी हो गई थी। उस सख्श ने आगे भी उसके कई सवालों के जवाब दिए। मसलनए किसी एरिया में एक्शन लेने से पहले रेकीए बम फीड करनेए असलहे मुहैया करानेए फंडिंग आदि। बस्तर सर्किल में एक हिंदू स्लीपर सेल की जानकारी भी उसने दी तो रमजान चैंक गया।
          उसने शंका का समाधान कियाएभाईजानए पैसे और सत्ता की लालच क्या नहीं कराती। गद्दारी से ही तो इतिहास रची गई है। इसके बिना हिंदुस्तान में न आर्य ?ाुस पातेए न मुगल और न अंग्रेज। विभीष.ाए सुग्रीव और मीर जाफरों ने ही रुके हुए इतिहास को रवानी दी है।
          एकाएक रमजान में ऐसा बदलाव आया कि कौमी सोच की अटकलें अब पक्की हो गईं। पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को स्कूल ले जाते समय अब्बा का तिरंगा खरीदकर देनाए त्रिपाठी अंकल के ?ार दीवाली पर सपरिवार मिलने जानाए अंबू के साथ होली में रंगों से सराबोर होनाए बिलासपुर में देवी मां की आपत्तिजनक वीडियो जारी होने के बाद भड़की भीड़ से आदित्य }ारा उसे सकुशल निकाल ले जानाए सब कुछ भूला देना चाहता है वह। पर क्यों? क्या सि)ांतवादी होने का यही फायदा है कि इससे उस प{ा को मजबूत करने के लिए हमें दूसरे प{ा को आसानी से भूला सकने की सहुलियत मिल जाती है।
(4)
          ’भूल गया क्या रमजानए आज तुझे त्रिपाठी भाईसाब के यहां ले जाने के लिए कहा था मैंने।
रिस्टवाच पहनते हुए रमजान ने दरवाजे की ओर देखा। दरवाजे पर रुखसार दुपट्टे से चेहरे पर हवा करती हुुई खड़ी थी। रमजान के हाथ रुक गएएक्यों अम्मीए क्या हमारे जाने भर से त्रिपाठी अंकल का लकवा ठीक हो जाएगा और वे दौड़ने लगेंगे?’ उसने लापरवाही भरे अंदाज में कहा और आइने के पास जाकर कं?ाी से बाल संवारने लगा।
     रुखसार को रमजान का अंदाज बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। त्यौरियां चढ़ाती हुई बोलीएरमजान! बड़ों के लिए ऐसा मजाक नहीं करतेए खासकर ऐसी दुख की ?ाड़ी में। हमें वहां देखकर कितनी तसल्ली मिलेगी उन्हें और बेचारी करु.ाा भाभी को।
     ’हां-हांए क्यों नहींए हम उनके लिए एहसान-दर-एहसान करें और उनके जैसे लोग मरे हुए आदमी के लिए खुन्नस रखें। क्या बिगाड़ा था हमने जो उन लोगों ने अब्बा के ग्रैच्यूटी का पैसा रोके रखा? उन्हीं लोगों ने न।
     ’रमजान ये तुम क्या उन्हीं लोगों नेए उन्हीं लोगों ने लगा रखा है। तेरे को मालूम भी हैए जब तुम्हारे अब्बू सड़क पर तड़प रहे थे तो उन्हें समय पर हाॅस्पिटल पहुंचाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने वाला कौन था? अमजद भी तो उस दिन उनके बाजू से गुजरा थाए लेकिन अनजान शराबी समझकर नजरअंदाज कर गया था। उसकी जगह अगर त्रिपाठी भाईसाब पहले पहुंचे होते तो तुम्हारे अब्बा अभी जिंदा होते। पेंशन की बात कर रहे हो नए उन्होंने ही कर्मचारी नेताओं को एकजुट किया था तब कहीं जाकर ग्रैच्यूटी मिली थी और पेंशन शुरू हुआ था।
     रमजान पर रुखसार के तर्क भारी पड़े। हकलाते हुए कहाएहां अम्मी यह बात तो सही हैए लेकिन ये भी तो सोचो कि हर मामले में हमें हिंदुओं ने दबाया ही तो है। प्रोफेसर चतुर्वेदी के ?ार नाश्ते के बाद प्लेट धोने की बात मैं जिंदगीभर नहीं भूल सकता। नौकरी के लिए कितना दर-दर भटका हूं। मेरे सामने बी ग्रेड वाले मयंक को ले लिया गया और मुझे मुसलमान समझकर ए प्लस रहने के बाद भी दुत्कार दिया गया। गहराई में जाकर सोचो तो सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। कुछ गिने-चुने लोग अलग सोच वाले निकल भी जाते हैं तो उनकी क्या गिनती।
    रुखसार ने आगे कुछ भी नहीं कहा और रमजान अपनी बाइक निकालने लगा। उसे डर था कि कहीं अम्मीजान बिफर न पड़ेए लिहाजा तूफान को टालने के लिए अंतिम समय में पलटकर कहाएचार बजे आऊंगा तो ले जाऊंगा।’ 
    रुखसार को पहली बार रमजान की बदली-बदली सोच का खटका लगाए लेकिन नजरअंदाज कर गईं। उधर रमजान की सोच की तुला पर पड़ा प्रतिशोध का पत्थर ही इतना भारी थाए जिसे त्रिपाठी जैसा तिनका रंच भर भी नहीं डिगा सकता। रमजान शाम को लौटा तो थका हुआ थाए लेकिन रुखसार की बात नहीं टाल सका और फ्रेश होकर उन्हें त्रिपाठी अंकल के ?ार ले गया। उनकी पत्नी करु.ाा ने जैसे ही रुखसार और रमजान को देखा आत्मीयतावश आंखें सजल हो गईं। उन्होंने चेहरे पर मुस्कान लाने की असफल कोशिश की।
    ’आओ रुखसार बहनए आज मिला हमारे ?ार का रास्ता या कहीं रास्ता तो नहीं भटक गई।रुखसार को गले से लगाते हुए करु.ाा ने कही और आंगन में रखी कुर्सी को उसकी ओर बढ़ाते हुए रमजान की ओर देखाएबाप रे बाप! ये तो बढ़ने के मामले में बांस को भी मात दे रहा है। तीन साल पहले ही राज्योत्सव में मिला था तो नन्हा सा दिखता था।
    रुखसार कुर्सी पर बैठ गई और उलाहना भरे स्वर में कहाएकाश ये छोटा और नासमझ ही रहता बहनए इसकी समझदारी ने तो जीना हराम कर दिया। फिर जिद ऐसी कि पूछो मत। नवाब साहब को रेंजर साइकिल से अस्पताल जाने में शर्म आती थी। मोटरसाइकिल खरीदोगी तो ड्यूटी पर जाऊंगा करके रट लगा दिया। क्या करतीए एडवांस निकलवाकर दिलाई हूं।
    ’रुखसार तुम मानो न मानोए ये रमजान की जरूरत थीए जिसके लिए उसने जिद की। वरना आजकल के बच्चे---ए हे भगवान! अपना गोपाल का भी तो सुन ले। वो कोई आतंकवादी नहीं थाए जिसे फांसी हुई है। अपने यूनिवर्सिटी के लफंगे दोस्तों के साथ उसका बलिदान दिवस मनाता फिर रहा था। जिद की भी हद होती है। जिद करोए हक के लिए लड़ो मगर इतना भी तो मत करो कि देश से गद्दारी कर बैठो।इतना कहते-कहते करु.ाा ने सिर पकड़ लिया।
    ’सही है बहनए ये जमाना ही खराब चल रहा है। जितना आगे बढ़ रहे हैं उतना ही पीछे भागे जा रहे हैं। पता नहीं ये राजनीति करने वाले बच्चों का कितना इस्तेमाल करेंगे। जो बच्चे आपस में मिलकर अल्लाहए ईश्वर तेरे नाम गाते थे वे जय श्रीराम और अल्लाहोअकबर करके दहाड़ रहे हैं। चंदा मांगने वाले बच्चे अब गौरक्षा के नाम पर नंगई करते फिर रहे हैं। मैं तो अल्लाह, खुदा, इबादत सब मानती हूं पर इस डर से कि मेरे बच्चे के दिमाग में कोई नफरत का जहर न घोल दे इसीलिए इन सब पर ज्यादा जोर नहीं देती। मुझे लगता है कि मैं इसमें कामयाब भी रही हूं। फिर भी पता नहीं क्यों डर लगा रहता है।
    अम्मीजान की बातें सुनकर रमजान की आंखों में सुबह की तश्वीरें नाचने लगी। क्या वह उसी की उलाहना दे रही है। उसकी खुशफहमी का असर तो रमजान पर नहीं हुआ फिर भी न जाने क्यों अनायास ही सिर किस आंतरिक प्रतिक्रिया से नीचे झुक गया।
    इस बीच त्रिपाठी को रुखसार और रमजान के आने की आहट हुई। शरीर के बाएं भाग के निष्क्रिय होने से दाएं हिस्से के सहारे खुद ही अलट-पलटकर बिस्तर से उठ गए। छड़ी से एक पैर को उचकाते और दूसरे को सीटते हुए वे बाहर आए।
    करुणा ने उनमें दिनों बाद ऐसा उत्साह देखा। रुखसार को आत्मग्लानि हुईए कहा, ’भाईसाब आप क्यों तकलीफ उठाए, हम तो अंदर आ ही रहे थे।
गर्दन नहीं घुमने की वजह से त्रिपाठी ने जवाब देने के लिए अपने आधे शरीर को घुमाया और उनकी ओर देखा। कहाएअब्बीर का एटा इतना अया हो अया।वे कहना तो चाहते थे शब्बीर का बेटा इतना बड़ा हो गया, लेकिन लकवा ने उनकी जुबान से ज्यादातर व्यंजन छीन लिए थे। रुखसार ने आंखों से रमजान को इशारा किया तो उसने आकर उनके पैर छुए।
    उन्होंने आशीर्वाद दिया और रुखसार की बातों का जवाब दिया, ’आक्टर ने अहलने के लिए अहा है। अहनजी! आप आए तो इमारी ऐसे ही उर हो गई।पुरसुकुन होकर वे पास रखी चारपाई पर ढलने लगे तो करुणा ने सहारा देकर बैठाया।
    चाय-पानी के दौर में सुख-दुख बांटना चलता रहा। इस दौरान रमजान को जो कुछ पता चला उसका लब्बोलुआब यह था कि त्रिपाठी अंकल के भाई कांग्रेसी नेता हैं और बिलासपुर के किसी मुसलमान मोहल्ले तालापारा, करबला या तारबाहर एरिया में प्रिंटिंग की दुकान चलाते हैं। रमजान को बातों-बातों में यह भी पता चला कि जीजीयू में पढ़ने के दौरान रमजान वहां के जिस मुसलमान नेता इमरान खान को कौम का शुभचिंतक समझता था वह वास्तव में मुसलमान बिल्डरों का दलाल था और अपनी पहचान के मुसलमान भाइयों से कमीशन लेकर उनके यहां फ्लैट दिलाता था। बदले में बिल्डरों से भी कमीशन खाता था। बीजेपी के कुछ लीडरों से भी उसके व्यावसायिक ताल्लुकात थे। जमीनी विवाद को लेकर ही उसने कुछ मुसलमानों को भड़काकर त्रिपाठी अंकल से झगड़ा करा दिया। त्रिपाठी अंकल बीच में सुलह कराने के लिए गए तो उसके गुंडों ने उनकी भी पिटाई कर दी। लकवा के भयावह रूप के लिए शायद वह पिटाई भी जिम्मेदार थी। पहले तो रमजान को यकीन ही नहीं हो रहा था, लेकिन त्रिपाठी अंकल की साफगोई को झूठलाया भी तो नहीं जा सकता था।
    शाम को जब रमजान और रुखसार ने त्रिपाठी अंकल के र से विदा ली तब तक इमरान खान को लेकर रमजान का सिर भन्नाने लगा था। क्या हम युवा सच में मोहरे बन गए हैं या हमारी खुद की अकल, स्ट्रेटजी, स्टेमिना, शाॅर्प माइंड से कोई खेल रहा है। फिर हम खेलने क्यों दे रहे हैं? विचारों का विश्लेषण मन में बैठे लोगों के इरादों को केले के छिलके की भांति छिलने लगा तो इमरान खान के साथ-साथ फोन वाला अनजान सख्श, ओवैशी, बाला साहब, जाकिर नाइक, हिटलर, मुसोलिनी से होते हुए मनु तक बारी-बारी से आते गए।
    रमजान को बचपन के दिन याद आने लगे। अंबू, मुरली, भोला के साथ दुर्गा का चंदा काटने, फिर ईदगाह पर उन लोगों को मौलवी साहब की नजरों से छिपाकर ले जाने, अब्बू के साथ हाथ में डंडी वाला तिरंगा लेकर स्कूल जाने, वापसी में त्रिपाठी अंकल के र जाकर उनके बेटे गोपाल के साथ बाॅर्डर फिल्म की एक्टिंग करने जैसी टनाएं उसकी आंखों में नाचने लगे। तो क्या अभी की बातें छलावा हैं? फिर आदित्य, बजरंगी और गौरक्षक कौन हैं? क्या वे भी छले जा रहे हैं? रात तक इन्हीं विचारों को लेकर रमजान उलझा रहा बिस्तर में जाने तक। सुबह नींद फोन काॅल से खुली।
   ’भाईजान!... अस्लाम वाले कुम।रमजान पहले तो चौंका कि यह आवाज दूसरी है, लेकिन तत्काल संभल भी गया कि तार उसी से जुड़ा है।
   ’वालेकुम सलाम। आप...।
   ’आहाहहा! कैसी घुटन में सांस ले रहे हो मेरे बिछड़े हुए बिरादर। काश! हमारे भाईयों ने 47 में नापाक हिंदुओं को काटने में हड़बड़ी नहीं की होती तो आप यहां सुकुन के साथ सांस ले रहे होते। वैसे अल्लाताला की पाक जमीन पर आपके कदम नहीं पड़ने का एक वाजिब कारण तो आपके बाप-दादों की गद्दारी भी रही है भाईजान। बस अब मौका आ गया है मौकापरस्ती को कौमपरस्ती में बदलने का।एक ही सांस में नए सख्श ने रमजान के कौतुहल की बिना परवाह किए बोल दिया था।
    ’लेकिन मैं समझा नहीं, आप किस गद्दारी और कैसी पाक जमीं की बात कर रहे हैं।रमजान ने अपनी जिज्ञासा जाहिर की।
    ’बिरादर इतना भी अनजान मत बनो, मैं पाकिस्तान से बोल रहा हूं। हम यहां कश्मीर को हिंदुस्तान से आजाद कराने के पाक मिशन के लिए काम कर रहे हैं। इसमें हम हिंदुस्तान के बिछुड़े हुए भाइयों को कैसे भूल सकते हैं। इसी बहाने आप लोग भी अपने कौम के लिए काम आ जाओगे। भले ही सरहद ने हमें अलग कर दिया है, लेकिन भाईजान! हम मुसलमान एक उम्मत हैं, हमारा चांद भी एक है और ईद भी एक है।
    रमजान अभी दोराहे पर खड़ा था। वह अपने फैसले से किसी भी अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाह रहा था। ऐसे में उसने नकारने या हामी भरने के बजाय बात को अगले हिस्से में टाल दिया था। उसके लिए एक ओर इस पाकिस्तानी रूपी बेसरहद कौमी भाई नजर आ रहा था तो दूसरी ओर अपने आसपास के त्रिपाठी अंकल, उनके बेटे गोपाल, कन्हैया जैसे हितैषी भाई भी उससे इतना ओझल नहीं हो पाए थे। इसी उधेड़बुन और हकीकी दुनिया से बेखयाली में उसके दो दिन कब बीते पता ही नहीं चला। दिमाग का पलीता निकलना कुछ बाकी ही था तभी तीसरे दिन रविवार को तीन-चार सालों बाद कस्बे में लौटे मोहल्ले के रहमान चाचा आ धमके।
    ’क्या बताऊं रमजान, बड़ा सुख का काम है। भोर से ही काशी विश्वनाथ की घंटियां पट खुलने के साथ सुनाई देने लगती है। लोग भी धर्म के लेन-देन में कभी झिक-झिक नहीं करते। शांत माहौल में काम होता है बस।पकोड़े को मुंह में डालते हुए रमजान के हाथ रुक गए।
    ’चाचा! आपको समझना मेरे बस से बाहर है। आप ही वो सख्श हैं, जो ईदगाह के पीछे की जमीन पर मंदिर बनाने के खिलाफ मौलवी साहब के साथ अगुआ बने थे। अब ये क्या बात हुई कि उन्हीं हिंदुओं का सेवक बनकर उन्हें वैतरणी पार करा रहे हो।उखड़ते हुए रमजान ने कहा।
    ’एक बात कहूं रमजान, आम आदमी को हमेशा बिजनेस माइंड होना चाहिए। ये जितने भी नेता, धर्मनेता होते हैं वे अपने-अपने तरीके से विचारों का नशा पिलाते रहते हैं। जब तक हम नशे में हैं तब तक उनके लिए ठीक हैं। आम आदमी खुलेआम क्या बगावत कर सकता है। उनसे निपटने और अपनी जिंदगी जीने के लिए बिजनेस माइंड कोई बुरी चीज नहीं। वो विचारों को हथियार बनाते हैं तो तुम इसे अपना असला बना लो फिर देखना कैसे मस्त चलती है अपनी जिंदगी।
    ’ये सब आप जैसे बाकेमस्त लोगों के लिए ठीक है चाचा। अपन जब तक उसूल बनाकर नहीं चलेंगे तब तक अपनी लकीर नहीं खींच सकते।
तुम आम आदमी कर भी क्या सकते हो? दुनिया में मुश्किल से सौ मिलेंगे तुम्हें लकीर खींचने वाले, लेकिन दुनिया कितनों को याद रखती है? मैं उनकी तरह नहीं बन सकता और न मेरे में विरोध करने का साहस है। इसलिए मैं बाकेमस्त जीता हूं। मौलवी साहब का विरोध करने का साहस नहीं था तो उनका अगुआ बन गया। मेरा मन कहा, मजहब कोई सा भी हो मंजिल मेरी एक है। तब भोलेनाथ की नगरी ही मेरा काबा और मेरी कर्मभूमि बन गई।लंबी सांस लेते हुए रहमान ने अपने वाक्य पूरे किए।
    रमजान भी हार मानने वालों में से नहीं था, ’हां, वो हमसे लाठी, डंडे से बात करे और आप उनकी ताबेदारी को अपनी मंजिल बनाएं। कौम के लिए कुछ कर नहीं सकते तो कम से कम इज्जत करना तो सीखें। ये जाहिल तो मुझे फूटी आंख नहीं सुहाते। जब आपकी गर्दन पकड़ी जाएगी इन जालिमों के हाथों तब आपको अपने दर और अपने कौम की याद आएगी।
    ’देख रमजान, तुम्हें एक वाकया सुनाता हूं। जब मैं अलीगढ़ में एक कैटरर्स में काम कर रहा था तो हमें केरल समाज भवन में ओणम महोत्सव के लिए खाना बनाने के लिए जाना पड़ा। अंदर सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था। प्रांग में आठ-दस मलयाली लोग बतिया रहे थे। वहीं बाजू की फुलवारी में उनके समाज के बच्चों के बीच मोहल्ले के दो-चार गरीब रों के बच्चे आ गए। इतने में एक बुजुर्ग उन्हें डांट-फटकारकर भगाने लगा। हमें बड़ा अजीब लगा। एक साथी लड़के ने कहा कि ऐसे होते हैं ये लोग। खुद बाहर से आकर यहां पनाह लेते हैं और यहीं के लोगों पर रौब झाड़ते हैं। एक मलयाली आदमी ने हमारी बात सुन ली और पास आ गए। बोले कि भाई एक खड़ूस आदमी की हरकत आप लोगों को समझ में आ गई तो हमारे प्रति ऐसी धारणा बना ली। हम जो आपस में उसकी हरकत को लेकर ही जो बात कर रहे हैं वो समझ में नहीं आई। उसकी बात मुझे खासा प्रभावित किया। ठीक ऐसा ही हम लोगों के साथ हो रहा है। सब कौमों के दो-चार लोग भौंक रहे हैं और हम पूरे कौम के प्रति अपने मन में नकारात्मक सोच भर रहे हैं।
    रमजान तर्क को स्वीकारते हुए भी अपनाने के मूड में नहीं था, ’चाचा, आपके साथ ऐसा वाकया हुआ ही नहीं तो आप क्या जानो। बजरंगियों का उन्माद तो देखे हैं न। उनके रग-रग में जो नफरत र कर गया है वो कि जिसने कारपोरेट आॅफिसों तक को नहीं छोड़ा है। हां, मैं उसका प्रत्यक्ष गवाह हूं। उनके नफरत ने कैसे टैलेंट को कौम से भारी बना दिया है और हमें सबसे निकृष्ट।
    ’कुछ कंपनियां ऐसे बताऊं जिनमें केवल मुसलमानों की ही एंट्री होती है। ऐसी सोच कहां नहीं है। हम दूसरों की फटी झोली ही देखते हैं और अपनी गिरहबान नहीं झांकते। रही बात उन्माद की। तो ये बात उन्मादियों को ही सोचना चाहिए कि कितने लोग उनकी सुन रहे हैं। उत्साही अगर उन्मादी हो रहे हैं तो हमें खुलकर आगे आना चाहिए, लेकिन नफरतों का जवाब नफरत से देंगे तो ये बढ़ता ही जाएगा।
    ’आपसे नहीं जीत सकता चाचा, अब उनकी बारी आई तो हमें नसीहत दो। न हमारे दादा होते गद्दार और न रहते हम इस मुल्क में। जो न कभी हमारा था और न कभी रहेगा। अब वक्त आ गया है कि मैं अपने कौम के लिए कुछ करूं। वरना आप जैसे लोग तो मुसलमानों को दुनिया से ही खत्म करा दोगे।
    ’उन्मादी सोच अपने मन से निकाल दो रमजान। वक्त को जो करना था कर दिया। अब समय को अपना बनाना सीखो। इतिहास कुरेदोगे तो सिवाय दुख के कुछ भी हासिल नहीं होगा। देख, शादी से पहले मैं परवीन से कैसे बेइम्तिहां प्यार करता था। उसकी निकाह के समय लगा कि जिंदगी में अब कुछ भी नहीं रह गया। आज मैं तुम्हारी चाचीजान के साथ कितना खुश हूं। उतना ही प्यार उसे देता हूं जितना एक वक्त परवीन को देता था। आज उसके बारे में सोचूं तो मैं तो दुखी रहूंगा, साथ ही तुम्हारी चाचीजान के साथ भी अन्याय करूंगा। वक्त ने पाकिस्तान की लकीर खींच दी। तुम आज के अपनों से नफरत कर उस बेगाने पर आंसू बहाओगे तो ये तुम्हारी गद्दारी नहीं तो और क्या है। नजर बदलो, नजरिया अपने आप अपना मुकाम खोज लेगा।रहमान चाचा की बातें रमजान कहने को तो ध्यान से सुनता रहा लेकिन सब बकवास की बातें लगती रही। जब वे चले गए तो चैन से लंबी सांस ली।
    रमजान के लिए ये वाकये आए-गए हो गए। कभी कश्मीर तो कभी पाकिस्तान से फोन आते रहे। एक बार उसने अपने खाते का नंबर भी बताया और जब उसमें डेढ़ लाख रुपए डल गए तो बताए गए खाते में वह रकम भी डाल आया। कुछ दिनों बाद उसका कमीशन भी आ गया। उसके लिए ये दोहरी खुशी थी। दिल में सुकुन था कि अपने कौम के लिए कुछ तो कर रहा है। कमीशन अलग से।
    एक दिन सुबह-सुबह खबर मिली कि मुंबई के रेलवे स्टेशन में भयानक बम विस्फोट हुआ है। इंसानों के चिथड़े-चिथड़े उड़ गए हैं। लाश तो लाश असबाबों के आसपास कहीं नामोंनिशान नहीं हैं। शाम होते-होते विस्फोट की जिम्मेदारी लेने वाले आतंकी संगठन का नाम भी सामने आ गया। अगले दिन से कस्बे में उन्मादी फिर से नजर आने लगे थे। चौक-चौराहों पर पुतले जल रहे हैं। रमजान ने गौर किया कि उन्मादी अबकी बार फिकरें नहीं कस रहे हैं, बल्कि सीधे-सीधे गालियों से बात करते हुए इशारे उनके मोहल्लों और रों की ओर कर रहे हैं। फिर सूचना आई कि आरपीएफ के एक जवान ने दो दिन बाद दम तोड़ा है, जिसका नाम हसन बताया जा रहा है, जो बिलासपुर के पास के किसी गांव का रहने वाला है। वही हसन जो दसवीं के एनसीसी कैंप में उससे मिला था। बताया जा रहा था कि वह घायल होने के बाद भी एक संदिग्ध को दौड़ा रहा था। तभी संदिग्ध ने उसके सिर पर बट से हमला किया था। अगले दिन तिरंगे से लिपटी बाॅडी आने की खबर आई तो रमजान को जितना गम हुआ उससे कहीं ज्यादा राहत मिली। क्योंकि इससे उन्मादियों का उन्माद थम सा गया था। इस बार ट्विटर पर धर्मनिरपेक्ष की बातें करने वालों के ट्वीट ट्रैंड होने लगे। उनमें तुष्टीकरण की राजनीति करने वालों की कमी भी नहीं थी। इधर रमजान को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। फिदायिनों ने उनके पूरे कौम को और संदिग्ध बना दिया था। वहीं हसन जैसे वतनपरश्त ने कुछ राहत दी थी। कुछ सवाल कुरेद रहे थे, जिनके जवाब उसे नहीं मिल पा रहे थे।
(5)
    मामला कितना भी बड़ा क्यों न हो, चमरू के लिए इन सब सवालों के कोई मायने नहीं हैं कि उसे कौन कब क्या बोला, किसने उस पर हाथ उठाया। कब सोंचे? जिंदगी की गाड़ी चलाने और उसमें अपने परिवार को ढोने से फुर्सत मिले तब न। शिक्षित और अघा लोग ही बाल की खाल निकाल सकते हैं। मोदी ने मुसलमान टोपी क्यों नहीं पहनी, नक्सल आॅपरेशन क्यों जरूरी है, सलवा जुड़ुम से क्या हासिल हो रहा है, दलितों को मंदिर में चढ़ने का अधिकार क्यों न मिले ऐसे ढेरों सवाल हैं। कुछ चमरू से जुड़े, कुछ अनजुड़े। उसे जुड़े हुए सवालों से भी कभी जूझने का मौका नहीं मिला। तब तक तो और नहीं, जब तक कि उनके गांव से होकर नदी में रपटा नहीं बना था।
    मनहरन के साथ उसकी अनबन मनहरन की रवाली की जचकी होने तक रही। फिर बात आई-गई हो गई। चार बेटियों के बाद र में बेटा आने का हवाला देकर सुखमनी ने उससे ठसक के एक खांड़ी धान मांगा। ऊपर से चमरू ने पीने के लिए एक चेपटी अलग से। मनहरन ने भी उनकी सारी मांगें दिल खोलकर पूरी की।
    इसी गर्मी में सेमरवा में एक टना टी। मुरलीधर की बेटी की शादी खटोला वाले जगत प्रसाद के बेटे के साथ तय हुई थी। बारात वाले दिन बैंडबाजे के साथ नाचते बारातियों की झुंड के बीच गांव के आठ-दस लड़के घुसकर नाचने लगे। इसी बात को लेकर जमकर झगड़ा हो गया। लड़कों ने लाठी-बिड़गा निकाल लाया। अकेले भानूप्रताप ने बाॅक्सिंग ग्लब लगाकर चार बाराती लड़कों के जबड़े तोड़ डाले। बाराती तो भाग निकले और शादी जैसे-तैसे कर निपट गई, लेकिन उसी दिन से खटोला के युवक सेमरवा के लोगों पर नजर गड़ाए हुए थे। सेमरवा और बुटेना उनके लिए एक ही गांव थे। लिहाजा बुटेना वाले भी उनके शिकार थे।
    मंगलवार का दिन था। चमरू पंचगंवा बाजार में अपना पसरा लगाकर चप्पलें सील रहा था। उसके बाजू में करुमहूं वाले का चाट-गुपचुप ठेला लगा था। मनहरन किसी गांव से नेवता बड़ाई करके लौट रहा था और गुपचुप खाने के लिए रुक गया था। तभी सामने एक बोलेरो आकर रुकी। आठ-दस लड़के उतरे। सभी ने स्पोट्र्स जूते पहन रखे थे। दो लड़के बैट लेकर बाहर आए। शायद कहीं से क्रिकेट खेलकर आ रहे थे। ठेले के पास उनका मजमा लगा।
    ’अतको दुरिहा के बजार करथस चमरू। धन्न हे ग, रा ए दारी सरपंच मेर बुटेना लो म बजार बइठारे के बात करबो।’ (इतनी दूर का बाजार करते हो चमरू। धन्य है, रुको इस बार सरपंच से बुटेना में बाजार बैठाने की बात करेंगे।) मनहरन ने मग से पानी पीते हुए चमरू की ओर देखकर कहा। युवकों पर उसका ध्यान नहीं था।
    ’सेमरवा वाला मनके झोलेच धरवार रइहा रे बुजा होवा। काम होही सेमरवा मं आउ हमन धरबो घंटासुलह के बाद से दोनों के बीच एक बार फिर अनौपचारिक संबंध जुड़ गए थे, जिसे बुजा जैसे उलाहने से जताते हुए चमरू ने जवाब दिया।
    पास में खड़े युवकों ने उनकी बातें सुनी। एक-दूसरे से आंखें चार हुई और एक माथे पर लकीरें बनाकर बोलेरो की ओर दौड़ पड़ा। दूसरे ने आकर मनहरन की काॅलर पकड़ ली। उसने खींचकर एक झन्नाटेदार झापड़ चलायाए जो मनहरन के कान के नीचे और आधे गर्दन पर लगी थी। दूसरा झापड़ उठाया और जोर से दहाड़ाः 
    ’ला बैट ला बंटी, दिखाते हैं हरामियों को कि मुक्केबाजी में ज्यादा दम है या क्रिकेट में। सीखा देंगे कैसे मारते हैं चौका और कैसे छुड़ाते हैं छक्का।
    ’बता देना बे उस पंचिंग ब्वाय को कि खटोला वालों से टकराने का नतीजा क्या होता है।
    सारे के सारे मनहरन पर पिले पड़े थे। कोई मुक्का जमा रहा था तो कोई झापड़ घुमा रहा था। उनकी नजर चमरू पर नहीं पड़ रही थी। पर चमरू ये होते कैसे देख सकता था। अपनी परवाह किए वह उनके बीच में घुस गया और मनहरन का बीच-बचाव करने लगा। इतने में एक लड़का बैट ले आया। उसने तड़ातड़ दो बैट चलाए जो चमरू के कूल्हे और कमर पर लगे। तीसरा बैट थोड़ा ऊपर चला और चमरू उसी समय पलट रहा था तो सीधे उसके मस्तक पर लगा। वह वहीं गिर पड़ा और छटपटाने लगा। इतने में वहां भीड़ बढ़ने लगी थी, लेकिन युवकों को रोकने की हिम्मत किसी में नहीं हो रही थी। मौका भांपकर और चमरू की हालत देखकर सारे बोलेरो में सवार हुए और नौ दो ग्यारह हो गए।
    धरम अस्पताल के केजुअल्टी वार्ड के एक बेड पर लहूलुहान चमरू लेटा हुआ है। सामने के रास्ते को छोड़कर डेस्क पर डाॅक्टर रजिस्टर में मेमो बना रहा है और मनहरन ब्योरा दे रहा है। उसके माथे पर भी पट्टी लगी थी, जिसमें खून के दाग लगे हुए थे। सुंदर साइकिल से छः कोस भुंइया नापकर सुखमनी को बैठाए रात के साढ़े आठ बजे अस्पताल पहुंचा। तब तक चमरू होश में आ चुका था और जनरल वार्ड में शिफ्ट हो गया था।
    अगली सुबह कंपाउंडर, नर्स और अन्य सहायकों का शिफ्ट चेंज होने का समय था। एक-एक कर सारे लोग निकल रहे थे और नए लोग अंदर दाखिल हो रहे थे। कस्बे का अस्पताल होने और सामान्य दिन होने से वहां करीब-करीब सन्नाटा ही पसरा था और आठ बेड वाले कक्ष में तीन बेड पर ही मरीज नजर आ रहे थे। रमजान कंपाउंडर बारी-बारी से सभी मरीजों को देखते हुए अंत में चमरू के बेड तक पहुंचा। उसने चमरू को सीधा बैठाने के लिए कहा तो मनहरन सहारा देकर उसे बैठाने लगा। रमजान ने पट्टी का गठान खोलकर चमरू के मस्तक को आजाद किया। उसे चमरू का चेहरा जाना-पहचाना लगा। रजिस्टर में नाम और पता देखकर चौंक पड़ा।
    ’ये वही आदमी है न, जिसने किसी की गाय को मारा था और लोग इसे पकड़कर लाए थे।नई पट्टी लगाते हुए रमजान उछल पड़ा था।
    ’हौ साहेब, मोरे तो बछिया रहीस हे आउ सरपंच के बेटा हम सबो ल सकेल के ले आए रहीस हे।’ (हां साहब, मेरी ही तो बछिया थी और सरपंच के बेटे ने हम सबको इकट्ठा कर ले आया था।) मनहरन ने जवाब दिया।
    ’हां यार, वो लड़का तुम्हें ही तो धकियाकर आगे खडे़ करा रहा था।रमजान के लिए ये दूसरा अजूबा था।
    ये समय आम दिनों में इस छोटे से अस्पताल में कर्मचारियों के घुमने-फिरने और मजे करने के दिन होते हैं। रमजान भी वहीं पर जम गया। मनहरन की बातों ने उसे हैरत में डाल दिया। क्या वाकई ऐसा हो सकता है? जिन दो लोगों के बीच के झगड़े में इतना बड़ा फसाद खड़ा हो जाए वे चंद महीने में ऐसे घुलमिल सकते हैं? मनहरन ने सारा किस्सा कह सुनाया। उसने यह भी बताया कि उसे आजतक नहीं पता कि बछिया आखिर मरी कैसे। चमरू से पूछने तक की उसने जरूरत महसूस नहीं की।
    ...चमरू चाहता तो चुपचाप अपने काम में लगा रहता और खटोला वाले मनहरन पर अपना कसर निकालकर भाग निकलते। मनहरन चाहता तो चमरू को जहां का तहां छोड़कर र चला जाता। उसे तो हल्की चोट ही लगी थी। दर्द मिटाने के लिए थोड़ी सी हल्दी और सरसों का तेल काफी था। फिर किसने ये सब दोनों को कराया? रमजान के पल्ले नहीं पड़ रहा था। कस्बा या बड़े शहर में लोग पड़ोसी तक को छोड़कर भाग निकलते हैं। जैसे अब्बा को तड़पता छोड़कर अमजद भाग आया था। उनके बीच कोई तल्खी भी नहीं थी। ये दोनों तो उस समय एक-दूसरे के जान के प्यासे नजर आ रहे थे।
    रमजान के माथे पर बल पड़ गए, उसने लंबी सांस ली और मनहरन से पूछा, ’तुम लोगों के बीच इतनी बड़ी दुश्मनी थी कि गांव के गांव उमड़ पड़े थे, फिर एक-दूसरे की मदद क्यों की?’
    ’हमन गांव के मनखे अन साहेब, एक गांव मं लड़बो-मरबो। एक कुरिया मं रहईया मन लो तो लड़थें, झगड़थें फेर एके हो जाथें। एके ठन बात ल धरे रहीबो त तो हो गिस काम। तुमन त पढ़े-लिखे मनखे हौ। हमर का हे, छोट-छोट बात मं लड़ पारथन। फेर ए घलो नई देखन के असल बात काए हे। पढ़े-लिखे होतेन त अइसन बातेच काबर होतीस।’ (हम गांव के लोग हैं साहब, एक गांव में लड़ेंगे-मरेंगे। एक कमरे में रहने वाले भी तो लड़ते-झगड़ते हैं फिर एक हो जाते हैं। एक ही बात को पकड़े रहें तो हो गया काम। आप तो पढ़े-लिखे आदमी हैं। हमारा क्या है, छोटी-छोटी बात पर लड़ जाते हैं। फिर यह भी नहीं देखते की असल बात क्या है। पढ़े-लिखे होते तो ऐसी बात ही क्यों होती।) मनहरन ने एक सांस में पूरी बात कह दी।
    रमजान जैसे सोच में पड़ गया। वह अपने अंदर देखना चाह रहा है कि क्या सचमुच वह पढ़ा-लिखा समझदार है या इस अनपढ़ गंवार मनहरन ने उसकी हंसी उड़ाई है।
    उनकी बात सुनकर चमरू ने अपनी पलकें खोली, धीमे स्वर में कहा, ’एक गांव मं काकर झगरा नई होवय साहेब, फेर आने गांव के बात आइस त हमन सब एके भाई अन।’ (एक गांव में किसका झगड़ा नहीं होता साहब, फिर दूसरे गांव की बात आई तो हम लोग सब एक भाई हैं।)
    रमजान चेतन-शून्य होकर मनहरन और बेड पर फिर से लेट चुके चमरू की आंखों को गौर से देखने लगा। मानों उनकी आंखें पढ़ रहा हो। लेकिन वह पढ़ भी नहीं पा रहा था और इस मामले में खुद को अनपढ़ महसूस कर रहा था। तो क्या ज्यादा पढ़-लिखकर आदमी आदमी को समझने में अनपढ़ बन जाता है। सरल लोगों की ऐसी सरलता ने उसके विचारों को वह तरलता दे दी थी, जिसे घाट-घाट का पानी पी चुके रहमान चाचा भी न दे सके थे।
    ’रमजान!जैसे रहमान चाचा की आवाज वह अब अच्छे से सुन पा रहा था। कहने लगे, ’वक्त ने पाकिस्तान की लकीर खींच दी रमजान। तुम आज के अपनों से नफरत कर उस बेगाने पर आंसू बहाओगे तो ये तुम्हारी गद्दारी नहीं तो और क्या है। नजर बदलो, नजरिया अपने आप अपना मुकाम खोज लेगा।नहीं यह तो अनपढ़ गंवार चमरू कह रहा है, क्या कह रहा है?, ’एक गांव मं काकर झगरा नई होवय साहेब, फेर आने गांव के बात आइस त हमन सब एके भाई अन।चमरू की इस बात ने उसकी पिछली धारणाओं को कुरेदकर रख दिया था। 
    वह अपने विचारों में बैठे लोगों को सवालों के कटरे में लाने लगा। फिर वो पाकिस्तानी कौन है? हां, गुनहगार है। मुंबई का रेलवे स्टेशन उजाड़ने वाला, हजारों र उजाड़कर सैकड़ों बच्चों को अनाथ करने वाला। मरने वालों में कितने हिंदू, कितने मुसलमान थे? उसकी बिरादरी को संदिग्ध किसने बनाया? उसे जवाब मिलने लगे थे। फिर शहीद होने वाला हसन कौन है? मुसलमान है फिर भी हरदिल अजीज क्यों हो गया? देशभक्त था इसलिए न, फिर पूरी बिरादरी को संदिग्ध होने के दाग से किसने मुक्त किया? हसन ने ही न, तो सच्चा मुसलमान कौन, हसन या पाकिस्तानी? वो सब ठीक है, ये बजरंगी कौन हैं? कहीं मेरा ही अक्श तो नहीं हैं बजरंगी। अब वह खुद अपने सवालों से घिर चुका था।
    रात साढ़े दस बजे उसके मोबाइल ने फिर अजान ए मदीना की धुन छेड़ी। स्क्रीन देखा, फिर से नया नंबर था। वैसे भी वह हर नए नंबर को पीके-1, पीके-2, पीके-3.... करके सेव करते जा रहा था, लेकिन हर बार नए नंबर से परेशान होकर उसने सेव करना ही छोड़ दिया था। उम्मीद के अनुरूप फिर वही आवाज नए नंबर से आ रही थी।
    ’शुक्रिया भाईजान! कमीशन के बाद दूसरा किश्त और ट्रांसफर किए जाने वाला अकाउंट नंबर भेज दिया हूं। ये काम कर दिए क्या?’ घराती आवाज उधर से आई।
    ’भेजा तो नहीं हूं, लेकिन चला जाएगा वाजिब जगह पर। आतंकवाद पीड़ित राहत कोष के खाते में बहुत जल्द।रमजान ने धीमे-धीमे स्वर में बुदबुदाए थे।
    ’अच्छा मजाक कर लेते हो बिरादरअनजान सख्श ने कहकहे लगाए थे, ’अबकी बार तो वे फंड बनाने वाले भी बौराने वाले हैं, समझ में ही नहीं आएगा कि हिंदुस्तान के किस-किस कोने में राहत भेजी जाए। भाईजान! इस बार सेंट्रल के चार जोन मिलाकर कुल आठ जोन का पैसा भेजा हूं। अब ऐसी तबाही होने जा रही है कि हिंदुस्तान की नस्लें याद रखेंगी। कश्मीर तो हमारा होगा और वक्त आपका।
    ’कुत्ते! मैं मजाक नहीं कर रहा हूं। अब ये सिम बंद होेने जा रहा है हमेशा-हमेशा के लिए। कान खोलके सून, मेरे हिंदुस्तान को नेस्तनाबूद करने से पहले अपनी औकात देख लेना। और हां, अब दोबारा कश्मीर की बात अपनी गंदी जुबान पर मत लाना। वरना कश्मीर मांगोगे तो साला चीरके रख देंगे।
    रमजान ने झट से फोन काट दिया और लंबी-लंबी कई सांसें ली। तभी एक आवाज बहुत दूर रसातल से फिर निकल आई... सब कौमों के दो-चार लोग भौंक रहे हैं और हम पूरे कौम के प्रति अपने मन में नकारात्मक सोच भर रहे हैं।फिर ठेठ गवइंहा अंदाज में सुना, ’आन गांव के बात आइस त हमन सबो एके भाई अन।
    इस बार की आवाज मनहरन, चमरू या रहमान चाचा की अनुगूंज नहीं थी। शायद रमजान के अंदर से ही निकल रही थी।
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