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पहिली पानी

कहते हैं कि विदेशों में कामचोर भूखे मरते हैं तो भारत में दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करने वाला किसान भूख से दम तोड़ता है. उस किसान के लिए पानी और बारिश क्या अहमियत रखते हैं यह हम सभी जानते हैं. किसान और पानी के बीच के इसी रिश्ते को समझने की कोशिश है पहिली पानी. कीमती वक्त निकालकर एक बार जरुर पढ़िएगा.

              बंशी को—आॅपरेटिव बैंक से सीधे अपने खेत आ गया था। घर जाकर अपनी घरवाली धनकुंवर के आगे मुंह दिखाने का साहस उसमें न था। क्योंकि मैनेजर ने आज जैसी जिल्लत उसके साथ की थी, वैसा गोविंद ने भी अपने कर्ज की वसूली के समय न की थी। सीधे पड़िया को खूंटे से खोलकर ले गया था।
             बिसंभर के मेंढ़ से उसका खेत और कुंदरा (झोपड़ी) सीधे दिखता है। वह डिलवा (टीले) पर चढ़कर कुंदरा को देखने लगा। चंदवा भैंसा तो अपने खूंटे से बंधा था, लेकिन टिकला गायब था। पचहत्थी को एक हाथ से चढ़ाकर कमर में खोंसते हुए वह दौड़ पड़ा। बबूल की छड़ी ने उसके पैरों तले रौंदाते हुए तीन—चार कांटे चुभा दिए, लेकिन बदहवास होकर दौड़ रहे बंशी को उसकी जरा भी भान न थी। पास देखकर चंदवा ने सिर हिलाकर मानों उसे सलामी दी और आं... करके आवाज लगाई। तब तक बंशी उसके पास पहुंच चुका था। प्रत्युत्तर में उसने चंदवा को गले से लगा लिया और टिकला के खूंटे को देखा। गेरवा टूटकर लंबाई में पड़ा हुआ था और टूटे हिस्से में बना फुंदरा टिकला के गेरवा के साथ के संघर्ष को दिखा रहा था। और समय होता तो वह खूंटे से जिस दिशा में गेरवा पड़ा रहता उससे अंदाजा लगा लेता कि छूटने के बाद वह किस दिशा में गया होगा। लेकिन भिं​डी के पलिया में उसके खूर के निशान और रौंदाए पौधों से स्पष्ट हो रहा था कि उसने पहले मनभर भिंडी के पत्ते खाए हैं, उसके बाद रफूचक्कर हुआ है। बिना अवसर गंवाए वह उसकी खोज में निकल गया।
               बैंक वाली घटना से तनाव अभी दूर हुआ नहीं था कि इस नए वाकये ने उसे झकझोर दिया था। लगती असाढ़ में पानी गिरा नहीं था, आधा असाढ़ बीतने के बाद भी हरहराती दोपहर थी और उसका मुंह मारे प्यास के चोपिया रहा था। साफा जिसे वह पगड़ी बनाकर सिर पर लपेटता है वह भी शायद बैंक में चौकीदार से उलझते हुए कहीं गिर गया था। खुले सिर वह बहरानार की ओर उतर गया। मंगलवार का दिन होने के कारण टिकला के बहककर भागने का ज्यादा डर था, क्योंकि कुटीघाट बाजार जाने के लिए सुबह चार बजे से दोपहर तक दलाल के आदमी गोंहड़ा (झुंड) लेकर जाते हैं। उनके साथ जाने पर किसी के हाथ लगने का खतरा रहता है। भटकते—भटकते लिमवाही तालाब तक पहुंचा। मेढ़ पर चढ़ते तक एक उम्मीद यहां उसके होने की बनी हुई थी। चढ़ने के बाद नजर घूमाई तो कम से कम छ: जोड़ी भैंसों का झुंड उसे दिखा। उनके आगे—पीछे बालवृंद डंडा—पचरंगा खेल रहे थे। टिकला जैसी दोहरी काठी वाला भैंसा उसी झुंड में उसे दिख गया। बांछें खिल गई और कान में खूंची ठूठी बीड़ी भी उसने ​इत्मीनान से निकाल लिया। राख को झाड़ते हुए कमर से माचिस निकाली और सुलगाकर धुएं छोड़ते हुए भैसे के पास आया।
            'टिकला.. आ.. अ्आआ..।' पास आते हुए हांक लगाई तो वह भैसा पलटा ही नहीं, जिसे वह अब तक टिकला समझ रहा था। बेसब्री में वह तालाब की दरार वाली भूरभूरी मिट्टी में तेज—तेज चलने लगा। सिर दिखा, मुड़ा—तुड़ा। टिकला के सिंग को तो वह तेल पिला—पिलाकर चिकना कर चुका था। कुछ पल के लिए निकली उम्मीद की किरणें ओझल हो गई थीं और उसी बीच बंशी हपटकर गिरते—गिरते बचा था।
             'बच्चों मेरे भैसा को देखे हो क्या? माथे का थोड़ा सा बाल सफेद है।' बंशी ने बच्चों से पूछा।
             'टिकला भैंसा को पूछ रहे हो क्या बड़े ददा?' एक बच्चे ने आश्वस्त भाव से जवाब की जगह खुद सवाल पूछा।
             'हां—हां, देखे हो क्या?'
             'हां, मनहरन बबा के भैसे से लड़ रहा था तो उन्होंने उसे दो डंडा जमाकर भगा दिया, इस खार की तरफ भागा है।'  उंगली के इशारे से बच्चे ने जिस दिशा में बताया वह कोटमीसोनार के खार से लगा था।
             बंशी उसी दिशा में टिकला की खोज में निकल गया। रास्ते में कोटमीसोनार से भैसा चराने आए कई लोग मिले, हर झुंड देखी, हर आदमी से पूछा। किसी—किसी ने जानकारी भी दी। दो—तीन तालाब में भी जाकर देखा। किसी में पानी क्या, कीचड़ तक सूख चुका था। तब तक प्यास काफी बढ़ चुकी थी। तेज धूप ने उसे और बेहाल कर दिया। अब उसमें एक कदम भी आगे बढ़ने का साहस नहीं रह गया था। कुछ पल सुस्ताने के इरादे से मउहा (महुआ) के एक बड़े पेड़ के नीचे बैठ गया। अब तक चलते हुए केवल कान के बाजू से ही पसीने बह रहे थे। सुस्ताने बैठा तो पूरे शरीर भर से रोम—रोम पानी छोड़ने लगे। सिर पर बेखयाली सा चढ़ने लगा। दो—चार बार लंबी—लंबी सांस ली और दोनों हाथ पीछे की ओर करके इत्मीनान से उधर ही झुक गया।
             दिमाग का घोड़ा फुरसत के क्षणों में ही बेलगाम होकर दौड़ता है। मन अच्छा हो तो जंगल—पहाड़ को रौंदते हुए निकल जाता है। वहीं जब आफत की घड़ी में मन की गहराइयों को कुरेदते हुए गहरे रसातल में औंधे मुंह गिरने जैसा भान कराता है।
            जिस पर पहले से ही सत्तर हजार हजार का कर्ज चढ़ गया हो और फसल को मौसम मार जाए उस बंशी को मेवा—मिष्ठान, राजा—रानी का ख्वाब आने से रहा। प्यास से गले की धौंकनी चलने लगी। सच में पानी बिन सब सुन। हां, औरों के लिए बस पीने के लिए। क्योंकि दूसरे काम निपटाने के लिए तो बस जरूरत की ही चीज है पानी। पर किसान को तो फसल के लिए पल—पल पानी चाहिए, क्योंकि उसकी जान फसल में ही बसती है और फसल की जान पानी में। बोनी के समय थोड़ा कम, बढ़ने पर झिरसा (छिटपुट) पानी आना ही चाहिए। फिर रोपा के लिए खेत टम—टम ले (पूरा) भरा होना चाहिए। फसल कटते तक मिट्टी से रस नहीं जाना चाहिए। पीने के लिए क्या, नरवा—झोरका का पानी भी जी जुड़ा देता है।
           नंदिनी बहन की बातें उसे याद आने लगी। उसके जैसे गांव के पंद्रह किसानों को लेकर सिंचाई विभाग के दफ्तर में बैठ गई थी। फिर बड़े साहब को ऐसा भाषण पिलाया कि सात पुश्तें याद रखेंगे बेटे के। वह बारिश को मानसून कहती है। कहती है जैसे एक कहानी में राजकुमारी की जान तोते में बसती थी वैसे ही किसान की जान मानसून में बसती है। तोता उड़ा मतलब किसान की जान गई। उसकी दगाबाजी किसान के पूरे कुनबे को लील लेता है। उसे लाख खुशियां दे दे वह एक तरफ, अषाढ़ का पहला पानी गिरने से मन जितना हुलसता है वह खुशी एक तरफ। फैक्ट्री वालों को उपकृत करने और किसानों के साथ नहर के पानी को लेकर खिलवाड़ करने पर उन्हें सीधे सुप्रीम कोर्ट में निपटने की धमकी तक दे डाली थी उसने।
            विचारों का काफिला अचानक उसे बारह साल पीछे धकेल दिया। अपने बच्चे गनेश के साथ वह भी बच्चा ही तो था जब उसके बाप बुधराम ने तीस हजार का कर्जा, दो बहनों का ब्याह और घर—गृहस्थी का सारा भार उसके कंधे पर छोड़कर उसी के जांघ पर सिर रखकर प्राण त्यागे थे। उसकी कंजूसाई को देखकर बेचारी धनकुंंवर के पैरपट्टी पहनने का साध साध बनकर ही रह गया था। तब बंशी कहता था मेरे बाप को मरने दे धनकुंवर फिर करना अपना शौक पूरा। और इन बारह सालों में पैरपट्टी दिलाना तो दूर, पिछले साल उसके नाक की फुल्ली तक पानी साल पटाने के लिए गिरवी चढ़ चुकी थी। एक साल की खेती में ही जान गया था कि उसका बाप चवन्नी तक को अपने पैबंध लगी मटमैली बंडी के खिसे पर कसकर क्यों रखता था। पिछले कर्जे का आधा छूटाया नहीं था कि दोनों बहनों की शादी में पुराने कर्जे का सवाया और बढ़ गया। फिर उसके भी बच्चे बढ़ने लग गए नई—नई मांगों के साथ। पिछले साल गनेश की शादी की तब अपने नाम और कर्जा चढ़ाकर भी वह उसे संतुष्ट नहीं कर पाया। कहता था, कर्जा तो लिए ही हो, तो बारात बस की जगह ट्रैक्टर में क्यों ले जा रहे हो। बंशी उस दिन जीतकर भी हार गया था। तब से वह रात में घर में नहीं सोता। खेत में ही टिन का शेड लगवाकर वहीं टेड़ा से कुंए का पानी पलो—पलोकर भांटा—पताल, रमकेलिया को जिलाते हुए पड़ा रहता है। यहां रहने से उसका मन भी हरा रहता है। बारिश में जब बूंदें टिन पर पड़कर पट—पट, पट—पट की आवाज लगाती है तो उदास मन खिल—खिल जाता है।
            इसी सोच के बीच उसे गले में कुछ खटकने जैसा एहसास हुआ। कुछ लंबी—लंबी सासें ली तो कुछ—कुछ बदहवासी छंटी। अब वह आज के बारे में सोचने लगा। आज भी वह कितनी उम्मीद के साथ प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का पैसा मिलने की उम्मीद के साथ को—आॅपरेटिव बैंक गया था। चपरासी का हाथ—पांव जोड़ने पर मैनेजर से मिलने दिया। एक—एक बात बताई। पिछले साल सोसायटी में धान बेचा था तो पांच परसेंट बदरा (बिना बीज वाला धान) में कट गया। खाद—बीज का पैसा काटकर हाथ में पंद्रह हजार आया था। यूको बैंक से चालीस हजार का कर्ज लेकर अपने बड़े लड़के की शादी की है। इसी फेर में इस बार वह क्रेडिट कार्ड के मार्फत को—आॅपरेटिव बैंक से कर्ज नहीं ले पाया। फसल बीमा के समय पटवारी से लेकर समिति सेवक तक उसके लगवार (हितैषी) बन गए थे। आज सबके सब उसकी मदद क्या, पहचानने तक से इनकार कर दिए। यही कारण रहा होगा शायद धनकुंवर के बड़े भाई के मउहा के पेड़ पर फंदा डालकर फांसी पर झुलने का। पानी के एक कतरे तक से मोहताज बंशी की आंखों में न जाने कहां से नमी आ गई और तिरछा सोने की वजह से पानी कान की ओर ढल गया।
          अब उसने साहस जुटाकर खुद को उठाया। जब तनकर खड़ा हुआ तो चारोंओर धरती गोल—गोल घूमने लगी। उसने फिर हिम्मत जुटाई और एक कदम आगे बढ़ाया। अब उसके लिए संभलना मुश्किल था। जुते हुए खेत पर वह औंधे मुंह गिर गया और माथे से खून बहने लगा। ऐसी विपत भरे हालात में भी उसे बस यही खयाल आया कि पहिली पानी गिर जाता तो उसका काम बन जाता।
          इधर, शाम के चार बजते तक घर में किसी को भी बंशी की हालत की भनक तक नहीं लगी। चार बजे तब धनकुंवर ने गनेश को उसके कमरे के बाहर से आवाज लगाई। तीन बार पुकारने पर फुनफुनाते हुए उसने जवाब दिया, जवाब क्या दिया सारा जहर उगल दिया, 'चैन से सोने तक नहीं देती अम्मा, बैंक का पैसा पाया होगा तो भट्ठी में दारू पीते बकबका रहा होगा। घरवालों की फिकर होने से रही।'
           धनकुंवर का जी अब चटपटाने लगा। इसे सोने से फुर्सत नहीं और ननकू को खेलने से। वह बंशी के साथ बैंक जाने के लिए निकले पूरन के घर चली गई। पूरन अपने घर के सामने ही खड़ा मिल गया। पूरन ने बताया कि दोनों एक बजे ही गांव आ गए थे। बस्ती के बाहर ही वह खेत निकल गया था। उनकी बातें सुनकर एक बालक धनकुंवर के पास आया और बोला, 'बड़े दाई, तुम लोगों का टिकला भैंसा गंवा गया है। बड़े ददा को लिमवाही तालाब में खोजते हुए देखा था फिर वो कोटमी खार की तरफ चले गए।'
           बच्चे की बात सुनते ही धनकुंवर की हवाइयां उड़ गईं। गिरती—भागती घर की ओर दौड़ गई। तब तक गनेश उठ गया था और ननकू भी घर पहुंच गया था। रोती—हकलाती पूरी बात बताई। तब लड़कों के भी होश ठिकाने आए। सभी खार की खाक छानने निकल गए। घंटेभर की तलाश के बाद बंशी उन्हें कोटमी खार में औंधे मुंह पड़ा दिख गया। गनेश ने उसके शरीर को हौले से पलटाया तो माथे का घाव दिख गया, जिसमें से बहा हुआ खून सूख चुका था। अब बारी धनकुंवर के साथ गनेश और ननकू के जी सुकसुकाने की थी। वह सुकसुकाया भी, साहस कर गनेश ने बंशी के सीने पर हाथ रखा। जान अभी बाकी थी। धनकुंवर को रोना नहीं आया बल्कि बंशी के पास ही रटपटाकर गिर गई। ननकू अपने साथ टिफिन में पानी लेकर आया था। गनेश ने बंशी के मुंह में पानी डाला। तब तक मोहल्ले के और लोग भी आ गए थे। उन्होंने धनकुंवर को संभाला। तीन लोगों ने मिलकर बंशी को उठाया और घर की ओर दौड़ पड़े। दो लोग धनकुंवर के होश आने पर उसे कंधे का सहारा देकर चल रहे थे। रोती—गाती घर तक पहुंची।
            बंशी की जान तो बच गई, लेकिन आज तीन दिन हो गए उसने आंख नहीं खोली है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में लू के मरीजों की संख्या बढ़ने पर अस्पताल के कर्मचारियों ने उसे वार्ड से निकालकर दूसरे कक्ष में सुला दिया है। यहां पक्की छत की जगह मात्र टिन का शेड लगा है, जिसके ऊपर नीम की घनी छाया है। धनकुंवर बंशी के बाजू में बैठकर पूरे दिन पंखा करती रहती है। ननकू बीच—बीच में खाना लेकर आता है और गनेश बंशी को प्राइवेट अस्पताल ले जाने के लिए पैसे का इंतजाम करने की बात कहकर दो दिन से नहीं आया है। इस बीच रिश्तेदारों का आना—जाना भी लगा था। उन्हीं के लाए सेब—मुसंबी का रस बंशी के मुंह में डालती रहती है। रस गले से उतरता भी है कि नहीं क्या पता, लेकिन ग्लूकोस का बाटल पूरे दिन चढ़ा ही रहता है।            
            इसी बीच धनकुंवर की बड़ी भौजी उजली साड़ी पहनी हुई आई। रूप—रंग देखा, दोनों नाक में मोटी—मोटी नग लगी फुल्ली, चवन्नी जितनी बड़ी टिकली, आंखों में मोटी—मोटी काजल की परत सब नदारद थे। रिश्तेदारभर में पुराने बनाव—सिंगार के मामले में कभी जिसकी तुती बोलती थी आज वह बेजान खंडहर की भांति डोल रही थी। शरीर ढल गया था और चेहरे की चमक भी। तो क्या गनेश के बाबू के न रहने से उसकी भी यही हालत होने वाली है। मन में अनायास ही आए इस खयाल मात्र से धनकुंवर को लगा कि उसने अपने ही सिर पर रखे पत्थर को अपने पैर पर पटक दिया हो। अपनी भौजी के गले लगकर वह अस्पताल में ही दहाड़ें मारकर रोने लगी। सब ढांढस बंधा रहे थे, लेकिन वह बेसूध होती जाती थी। फिर घुटने पर हाथ धरकर उस पर अपना सिर टिकाए जमीन पर बैठ गई। उसके भैया को फांसी पर झूले छै महीना भी नहीं ​बीते हैं कि उसके घर पहाड़ टूटने को आ गया है।
              धनकुंवर एक बात अच्छे से जानती है कि उसके घर की हालत ऐसी ही रहनी है जैसी है, चाहे बंशी रहे या न रहे। डॉक्टरों की बातें भी उसने सुन रखी है कि ऐसी हालत में मरीज के ठीक हो जाने पर भी लंबे दिन तक जीने की सम्भावना नहीं रहती। पर मन कहां मानता है, पहाड़ तोड़ने वाले को उसकी चोटी नहीं दिखती। वह तो बस अपनी छैनी—हथौड़ी में ही मगन रहता है। धनकुंवर भी अपने बंशी को लेकर ऐसा ही सोच रही है। कैसे भी करके एक बार तो होश में आ जाए फिर भगवान तक से लड़कर वह उसे जिलाएगी। अपनी भौजी जैसी हालत अपनी और अपने घर की नहीं करनी है।
            अचानक बाहर जोर की आंधी शुरू हो गई, हवा का झोंका अंदर तक पहुंच रहा था। उसी समय डॉक्टर बंशी को इंजेक्शन लगा रहा था। तीन दिनों बाद पहली बार सुई चुभने की पीड़ा से जब बंशी ने अपने नितंब के मांस को सिकोड़ा तो धनकुंवर के मन में घंटियां बजने लगी कि सरमंगला दाई ने उसकी सुन ली है। डॉक्टर ने भी उसे ढांढस बंधाया। इतने में शेड पर पट—पट, पट—पट की आवाज आने लगी। धनकुंवर समेत सबने कहा पानी गिर रहा है। बंशी के शरीर में हलचल तेज हो गई। धनकुंवर उसके सिरहाने तक चली गई। बंशी की आंखें तो बंद ही थीं, लेकिन कुछ बोलने के लिए जबड़े हिलने लगे थे। ले—देकर दो शब्द ही फूटे, 'पहिली पानी'। डॉक्टर ने कम्पाउंडर से तत्काल कुछ उपकरण और दवा लाने को कहा. जब वह बाहर निकला तो देखा नीम की निबौलियां शेड पर गिरकर पट—पट की आवाज लगा रही थीं।
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पैसे के गुलाम

आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता को जोड़कर देश—विदेश के सैकड़ों बुद्धिजीवियों ने सिद्धांतों के जुमले गढ़े हैं। इन सिद्धांतों को हमारे लोकतंत्र, खासकर विकेंद्रीयकरण के बाद इसकी आधारभूत इकाई गांव की परिस्थितियों से जोड़कर परखें तो स्थिति साफ हो सकती है। कहानी का नायक रघु के पास दोहरी जिम्मेदारी है। एक तो वह सरपंच प्रत्याशी का मुख्य कर्ताधर्ता है तो एक वोटर भी है। दोनों रूपों में ये बातें उसे कितना प्रभावित करती हैं उसे प्रस्तुत करने की कोशिश है पैसे के गुलाम ​राय जरूर व्यक्त करिएगा... 
     हां, मैं मानता हूं, रमाकांत सच कहता था कि गांव में रघु ही वो दीपक है, जिसकी आंधी में भी हरहराती लौ गांव के फटेहालों, मजदूरों और किसानों का भविष्य रोशन कर सकती है। भले कम पढ़ा-लिखा है, फिर जिस दिन वह टूट गया, उस दिन गांव की तकदीर रूठ जाएगी।
हालांकि यह भी सच है कि जब तक गांववाले गुलाम पसंद रहेंगे, पैसे के गुलाम, गुरमटिया में माधो गौंटिया के रहते कोई सरपंची नहीं जीत सकता। चाहे लाख बुद्धि और इच्छाशक्ति लगा लो। मेरे पैतृक ग्राम गुरमटिया का सरपंच प्रत्याशी रमाकांत जब भी बिलासपुर आता था, मुझसे चुनावी चर्चा किए बिना नहीं लौटता था। वह अपने पक्ष में शिक्षा, लोक-शिक्षा, मताधिकार, आरक्षण, मतदाता-जागरूकता वगैरह-वगैरह राजनीति विज्ञान की ढेरों टाॅपिक को आधार बनाकर तर्क देता था। गुलामपसंदी वाली बात सुनते ही मुझे मन ही मन गालियां बकता हुआ लौट जाता था।
रमाकांत जिस रघु की बात कहता था उसे मैं भी अच्छे से जानता हूं। अच्छे से क्या बचपन से। हां, दीपक जैसा ही था छत्तीसगढ़ के सबसे सघन आबादी वाले जांजगीर-चांपा जिले के अकलतरा ब्लाॅक अंतर्गत गुरमटिया गांव में रहने वाला रघुनंदन प्रसाद वल्द जगेश्वर प्रसाद केंवट उम्र बत्तीस साल। वह था तो उम्मीद थी, आकांक्षाएं थीं, सपना था। सपना ऐसे आदमी को सरपंची जिताने का, जो गांव के बनिहार, खंती-कुदारी करने वालों और वर्गीकृत विज्ञापन पढ़कर रोजगार खोजने वालों के साथ बराबर में बैठने वाला हो। उनका सुख-दुख उसका भी सुख-दुख रहे। रघु गुरमटिया में ऐसा सपना देखने वाले आठ-दस युवकों का नेतृत्व कर रहा था। उनके सामने माधो गौंटिया के खानदानी वर्चस्व, अकूत धन-दौलत और बात-बात में लाठी बिड़गा निकालने वाले लठैतों को पराश्त कर रमाकांत को गुरमटिया का सरपंच बनाने की दलहा पहाड़ जैसी चुनौती थी।
पहले तो मुझे इतने पढ़े-लिखे रमाकांत की रघु जैसे खिलंदड़ पर भरोसा करने वाली बात पर जोर की हंसी भी आई थी। क्योंकि जिस रघु को मैं बचपन में जानता था वह काम तो दीपक जैसा ही करता था, लेकिन किसी को रोशनी देने के लिए नहीं, बल्कि जलने वालों को जलाने और सताने के लिए। मुझे याद है, एक बार जब हम नागपंचमी पर दलहा पहाड़ चढ़ने गए थे तो डेढ़ घंटे की चढ़ाई उसने पचास मिनट में कर ली थी। जल्दी पहुंचकर यह देखने के लिए कि चोटी पर खड़े होकर मुतने से पेशाब सीधे जमीन पे आता है या चट्टानों पर ही रुक जाता है। शरारतों में ही गांववालों को नानी याद करा दी थी उसने। यही कारण था कि उसका बाप जगेसर और अम्मा सोनसरहीन उसे तारनहार कहते थे।
मेरी उसकी परवरिश उस गांव में हुई थी, खुद जिसका भूत, भविष्य और वर्तमान आज भी गौंटिया खानदान की कलम से तय होता है। कल्चुरी शासनकाल के राजाओं ने गांव-गांव में व्यवस्थापन की जिम्मेदारी जिन रसूखदारों को गौंटिया बनाकर सौंपी थी, उनकी पीढ़ियां आज भी उस नाम के साथ गंगा नहा रहे हैं। दानशील और अंग्रेजों के खिलाफ देशभक्तों का साथ देने वाले गौंटिया तो अपने साथ अपने वंशजों को तार चुके हैं। वहीं सैकड़ों गांव ऐसे भी हैं, जहां के जीवन स्तर का निर्धारण वहां के रुतबेदार गौंटिया की बेरहमी के स्तर ने तय किया हुआ है। गुरमटिया गांव भी उन्हीं में से एक है। प्रकृति ने यहां विकास की हर संभावनाएं दी हैं, लेकिन गांववालों को ये गौंटिया की पुरखौती हवेली से होकर जाने के बाद मिलती हैं। बताते हैं कि जिस साल इलाके में भयंकर दुकाल (अकाल) पड़ा था, तब माधो के दादा दीनानाथ गौंटिया ने इस तीमंजिली हवेली को गांववालों को अंकरी की बनी (मजदूरी) देकर बनवाया था।
          गौंटियाई भले बरसों पहले छीन ली गई हो, लेकिन माधो के खून में उसका तेज अब भी तैरता है। गौंटियाई नहीं तो सरपंची थी। नाम बदला था, काम और ठसक वही पुरानी। उसने गौंटियाई परंपरा में एक ही बदलाव किया था। बोलता बहुत मीठा था। समय की मांग भी थी। गांव वाले उसके इन्हीं दो मीठे बोल की चाशनी में डूबते रहते थे और फिर-फिर उसे चुनाव में जीताते थे। खुद किसी से टेढ़ा मुंह बात नहीं करता। भतीजों और ठेंगहों (लठैतों) से सबको पिटवाता। माधो के दम पर लोगों को दो पैसा उधारी देते, तो दस परसेंट के हिसाब से सालभर में दुगना हगवा लेते थे। उसमें फिफ्टी परसेंट शेयर माधो का रहता था। मजाल थी कि गांव का कोई केस थाने तक पहुंचे। बैठक लेकर खुद फैसला करता था और न्याय के बदले दारू-मुर्गा की पार्टी। अपराधी दूर फरियादी तक को नहीं छोड़ता था।
               जिस गांव की मिट्टी से लेकर घरों के छानही का खपरा तक गुलाम हो वहां रघु जैसा बागी बनने के पीछे की रामकहानी गुलामी से ही शुरू हुई थी। माधो ने चुनाव के लिए ठेंगहों की एक अदृश्य फौज पाल रखी थी जो चुनाव के समय विरोधियों को निपटाने के लिए ही प्रकट होती थी। रघु उन्हीं में से एक लड़ाका था। अपनी वाचाल प्रवृत्ति से उसने माधो के दिल में अच्छी जगह बना ली और बड़बोला भी हो गया। कुछ फैसले माधो से पूछे बिना भी करने लगा जिसमें गौंटिया पट्टी से जुड़े मामले भी थे। फिर क्या था, माधो ने उसे निपटाने में जरा सी भी देरी नहीं की। इधर रघु चाहता था कि माधो उसकी और उसके परिवार की अलग खातिरदारी करे। ऊपर से माधो ने रघु की गैरमौजूदगी में उसका जी जलाने के लिए गौरा विसर्जन में उसकी घरवाली रत्ना को कलश उठाने के लिए बुलवा लिया। बाद में जब उसे पता चला कि गौंटिया ने उसकी घरवाली को फक्क उजली साड़ी पहनाकर गली-गली घुमवाया है, तब से वह कटता चला गया। एक वक्त ऐसा आया कि उनके बीच अच्छी-खासी बहस हो गई और माधो ने उसे गोड़पोछना की तरह तिरिया दिया। तब से रघु गौंटिया के नाक के नीचे पुरखों के बनाए कायदे पर बराबर गड्ढा खोदते आ रहा है।
          रघु सूरज नहीं दीपक इसलिए था, क्योंकि न तो वह ठेकेदारी करता था न किसी सरकारी नौकरी में उसका भविष्य सुरक्षित था बल्कि काम के नाम पर गोपालनगर सीमेंट फैक्ट्री में ठेका मजदूर था। प्लांट को लाफार्ज कंपनी ने जबसे खरीदा था तब से उसकी रोजी महीने में बीस से घटकर आठ से दस दिन की रह गई थी। वह भी तब जब मालगाड़ी में क्लिंकर का खेप आए। वरना महीना बिना रोजी के ही बीत जाता था। हालत भले फटेहाल थी पर रघु के बाप फोटकहा जगेसर के हिसाब से पहले संतुष्टि की बात थी। वह खुद भले चींटी मारने की औकात न रखे, लेकिन रघु के माधो गौंटिया का लठैत रहने तक उसका घर-परिवार सुरक्षित था। माधो से अलगाव के बाद रघु के खटकरम अब फिर से उसे सालने लगे। नित नई हरकतें नए खतरनाक माहौल पैदा कर रहे थे। वह इसलिए कि अब माधो का हाथ नहीं, उसकी लात सिर पर मंडरा रही थी। और रघु था जो न नल में पानी भर रही माई लोगन की परवाह करता था न लाठी टेंकते हुए बाजू से गुजर रहे सियनहा बबा की, शुरू हो जाता था अपनी धुन में, 'का तैं... का तैं मोला मोहनी डार दिए गोंदा फूल, का तैं मोला मोहनी डार दिए ना...।'
माधो के खासमखास बिसाहू ने जब मुझे रघु के माधो से अलगाव की बात बताई, तब मुझे रमाकांत की उम्मीद पर थोड़ा भरोसा होने लगा था, क्योंकि महाभारत में अर्जुन ने जिस सारथी पर भरोसा किया था वह भी किसी जमाने में गोकुल की गलियों में गोपियों के कपड़े लेकर भागा था।
खैर, रघु जगेसर और सोनसरहीन से लेकर माधो गौंटिया की मंडली के लिए जैसा भी आदमी रहा हो, उसके चाहने वाले भी कम न थे। उसकी शरारतों से एक तानों, उलाहनाओं की बौछार करता, तो दूसरा असीस और दुआओं से झोलियां भर देता।
उसी दिन को देख लीजिए। गनेस-ठंढा (विसर्जन) से ठीक पहले वाली रात रघु की युवा मंडली रघु की अगुवाई में गनेस मंच पर डांस कंपीटिशन करा रही थी। माधो गौंटिया को पहली बार गनेस समिति की कार्यकारिणी से हटाकर संरक्षक बना दिया गया था। वह मंच पर बैठकर बस तमाशा देख सकता था। गुरमटिया से लेकर अकलतरा, लटिया, पामगढ़, अर्जुनी समेत दो दर्जन गांवों से आए छत्तीस प्रतिभागी रात के तीन बजे तक डांस के जलवे बिखेरते रहेे। तभी खाल्हेपारा के गिदरु के पोते कमलकांत ने मंच पर कदम रखे थे। कदम क्या रखे थे, माधो और गांव के दो-चार बुजुर्गों के सीने को दो फाड़ करते हुए नीलकमल वैष्णव के पान मीठा-मीठा रायपुर के मोहनी तोला खवातेंव... गाने के रीमिक्स वर्जन पर लटके-झटके भी दिखाए थे। सब रघु की शह पर।
        अगली अलसुबह गुड़ी में बैठे सरपंच माधो गौंटिया, बिसंभर, जीराखन, बिसाल, सीताराम, रामबली और रामधनी की आंखों में क्रोध की ज्वाला गोता लगा रही थी। तो गांव के उत्ती (पूर्व) में नीची जात वालों की बस्ती खाल्हेपारा में मानसाय के चौंरे (चौपाल) पर बैठे युवकों की आंखों में प्रतिशोध-तुष्टि की शांति तैर रही थी।
मैं दावा करता हूं कि बिलासपुर की अंदरुनी गलियों में सामने से छोटा क्लीनिक और अंदर पचास बिस्तर का अस्पताल चलाने वाले नेत्र रोग विशेषज्ञ भले पुतलियां देखकर इलाज करें, लेकिन उस दिन गुरमटिया गांव की इन दोनों मंडलियों के लोगों की आंखों में कोई लच्छन हर्गिज नहीं बता सकते थे जब तक कि वे रघु की युवा मंडली की आंखें न पढ़ लेते। गनेस ठंडा करते हुए नाचते गाते इन आंखों में आजादी का आनंद तैर रहा था। फैसले की आजादी। माधो गौंटिया भले नीची जाति के लोगों के घर बैठकर ठर्रा पीने के साथ कुकरा, बोकरा (मुर्गा, बकरा) खा सकता था, लेकिन उन्हें सामाजिक तौर पर शामिल करने की बात पर, नहीं हर्गिज नहीं। रघु ने माधो की नाक के नीचे उनका सामाजिक क्या धार्मिक प्रवेश करा दिया था।
यह घटना गुरमटिया के लिए इसलिए बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि गांव के सबसे उम्रदराज एक सौ पांच साल के मंसा डोकरा और उसके भी बाप के पैदा होने से पहले की किसी भी पीढ़ी के आदमी ने किसी गौंटिया की आंखों में आंखें डालकर बात करने तक की हिम्मत नहीं की थी। फैसला लेना तो दूर की बात है। उस गांव में रघु ने माधो गौंटिया की चूलें तो नहीं खिसकाई थीं, लेकिन नीची जात के लोगों को देवी-देवता के पंडाल पर नहीं चढ़ने देने के एक अघोषित कायदे पर नई पीढ़ी का वार तो कर ही दिया था।
उस दिन लीलागर नदी के खड़ के टिकरा में ढेलवानी रचने (मेढ़ बनाने) के बाद घटौंधा पर नहाने गए फोटकहा जगेसर को लोगों ने घेर लिया और गनेस मंच वाले मुद्दे पर जमकर घुट्टी पिला दी। तभी उसे लगा कि जैसे माता-चौंरा की माता ने उसके मस्तक पर भाल घुसा दिया हो। उसके अवचेतन से उसके ददा की बचपन में सुनाई कहानी याद आ गई, 'गांव में छूत लगने से घरोंघर लाशें निकल रही थीं। तब माधो के आजा बबा लछमन गौंटिया को माता ने सपने में आकर कहा कि गुड़ी से लगे उनके आसन के पास किसी अछूत के लगे पांव के निशान को दूध से धुलवाओ। गौंटिया ने अगले ही दिन इक्कीस सेर दूध से आसन को धुलवाकर गंगाजल छिड़कवाया। उसी दिन खाल्हेपारा का मनोहर कोढ़ी हो गया। और तो और तुतारी से हुरसकर मनोहर को आसन की तरफ धकेलने वाला फदहा राउत जनमभर के लिए लंगड़ा हो गया था।’ जगेसर को माता के प्रकोप से भी ज्यादा डर माधो गौंटिया का था।
जब वह घर पहुंचा तो उसकी नजर रघु को तलाश रही थी। गले में लिपटे गमछे के दोनों छोर को हाथ में लेकर होंठ के आजू-बाजू में फूट आए पसीने और सूखे लार के मिश्रण को पोंछा और परछी में अनमने ढंग से खड़ा हो गया। एक कोने में सोनसरहीन आधा पालथी मारकर एड़ी के ऊपर परसूल दबाए साग काट रही थी और रत्ना अपना भारी पेट लेकर खटिया में पसरी थी। उसने पास जाकर सोनसरहीन को घुरते हुए ही गुस्से से बोला, 'तारनहार सोकर उठ गया या सो ही रहा है।'
     ’नौ बजे उठा है और भोला के ठेला के पास खड़ा है।’
     ’गांव भर एके चर्चा हे।’
     ’काए बात के?’
     ’कि जगेसर के बेटे ने गांव के नियम कायदे को जुन्ना डबरी में डूबा दिया। साक्षात माता चौंरा वाली माई का कोप लगेगा। ऊपर से पता नहीं माधो गौंटिया क्या खेला करेगा।’ आंखों में उठ आई लालिमा को उघाड़ते हुए जगेसर की भवें तन गई थी, बोला, ’क्या जरूरत थी खाल्हेपारा के लड़के को गनेस मंच में चढ़ाने की। गांव की भी एक मरजादा होती है। अपने साथ हमारी भी नाक कटवा दी।’
     सोनसरहीन साग काटना छोड़ रंधनी खोली गई और भड़वा में बासी, कटोरी में मिर्चा चटनी और गोंदली लेकर प्रकट हुई। तब तक जगेसर प्लास्टिक की फटी बोरी बिछाकर बैठ गया था। सोनसरहीन ने भड़वा को रखते हुए कहा, ’बिरस्पति दीदी गौंटिया घर गई थी तो सुनी है, गौंटिया  संझा बेरा पंचायत जोड़ने की बात कह रहा था।’
    पंचायत का नाम सुनते ही जगेसर के पेट में डर का गोला नाचने लगा। फैसले के डर से उस दिन उसका पूरा समय उलझनों में ही बीता। शाम को अपने चौंरा में बैठकर पउआ में पटुआ फंसा-फंसाकर डोरी बरता था तो उसके मन की भांति डोरी भी बार-बार उलझ जाती। बाकी कसर कोटवार ने माधो के चौंरा में रात का खाना खाने के बाद बैठक जुरने का बलाव देकर पूरी कर दी। जगेसर ने मन बहलाने के लिए पउवा पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की। बाहर झिंगुर का शोर एकाएक बढ़ गया, जिसमें घोंसलों में लौट रही गुड़ेरिया चिरई की चूं-चूं भी दब गई। जैसे गौंटिया पट्टी वाले बैठक में हो-हल्ला मचाते हैं और एक महीन स्वर दब जाता है। फरियादी और आरोपी एक बार फिर विचार कर लें...., बोलो पंचों का फैसला मंजूर है।...’ मेरे गवाह को भी आने देते मालिक।...’
     रात हुई तो भोजन गले से ही नहीं उतरा और भूखन पेट ठीक आठ बजे माधो के चौंरे पर पहुंच गया। बैठक में चर्चा उठी कि खाल्हेपारा के युवक ने गनेस मंच पर चढ़कर गांव के रिवाज को तोड़ा है। रघु की मंडली को दोषी ठहराया गया और कर्ताधर्ता होने के नाते असल गुनाहगार रघु को।
     रघु ने भी बीच बैठक में पहुंचकर बात रखने की अनुमति मांगी तो माधो को सबक सीखाने का अवसर मिल गया, बोला, ’अब पूछे के का बात हे यार, गांव मं बड़े-छोटे, ऊंच-नीच, जात-मरजादा नाम का कुछ रह ही क्या गया है जो पूछना पड़े।’
     माधो की फटफटी में बैठकर पार्टियों में चना-चबेना खाने जाने वाले बिसाहू ने रजिस्टर में आरोप का पूरा विवरण लिखकर सबको सुनाया, ’फरियादी और आरोपी भाई लोग, एक बार फिर विचार कर लें, बताओ पंचों का फैसला मंजूर होगा कि नहीं।’
    बैठक में आने से पहले ही जगेसर को पिछली बैठकों से आकर अवचेतन में बैठ चुकी इस संवाद की अनुगूंज सुनाई दे चुकी थी। जज का कथन कभी-कभी वकील के दलील से प्रेरित या पुलिस की फाइल में दर्ज कोरा विवरण ही तो होता है, लेकिन न्यायिक गरिमा का खयाल आते ही शिरोधार्य हो जाता है। जगेसर की गर्दन झुक सी गई। अंदर कलेजा बाहर आना चाहता था, लेकिन इस झुकाव में फंस गया था।
    अचानक रघु ने एक ही बात कही कि सभा में सन्नाटा पसर गया, ’नीची जाति के युवक कमलकांत मलंग को गनेस मंच पर चढ़ाने का आरोप, क्या बात है। तुम लोग इधर मुझे डांड़ करवाओ उधर मैं थाने जाता हूं। इधर-उधर का थाना नहीं, कमलकांत को लेकर सीधे हरजन थाना। लिखने वाला तो पकड़ाएगा ही, फैसले में जिनका-जिनका दसखत रहेगा उनको भी न बंधवाया तो कहना।’
    पुलिस के नाम पर थर-थर कांपते बिसाहू ने रजिस्टर से वह पन्ना ही चिरकर अलग-थलग हवा में उड़ा दिया। एक-एक करके सभी बैठक छोड़कर खिसकने लगे। रघु भी जगेसर के साथ निकल गया। तब माधो ने चिहुंरते हुए कहा, ’स्साले ननजतिया..., काल के कोला म हगइया टूरा आज हमीं ल बिजरावत हे। न मैं किसी पुलिस से डरता हूं, न किसी हरजन थाना से। लगा दूं क्या किसी को इसके पीछे। राजनीति करना ही छोड़-भुलाएगा।’
    ’अरे रहने दो माधो, मरे हुए को क्या मारोगे, साले जिसके पास एक खांड़ी का खेत नहीं है उससे क्या बदला लोगे। तुम देखते तो जाओ, एक दिन तुम्हारे पैर पर नहीं गिरा तो कहना।’, बिसाहू ने माधो को समझाया।
     फिर कोने में ले जाकर एक और गूढ़ बात कही, ’ये भी तो सोचो, चार महीना बचे हैं चुनाव को, हिंदूओं के लिए तो वीर बन जाओगे, फिर खाल्हेपारा वालों का एक भी वोट नहीं मिला तो बुद्धि ठिकाने आ जाएगी, इसलिए फूंक-फूंककर पैर रखो।’
     ’ठीक कहते हो यार, आजकल नए-नए लड़के पैदा हुए हैं, कब कौन चुनाव में खड़े हो जाए क्या ठिकाना, हिंदू का वोट तो कटेगा, खाल्हेपारा वालों का वोट भी छीन गया तो कहीं का नहीं रहेंगे।’ मन में रघु का खयाल लाते ही माधो को लगा जैसे रेत मुंह में आ गया हो। उसे जीभ से साफ करते हुए वह घर में दाखिल हो गया।
     रघु और जगेसर घर लौटे तो दोनों आपस में ऐसे मुंह बनाए चल रहे थे मानों दोनों ने सात जन्मों से बात न की हो। अंधेरे में चलते जगेसर के हाथों में धूंए से काली हुई तेंदू की मोटी लाठी थी। राह में कुत्ते भौंकते तो जगेसर उसे उठाकर ताकीद करता कि पास आके तो दिखाओ, जबड़ा न तोड़ दिया तो कहना। लाठी जगेसर के रातों का हमसफर थी। रात-बिकाल खेत में पानी पलोने जाता तो इसे ले जाना नहीं भूलता था। वह इससे दो दर्जन से ऊपर सांप-बिच्छूओं को देवदर्शन करा चुका था। हां मगर किसी आदमी से पाला पड़ जाए, तो वह उस लाठी के नाम तक से कांपता था। कहता, ’क्या पता गुस्सा तो है, कभी किसी के सिर को पड़ गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे।’, रघु इस लाठी से चिढ़ता था। उसका मानना था कि इसी लाठी ने बाबू को भिरु बना दिया है।
     ‘समझा अपने बेटे को, चार महीने में चुनाव आने वाला है। फिर जानती हो, गौंटिया के नए-नए छोकरे मार्शल में लाठी-बिड़गा लेकर कैसे घूमते हैं। कहां के गड्ढे में बोरे में लपेटकर घुसा देंगे पता ही नहीं चलेगा।’ जगेसर ने दरवाजा खोलने आई सोनसरहीन को रघु की ओर इशारा करते हुए कहा।
     ‘कभी तो शुभ-शुभ कहा करो, जब देखो मरनेच-हरने की बात। मेरे बच्चों के बारे में तो और कुछ मत कहा करो। कब अपनी ही बात दोख बन जाए कोई ठिकाना नहीं।’ सोनसरहीन ने खिसियाते हुए जगेसर से कहा। फिर पूछा, ’का बात होइस बैठक मं।’
    ‘बेटा ल समझा, मां-बाप की गुलामी पसंद नहीं आई तो अलग हो गया। अब क्या दुनिया की गुलामी पसंद नहीं है तो दुनिया को छोड़ेगा। गांव-समाज के नियम-धरम को मानने के लिए झुकना ही पड़ता है।’ खाट पर बिछे चद्दर को झाड़कर एक ओर करते हुए जगेसर ने कहा और बीड़ी सुलगाकर पीने लगा।
      रघु को तो जगेसर की बातों से कोई मतलब ही नहीं था। सीधे अपने कमरे में दाखिल हो गया। बिस्तर के आधे हिस्से में लेटी उसकी पत्नी रतना ने कुनमुनाते हुए आंखें खोली और पेट में पल रहे बच्चे के साथ दोहरी वजन को खिसकाते हुए बोली, ’आज बच्चे ने मेरे पेट में उधम मचा दिया है, रह-रहकर लात ही लात मार रहा है, आप पर ही जाएगा लग रहा है।’
रघु ने रतना के उघड़े पेट पर नाभि के ऊपरी हिस्से को चुमकर उंगली दिखाते हुए कहा, ’दुनिया में जीना है बेटा तो ठसक के साथ जीना, लुंजुर-पुंजुर जीना जीना नहीं है, बाबू जैसे लाठी छिपाने वाले धरती के बोझ हैं, तुम्हें बोझ नहीं बनना है।’ एक जोर की लात पेट के अंदर से रतना को पड़ी और वह हक्क से रह गई।
    हर गांव में एक ऐसा दल जरूर होता है, जो फटे पर टांग अड़ाता है। फाड़ तो नहीं पाते लेकिन कपड़े का मोल-तोल लोगों को जरूर बता देते हैं। गुरमटिया में भी ऐसा ही एक दल भोला के पान ठेले पर जुरता था। देश-दुनिया की बात होती थी और घूमते-फिरते गांव के मुद्दे और इतिहास से लेकर माधो की सरपंची और भ्रष्टाचार पर समाप्त होती थी। रघु का माधो से अलगाव से पहले पान ठेला चलाने और आसपास के गांवों में रमाएन गाने जाने वाला भोला उनका नेता हुआ करता था। तब रघु उन्हें विकास विरोधी मानता था। अब वह खुद उनका नेता बन गया था। बीच-बीच में ग्राम सभा की बैठक में भी गुरमटिया के ये स्वयंसेवक माधो को औकात दिखाने लगे थे। रघु के पास तो माधो के खिलाफ ढेरों कच्चे चिट्ठे भी थे।
    रघु की उसी टोली में एक स्वयंसेवक था रमाकांत, जिसने गुरु घासीदास विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एमए किया हुआ था। नौकरी के लिए अच्छा-खासा हाथ-पांव मारने के बाद थक-हारकर अब वह रसेड़ा गांव के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने जाता था। क्रांतिकारी विचार बचपन से ही पल रहे थे और प्रौढ़ावस्था में आने से पहले ही पिता की असामयिक मौत से मिले संघर्ष ने उसे और बढ़ा दिया था। उसे रघु जैसे कम पढ़े-लिखे आदमी का नेतृत्व पसंद नहीं आता था और गांव की व्यवस्था से भी चिढ़ता था।
    ’पुराने सियान तो अंगूठा छाप हैं, आजकल के नए लड़के भी पढ़ाई छोड़कर रोजी-मजदूरी करने लगे तो गांव का कभी कल्याण नहीं होगा। माधो की गुलामी की असल जड़ तो शिक्षा की कमी ही है।’ एक दिन रमाकांत ने पान को मुंह में भरकर चूना चाटते हुए रघु से कहा था।
    ’बात तो सही है। फिर पढ़ाई ही सब-कुछ तो नहीं। आदमी के पास तन पर पहनने के लिए एक कपड़ा तक नहीं है उसे तुम चुनाव लड़ने को कहो तो क्या संभव है। फिर पढ़ा-लिखा आदमी भी क्या कर रहा है। पंचायत में जाकर फटर-फटर मारने बस से कुछ नहीं होता। उसके लिए लड़ना-भिड़ना पड़ता है।’ रघु का जवाब था।
    बात पर बात बढ़ती गई और रघु ने रमाकांत को सरपंची चुनाव लड़ने की चुनौती दे डाली। यहां तक कि उसने कदम से कदम मिलाकर साथ देने का वादा भी कर दिया। लगे हाथ आठ-दस साथियों ने भी रमाकांत को उचका दिया। रमाकांत जानता था कि ओबीसी होने के नाते भले ही उसे संविधान में प्रदत्त शक्तियां मिली हैं पर वे यहां काम नहीं आने वाली। आरक्षण सामाजिक आधार पर जरूर मिला है, लेकिन उसी समय की सामाजिक व्यवस्था के हिसाब से ही इसे कुछ और होना था। अपनों के बीच गरिया दिए गए कुछ शोषित ब्राम्हण, ठाकुर और वैश्य समाज के लोगों और ओबीसी, एससी, एसटी के गौंटियों, जमींदारों, राजाओं के वंशजों पर विचार किया जाता तो स्थिति कुछ और होती। बारहवीं की परीक्षा के लिए उसने नेहरू के कथन आर्थिक आजादी के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता की बात कहना बेमानी है को भी अच्छा-खासा रट लिया था। माधो भी तो ओबीसी में आता है, लेकिन उसे चुनौती यानी नेवले को सांप की चुनौती।
     रमाकांत ने तत्काल हामी नहीं भरी, लेकिन बार-बार कहने का उस पर असर हुआ और वह चुनाव लड़ने को तैयार हो गया।
     अगली सुबह गुरमटिया में हर दिन उगने वाला वहीं सूरज उगा, लेकिन रघु की युवा टोली की स्फूर्ति ने मिजाज में नई ताजगी घोल दी थी। वे पूरे दिन गली-गली घूमकर माधो के किए भ्रष्टाचार के काले कारनामों को उजागर कर गांव के आकाश में गौंटियाई सल्तनत की चिमनी से रच-बस चुकी कालिमा को उजला करने के असंभव से काम को संभव करने की कोशिश कर रहे थे। फिर वह दिन भी आया जब रमाकांत ने चुनाव में नामांकन दाखिल कर दिया। अब तो गांव के हर कोने में एक ही बात की चर्चा थी, चलो कोई तो आया मुकाबले में। गांव की गुड़ी और भोला व गिरधारी के पान ठेले से लेकर माधो की मंडली और उसके बेडरूम तक वहीं गूंज सुनाई देने लगी।
     रघु ने तो सारा बीड़ा उठा लिया था। उसके मन में रमाकांत की जीत से ज्यादा माधो की हार की चाहत थी। मोहल्ले के बुजुर्गों और सहपाठियों का दल बनाकर घर-घर केनवासिन में जाता था। रात में योजनाएं बनती तो दिन में उसे अमलीजामा पहनाते। रघु के सिर का पसीना पांवों से होकर जमीन पर चूंता था। शुरू-शुरू में उन्हें कहीं-कहीं ही तारीफ मिलती थी। बाकी तो उलाहनाओं का बोलबाला था। कोई कहता तुम लोग माधो का एक मेछा नहीं उखान सकोगे, तो कोई गांव की परंपरा की दुहाई देकर उनकी चुनौती को गौंटिया बिरादरी का अपमान कहता था। वहीं ऐसे लोगों की कमी भी नहीं थी, जो माधो की कारगुजारियों को समझने लगे थे और उसके फैसले से सताए हुए थे। वे खुले दिल से आशीर्वाद देते थे। पैरों तले जमीन खिसकते देख माधो कुछ भी करा सकता था। कुछ भी यानी लाठी, डंडा और बेल्ट की भाषा में भी बात कर और करवा सकता था। रघु ने इससे निपटने का प्रबंध भी करा लिया था। ’देख लेबो, माधो के टूरा मन के गांड़ मां कतका दम हे।’ रघु अक्सर कहा करता था। कहता क्या था, अपनी मंडली के लोगों के मन में पैठ चुके डर को साधने की कोशिश करता था। कभी मन बहलाने के लिए करमा-ददरिया का ताल ही छेड़ देता था, ’चौंरा मां गोंदा... चौंरा मां गोंदा रसिया, मोर बारी मां पताल रे चौंरा मां गोंदा।’
    पिछले तीन दिन से उनका सघन प्रचार जारी था। सुबह आठ बजे निकलते, तो बिना दो पल सुस्ताए दो बजे तक तीस-पैंतीस घर निपटा देते थे। फिर शाम को पांच बजे शुरू कर दस बजे तक आंकड़े को साठ के आसपास पहुंचाते थे। जैसा आदमी मिलता उसे उसी की भाषा में समझाने की कोशिश होती थी। दिनभर थकने-हारने के बाद रमाकांत के कोठार में महफिल जमती। इस बीच अगले दिन की रणनीति बनती, तो दिन में मिले अनमने विचारों के कुलबुलाते कीड़े को पउवा और चेपटी के कड़वे रस से मारने का उद्यम भी होता था। अभी उसी का वक्त होने जा रहा था।
     ’हम तो भईया रे, सांसद, बिधाएक के चुनई मं भी माधो जेला कही ओई ल वोट देबो। फिर खुदे वही खड़ा है तो क्यों छोड़ेंगे। पुरखा का चलागत है, हम गोड़पोछना हैं तो वह राजा है। राजा अरियाए के गरियाए परजा का धरम है राजा का साथ देना।’ कमर पर रखे हाथ को उठाकर मटकाते हुए बचन डोकरी ने अपने घर के ओसारे में खड़े रघु, मदन, मुरारी और रमाकांत से कही। रमाकांत को उसी बात को आज तेरहवीं बार दोहरानी थी। ऐसे में उसने खुद पीछे जाकर रघु को आगे सरका दिया।
    ’कस ओ दाई, किस जमाने में रहती हो। ये राजा-रानी का जमाना नहीं है। अपनी किस्मत की मालकिन तुम खुद हो। राजा के राज मं गौंटिया मन भले आगी मं मुतंय, अब हम चाहें तो उसका कुछ नहीं चलने वाला।’ रघु ने जवाब दिया।
    फिर रमाकांत को आगे किया, कहा, ’ये देखो, रमाकांत को पहचान लो। और इसके छाप चश्मा को भी पहचान लो। अपना और अपने गांव का भला चाहती हो तो वोट के बखत याद रखना।’
    ’अ.....रे!! रमाकांत, तखतपुरहीन के बेटा। जुग-जुग जी रे बेटा। तोर बर आसीस हे रे। तुम ही तो अपने घर के तारनहार हो बेटा। फिर क्या करोगे, दरूहा-गंजहा लोगों को कौन समझाए । हम गरीबों की भी क्या गलती है। जिनके घर एक जून की रोटी की जोगाड़ नहीं वो वोट की कीमत क्या जानेगा। बिक जाते हैं बेटा बस खरीददार चाहिए।’
    रघु उसकी बात को अच्छी तरह समझ रहा था। पिछली बार वह खुद माधो के साथ चुनाव की पहली रात उसके घर साड़ी देने आया था। माधो ने एक उजली साड़ी उसके लिए तो एक लाल साड़ी उसकी बहू के लिए दिया था। वे कुछ देर तक पानी-बादर और गरुआ-बछरु के चरागन (चारागाह) की कमी जैसी गैर-चुनावी बातें करते रहे। ’ठीक हे दाई, फेर आबो’ कहते हुए रघु बाहर की ओर निकला गया। उसके पीछे-पीछे सभी निकल गए। वह जानता था कि ऐसे बेशरम लोगों को बातों से नहीं नोटों से काबू किया जाता है।
    दो दिन बाद माधो का चुनाव-प्रचार शुरू हुआ। बकायदा जीप में बैठकर एक आदमी पर्चा गिराता हुआ माइक लगाकर चिल्लाता था और माधो की महिमा गाता था। तो खुली जीप में माधो का बेटा, उसके दोस्त और माधो के भतीजे घूमते थे। ऐसे गैर जरूरी काम में माधो खुद नहीं जाता। हर बार की तरह इस चुनाव में भी उसकी मिठास बढ़ गई थी, जिसे होठों में लेकर वह चुनाव की अंतिम रात विशेष उपहारों के साथ लोगों के घर पहुंचने की तैयारी में जुट गया था।
देखते-देखते वह दिन भी आ गया, जिसके अगले दिन मतदान था। चुनाव से पहले वाली रात को कत्ल की रात मानी जाती है। क्योंकि इसी रात पांच साल तक बराबर साथ देने वाले की भी बात पर कायम रहने की गारंटी नहीं रहती। कहते हैं इस रात को जिसने साध लिया, समझो चुनाव में जीत उसी की होगी। शराब की नदिया बहती है तो घर-घर साड़ी, गमछा और रुपयों का उपहार बंटता है। वहीं दूसरे के उपहारों पर भी नजर रखनी पड़ती है। उसी के लिए रणनीति बननी थी। माधो के आंगन में जमघट लग गई, तो रघु की सेना रमाकांत के कोठार में इकट्ठी हुई।
रघु ने रमाकांत के माथे की शिकन देखी तो माहौल को हल्का करने लक्ष्मण मस्तुरिया के गाने को आजमाया-
    ’बखरी के तुमा नार बरोबर मन झूमरे,
     डोंगरी के पाके चार ले जा लानी देबे,
     ते का नाम लेबे संगी मोर,
     बखरी के तुमा नार बरोबर मन झूमरे...’
     वफादारों की पूरी फौज आ गई तो रघु ने रमाकांत से कहा, ’सब तो ठीक-ठाक चल रहा है रमाकांत, फिर डर एक ही बात का है।’
     ’किस बात का यार।’
     ’खाल्हेपारा के आखिरी के बारह घरों में दोबारा कहना था। जानते हो आदमी एक आखर बात का भूखा रहता है।’
     ’हौ यार, हमारे बोनस तो वहीं लोग हैं।’
     ’कहीं माधो हथिया लिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। असली वोट तो उधर से ही आते हैं।’
     ’तुम क्या करोगे, आज दिन में इसी काम को निपटाना है। हम रात वाला काम नहीं रखेंगे।’ रमाकांत ने मुस्कुराते हुए कहा।
     ’एकदम भोकवा हो यार। आज ही तो कतल की रात है। फिर तुम्हारी कंजूसी ने मार डाला। कितना भी ईमानदार रहो, ये चुनाव है मेरे बाप। एक-एक कुर्ते का कपड़ा तक नहीं बांटोगे तो वोट नहीं ठेंगा मिलेगा।’
     ’ठीक हे यार, फिर तुम भी अकलतरा जाओगे तो जाकर ले आएंगे। मेरा तो जी डरा रहा है। कभी हार गए तो क्या होगा। बीस हजार रखा था वो गया। तीस हजार उधारी भी चढ़ गया है।’
    ’इसीलिए कहते हैं यार चुनाव माधो जैसे कलेजे वालों का है। तुम्हारे जैसे डरपोक के बस की बात नहीं है। मुझे पहले मालूम होता तो तुम्हारा साथ नहीं देता।’ रघु ने उंगली चटकाते हुए कहा। सभा में कुछ देर के लिए खामोशी छाई रही। यह ऐसी खामोशी थी, जिसमें जीत की सुगबुगाहट दिखने के बाद भी एक डर हावी था। रघु को भी लग रहा था कि लंका में बारूद बिछ चुका है। बस चिंगारी की देरी है। लेकिन एक फूंक भी लौ पर पड़ी तो सब किए कराए पर पानी फिर जाएगा।
     बैठक चल ही रही थी कि रघु के पड़ोसी मुरारी का बेटा लल्लू हांफता हुआ आया। उसने रघु को दूर ले जाकर कान में कहा, ’भइया, भउजी के पीरा उसले हे (दर्द उठा है)। दादी ने तुम्हे तुरंत बुलाकर लाने भेजा है।
     रघु धक्क से रह गया और माथे पर बल पड़ गए। उसने आहिस्ता से पूछा, ’किसी दाई को बुलाए हैं रे घर में।’ इतना कहते हुए वह बिना जवाब की प्रतीक्षा के वहां से निकलने लगा। जल्दबाजी में रमाकांत से भी कुछ नहीं कहा। यंत्र की भांति बस घर की ओर चला जा रहा था।
घर पहुंचकर देखा तो परछी में मोहल्ले की औरतों की भीड़ जमा थी। जगेसर मोतीलाल के दुकान खोली में क्लीनिक चलाने वाले पकरिया के डाॅक्टर के साथ खाट पर बैठकर बतिया रहा था।
रघु को सामने देखकर उसने खिसियाकर कहा, ’हर बखत बस चुनई चुनई अउ चुनई। घर की थोड़ी भी संसो फिकर है। ऐसा लग रहा है कि रमाकांत का सगरी बोझा तुम्हारे ही कंधे पर है।’
रघु ने सकुचाते हुए डाॅक्टर से पूछा, ’कैसा हाल है डाक्टर साहब, नारमल होने का चांस है या अकलतरा ले जाना पड़ेगा।’
    डाक्टर रतना को दर्द बढ़ाने वाला दो इंजेक्शन लगा चुका था। सीरिंज व एंपूल की छोटी डिबिया को चमड़े के काले बैग में डालते हुए उसने कहा, ’पहली बात तो यह कि अप्रषिक्षित दाइयों का कोई भरोसा नहीं। किसी प्रषिक्षित नर्स को बुला लाइए। फिर तीन घंटे का समय है, चाहें तो इंतजार कर सकते हैं। या फिर अभी अकलतरा ले जाइए। बात घबराने की नहीं है, लेकिन अस्पताल में डिलीवरी को ज्यादा सुरक्षित माना जाता है।’
    डाक्टर के जाने के बाद जगेसर ने सोनसरहीन से घर में रखी कुल जमा रकम की जानकारी ऐसे ली मानों वह नहीं जानता कि सोसाइटी से दो रुपए किलो के भाव से मिले चावल का आधा अकलतरा के सेठ को तेरह के भाव में बेचकर आजकल बाकी के सामान आ रहे हैं और कोला (घर के पिछवाड़े) के अमली पेड़ से अमली झाड़कर बेचने से मिले पैसे से रतना के अंधरौटी का इलाज हुआ है। बीते नौ महीने में आयरन और कैल्शियम की गोलियां व मंथली चेकअप तो बेचारी ने जाना ही नहीं।
     सोनसरहीन अपने लच्छे, करधन और बिछिया को दो दिन पहले ही उतारकर एक थैले में लपेटकर रख चुकी थी। उसे लाकर जगेसर के हाथ में थमा दी। उसे पहले से ही इस अप्रत्याशित खर्च की प्रत्याशा थी।
    जगेसर ने थैले को हाथ में लेकर कहा, ’सबको बेचोगे तो गाड़ी के किराए और इलाज में ही खर्च हो जाएगा। गिरवी रखने से गाड़ी के लिए ही हो पाएगा।’ इसके बाद वह रघु की ओर मुखातिब हुआ, ’जाओ तो तुम लटिया के नर्स मैडम को ले आओ, मैं पैसे की व्यवस्था करता हूं।’
    जगेसर घर से निकलकर सीधे रतनलाल के ज्वेलरी शॉप कम गंवईहा शॉपिंग माॅल में पहुंचा। गांव में यही उसके गहने, जेवर, खेत गिरवी रखने का एकमात्र ठिकाना था। क्योंकि उनके एवज में उसे पांच परसेंट ब्याज में पैसा मिल जाता था।
    जगेसर ने देखा कि दुकान में सोनार नहीं सोनारीन बैठी है। वह भी सीधे दुकान में नहीं, बल्कि उससे लगे अंदर के गोदामनुमा कमरे में। एक औरत पानी भरने वाले बर्तन से धान को बड़े कांटा में उड़ेल रही थी। रतनलाल ने मोहल्ले की चोट्टी महिलाओं की सुविधा के लिए ही किराना दुकान और अलग कमरा बनवाया था। सोनारीन की नजर जगेसर की ओर हुई तो उसने हाथ के इशारे से सोनार के बारे में पूछा। सोनारीन ने बताया कि वह माधो के घर गया है।
    जगेसर भी जानता था कि गांव के जितने प्रतिष्ठित पेशे वाले हैं वे माधो की शह पर काले को सफेद करते हैं। चुनाव में वे माधो का एहसान चुकाने में लग जाते हैं। इस बार भी दस परसेंटिहा ब्याज वाले तो पहले दिन से भिड़ गए थे और सोनार भी दुकान छोड़कर पिछले दो दिन से केनवासिन में जा रहा है।
    जगेसर के माथे पर बल पड़ गए। उसे कोई शक नहीं था कि सोनार से भेंट करने पर उसे माधो का भी सामना करना पड़ेगा। घर की परिस्थिति से भी दिमाग भन्नाया था। एकबारगी मन में आया कि क्यों न दस परसेंट वालों को आजमा लिया जाए। उसने गली पर चलता हुआ अपना रास्ता बदल लिया। मनबोधी घर में नहीं मिला और गोबरधन ने इन दिनों ब्याज देना पूरी तरह से बंद कर देने की बात कहकर अपने हाथ खड़े कर दिए। थक-हारकर उसने फिर राह बदली और माधो के घर का रास्ता नापने लगा।
    माधो के घर से निकलकर आते हुए गली में ही रतनलाल मिल गया। ’कइसे जगेसर, बेटा रमाकांत के साथ भिड़ा है, तुम्हारा इधर सेटिंग। अच्छा है भाई तुम्हीं लोगों का।’ उम्र में जगेसर से दस साल से भी ज्यादा का छोटा होगा, लेकिन भगवान की बनाई उम्र की प्रतिष्ठा का पूंजी के ओहदे से क्या मुकाबला।
     ’नहीं सेठ, मैं तो तोरे मेर आवत रहें।’
     जगेसर ने देखा, माधो के बैठक कमरे से पांच-सात लोगों की भीड़ निकलकर उसी की ओर आ रही है। पीछे माधो भी मूछों पर तांव देता हुआ खड़ा था। कमर से भी नीचे बंधी लुंगी के ऊपर थुलथुल पेट उसकी स्थूल काया का नेतृत्व कर रहा था।
     इस मौके पर जगेसर को बाहर खड़ा देखकर अवसर को भांपने वाली उसकी अनुभवी आंखें भी कुछ समय के लिए अनियंत्रित सी हो गई। जगेसर के रूप में पसीने और धूल मिश्रित मैल से सने चिथड़े बनियान और फटी लुंगी में लिपटी काया सामने खड़ी थी, लेकिन इसमें भी उसकी सरपंची की डूबती नइया को थामने का बड़ा मौका उसे नजर आया था। वह सीधे जगेसर और रतनलाल के बीच आकर जगेसर की ओर मुंह करके खड़े हो गया। माधो ने हाथ जोड़ा और कहा, ’पालागी ग भइया, ए दारी बहुते दिन लगा देहे एती बर आए मं। घर मां सब बढ़िया हे न बाल-गोपाल मन।’
    ’भगवान भला करय गौंटिया भाई। तोर आसीरबाद ले सब बने हे।’ आशी0र्वाद देते समय जगेसर को लगा मानों वह पनही पहनकर मंदिर में प्रवेश कर गया हो।
    ’आजकल के दिन में अब हमारा आसीरबाद नहीं चलता भइया, नया जमाना है। दिन-दिन की बात होती है। जिनके पुरखे हमारे जूठन से परिवार पाला करते थे उनके बच्चे आज हमीं को आंख दिखा रहे हैं।’ माधो के अचानक बदले तेवर देखकर जगेसर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। अखर रहा था कि क्यों नहीं उसने रतनलाल का इंतजार कर लिया। कुछ ही देर में उसकी बहू एकदम से जमलोक नहीं पहुंच जाती। हाथ जोड़कर खुशामद करने लगा, ’नहीं भाई, बीधाता के बनाय रीत को न तुम बदल सकते न मैं। और जो इसकी कोशिश करेगा उसके पाप को भोगेगा।’
     ’तुम्हारा बेटा भी तो आजकल रमाकांत का कंधा उठाया हुआ है। भैया तुम्हें एक रहस्य की बात बताऊं? नए लड़कों को जानते तो हो, कह रहे थे कि इन लोगों को मजा चखा दें क्या कका। मैंने ही रोक दिया अपना ही बच्चा जानकर। फिर गरम खून का क्या भरोसा। अपने बेटे को जरा संभाले रखना।’
     थोड़ी जमीन, थोड़ा खर्चा और हक के सीमित दायरे में ही छिप-छिपाकर अपने और अपने परिवार का अस्तित्व बचाते आ रहे जगेसर की जिंदगी में यह पहला अवसर था, जिसमें उसे इस तरह की धमकी मिली थी। वह भी किसी ऐरे-गैरे का नहीं, साक्षात गांव-नरेश गौंटिया का। उसे लगा जैसे पांव से जमीन खिसक गई हो।
     माधो भी जान गया था कि बेचारे की कितनी सी जान और उसे कितना डरा चुका है। बात को संवारने की गरज से बात को पलटा, ’चल भैया होते रहता है ऐसा, जब औलाद बिगड़ जाता है तो उसे घर से निकालते नहीं बल्कि सुधारना पड़ता है। वैसे आज इधर का रास्ता कैसे याद आ गया।’
    ’हमारे यहां बहुरिया की जचकी होनी है। अकलतरा ले जाना पड़ेगा। गाड़ी किराया के लिए पैसे की जरूरत थी इसलिए सेठ को खोज रहा था।’ माधो के संवारने से जगेसर थोड़ा सहज हो गया था।
     इतना सुनते ही माधो का शातिर दिमाग तेजी से घूमने लगा और अचानक बिजली सी कौंधी। कहा, ’हत भोकवा, पहले क्यों नहीं बताया, तुम में और मेरे में कुछ अंतर है क्या। चलो मैं अभी के अभी सोनू को मार्शल लेकर भेजता हूं। एक बात और, पैसा-कौंड़ी की जरा भी चिंता मत करना। जाओ तुम तैयारी करके रखना, मैं दस मिनट में सोनू को भेजता हूं।’
    जगेसर कंधे पर रखे गमछे को अपने दोनों हाथों के बीच रखकर हाथ जोड़कर खड़ा था। हाथ जोड़कर ही वह घर जाने के लिए मुड़ा कि सहसा माधो ने उसे रुकने को कहा। बरी करने के फैसले के अचानक बाद फिर फांसी की सजा मुकर्रर कर दी गई हो की भांति उसका कलेजा सुक-सुक करने लगा।
     माधो ने उसे धीमे स्वर में कहा, ’जगेसर भइया, जचकी का कारबार है, ज्यादा रिस्क मत लो। सीधे बिलासपुर ले जाओ अग्रवाल डाक्टर के पास। तुम्हारी बहुरिया की छोटी बहन का क्या हाल हुआ मालूम है। पामगढ़ के अस्पताल में लाए दो ही घंटा हुआ था फिर भगवान जाने डाक्टर ने कौन सी सुई लगाई कि खून की धार बह गई और दो मिनट के अंदर खेल खतम।’ इस चर्चा के बीच रतनलाल वहीं खड़ा था। माधो ने जगेसर को उससे दूर ले गया और करीब पांच मिनट तक कान में खुसुर-फुसुर करने लगा। जगेसर जवाब में हर पंद्रह सेकंड में सिर हिला देता था।
रघु साइकिल से आना-जाना मिलाकर सोलह किलोमीटर की दूरी चालीस मिनट में तय कर लौटा। ऊपर से आधे रास्ते तक दो प्राणी का बोझ। हाथ-मुंह धोकर और एक गिलास पानी चढ़ाकर जगेसर का इंतजार कर रहा था। तभी एएनएम मैडम ने आकर कहा, ’रघु, बच्चा पैर की ओर से आता दिख रहा है। ऐसा केस बहुत कम होता है। मेरे हिसाब से इसे अकलतरा ले जाओ। घर का कोई भरोसा नहीं। वैसे बहुत चिंता की बात भी नहीं है। पर रिस्क क्यों लिया जाए।’
    रघु का हृदय धक्क से रह गया। माथा दर्द से भन्नाने लगा था। देह भी कुछ समय के लिए सुन्न होने लगा था। घबराकर पूछा, ’दीदी, घबराने की बात तो नहीं है।’
    एएनएम ने सांत्वना देते हुए कहा, ’इसीलिए कहने से डरती हूं, अस्पताल के नाम से इतना घबड़ाते क्यों हो। यह तो केवल एहतियात के लिए है। चाहो तो घर में भी पैदा हो सकता है, लेकिन कभी-कभार ज्यादा ब्लीडिंग का डर रहता है, इसलिए खतरा मोल लेना ठीक नहीं।’
    सहसा द्वार पर जगेसर के आने की आहट हुई। चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। खिचड़ी बाल बाकी दिनों से कहीं ज्यादा बिखरे हुए थे। मुंह को देखकर ऐसा लग रहा था कि उसने किसी खट्टे पदार्थ को मुंह में भरकर म्लान कर लिया हो। फिर भी गजब की फुर्ती दिखाते हुए वह रघु के पास गया और बोला, ’माधो का मार्शल आ रहा है। तुम्हे अभी के अभी बिलासपुर जाना है। अग्रवाल के यहां तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ेगा। सोनू साथ में रहेगा। उसे पूरा पता है।’
    ’क्यों बाबू, इतना घबराने की बात भी नहीं है, अकलतरा में भी सभी काम हो जाएगा। फोकट का पैसा नहीं आया है। फिर इतना पैसा आखिर आया कहां से।’ रघु ने कहा और एक ही पल में सारी कूटनीति, प्यादे को घेरने के लिए बिछाई बिसात सब-कुछ ताड़ गया। विपत्ति की घड़ी में माधो को क्या सूत्र मिल गया है? दोष भी तो हमारा ही है। गरीबी और असहायता का दोष, जिसका दमदार और चतुर आदमी इंतजार ही करता है। मतलब चुनाव की अंतिम वैतरणी से उसे सिरे से अलग करने की रणनीति।
    ’बस अब तुम्हारा बहुत चल गया। देख लिए कि भैंसों की लड़ाई में अपनी ही बाड़ी उजड़ती है। अब मैं जैसा कह रहा हूं वैसा ही करना पड़ेगा। आज के दिन में एक भी आदमी इस गहने को रखने वाला नहीं मिला। भगवान भी ऊपर से देख रहा है। उसके बनाए कायदे को तोड़ने का हक हमारे जैसे लोगों के बस का नहीं है।’
    जगेसर ने अपना फैसला सुना दिया था। सुना क्या दिया था बल्कि थोप दिया था। रघु चाहता तो झिक-झिक को थोड़ा और लंबा खींच सकता था। लेकिन यह वैसा वक्त नहीं था। फिर भी एक बार और बोला तो जगेसर ने भी अपना तीर चला दिया। बोला, ’जब तक मैं घर में रहूंगा तब तक मेरा चलेगा। अपने ही मन का करना है तो एक काम करो। मुझे जहर दे दो, सब टंटा दूर। फिर करते रहना अपनी सियानी। न कोई रोकने वाला रहेगा न टोकने वाला।’ इस अंतिम ब्रम्हास्त्र का तोड़ रघु के पास भी नहीं था।
     दस मिनट में माधो का मार्शल द्वार पर खड़ा था। अनमने भाव को मन में और बाहों में रतना को समेटे उसके पिछले हिस्से में बैठ गया। पैर को सहारा देकर पीछे सोनसरहीन बैठ गई और गाड़ी बिलासपुर के लिए निकल पड़ी।
    नर्सिंग होम में व्यवस्था ऐसी थी जैसे उन्हें पहले से ही इस केस की जानकारी हो। अस्पतालों की महिमा मोटी फीस और डाॅक्टर के तमगे से होती है। गरीबों को जहां ज्यादा गरियाया जाता है, अमीरों की आमद वहीं होती है। अग्रवाल नर्सिंग होम की गिनती भी इसी में होती है। वह तो माधो का परसाद था कि रघु को वहां कदम रखना नसीब हो रहा था। रतना के लिए मुश्किल से बेड नसीब हुआ। खैर यहां जितनी मुश्किल से बेड मिलता है, उससे मुक्ति भी उतनी ही मुश्किल से हो पाती है।
    कुछ घंटे के दर्द और इंतजार के बाद रतना ने स्वस्थ लड़के को जन्म दिया। नार्मल डिलीवरी हुई थी, जिसकी उम्मीद रघु को पहले से ही थी। छुट्टी तो उसी दिन देर रात तक हो जाती, लेकिन यहां की डाॅक्टर थी जो दो मिनट के लिए आती और फिर गायब। अगली सुबह भी रिसेप्शन में बार-बार बताया जाता कि डाक्टर साढ़े दस बजे आएगी। पशोपेश में घिरा रघु बार-बार आकर घड़ी देखता और रिसेप्शन की ओर दौड़ा चला आता।
     सोनू ने रात में ही डाक्टर से भेंट करके गुप्त बातें की थी, जिसे सोनसरहीन ने सुन लिया था। पर जगेसर और रघु के बीच खटपट और न बढ़ जाए इसी डर से बात को मन में ही दबा ली थी।
     दोपहर के बारह बजे डाक्टर आई और रघु से छुट्टी की बात सुनकर बिफर गई, ’तुम गांव वालों की इसी हड़बड़ाहट को देखकर तुम लोगों का इलाज करने का मन नहीं करता। अरे भाई, देखने में तुम्हारी घरवाली भले नार्मल दिख रही है। तुम्हें क्या, जब उसके शरीर को टाॅनिक, फाॅलिक एसिड और आयरन की जरूरत थी तब बेचारी को खेती में रगड़वाते थे। अब सब कुशल मंगल दिख रहा है तो जल्दी ले जाने की पड़ी है।’
    गली-मोहल्ले में लाख हेकड़ी करने वाला रघु आज डाक्टर के आगे बेबस था। डाॅक्टर सही बोले या गलत, बातों का सिरा ऐसा बांधते हैं कि लाख बार भी उनकी बातों में नहीं आने का संकल्प लेकर जाने वाला भी डर से बंध जाता है। वह मन मसोसकर रह गया। हार की एक वजह उसकी मजबूरी भी थी, क्योंकि रकम उसके हाथ में फूटी कौंड़ी भी नहीं। सब-कुछ सोनू पर निर्भर था। फिर भी वह शाम को अड़ ही गया और डाक्टर के उल्टा-सीधा सुनाने के बाद भी नहीं माना तो छुट्टी मंजूर कर ली गई। कागजी कार्रवाई होते-होते रात के दस बज गए, घर पहुंचने में सवा ग्यारह।
     जच्चा-बच्चा को भला-चंगा देखकर घर-गृहस्थी और अपने पहले बच्चे के आगमन से रमा रघु का मन फिर से गांव की चुनावी राजनीति और परिणाम पर सुबह से ही टिक गया था। सबसे बढ़कर तो खुद उसकी मेहनत और इज्जत दांव पर लगी थी। फिर अरमान दांव पर हो तो उसे मोह-माया नहीं डिगा सकता।
    रात में मार्शल चलना शुरू किया था तभी से रास्ता उसे बोझिल लगने लगता था। उसका बस चलता तो लालखदान फाटक को वह वहीं मसलकर रख देता। कभी वह अपने बच्चे के माथे को चूमता तो कभी सीट के गद्दे को हथेली से मारता। कई दफा सोनसरहीन ने तो कभी रतना ने बच्चे और उसके स्वास्थ्य के बारे में कई सारी बातें कहीं, लेकिन वह सुनने की अवस्था में नहीं रह गया था।
    घर पहुंचने पर उसने रतना और शिशु को उसके कमरे में लिटाने के बाद सोनू को विदा करना भी जरूरी नहीं समझा और दौड़ते-हांफते स्कूल में बने पोलिंग बूथ की ओर भागा। पहुंचा तो देखा पोलिंग पार्टी पेटी समेत सारे असबाब समेट बस में सवार हो गए थे। उसके सामने से ही हार्न बजाती बस आगे निकल गई।
    रघु ने आसपास नजर घूमाई तो उसे गांव की इतनी बड़ी खबर बताने वाला एक आदमी भी नहीं दिखा। रामचरन के चौपाल में बारह बजे तक भजन मंडली भजन गाती है। वहां भी आज सन्नाटा पसरा था। कोने में पड़े राख पर लेटा कुत्ता अकेले कुनमुना रहा था। अब वह डग भरता हुआ सीधे रमाकांत के घर की ओर निकल पड़ा। घर के सामने भी सन्नाटे में सनसनाहट की गूंज थी। उसने चुपके से घर की कुंडी पकड़ी और जोर-जोर से खटखटाया। रमाकांत की अम्मा तखतपुरहीन ने आकर दरवाजा खोला। रघु ने अंदर झांककर देखा तो रेंगान के एक कोने में गोरसी सुलग रही थी। कंडे से निकलने वाला धुआं चारोंओर फैल रहा था। फटा बैनर कोने में पड़ा था। पांपलेट के टूकड़े इधर-उधर बिखरे थे। एक बड़ा टूकड़ा जग के पानी में आधा तैरता हुआ आधा भीगा आधा सूखा था।
    ’अभी तुम्हें समय मिला रघु, जब सारा खेला हो गया तो।’ तखतपुरहीन ने उलाहनाओं के साथ रघु को घूरते हुए कहा।
    ’काकी क्या बताऊं आपको कि कैसी मुसीबत में फंसा था। तन उधर तो मन इधर लगा था।’
    ’मैंने पहले ही कहा था बेटा कि चुनई हमारे बस की बात नहीं है। फिर तुम लोगों को धुन चढ़ा था। पैसे का क्या है, मेरे बच्चे के मुंह को देखने की हिम्मत नहीं हो रही है। क्या मुंह बनाया है, रमाकांत के बाबू के जाने से जितना दुख हुआ था उससे दस गुना दुख उसके मुंह को देखकर हो रहा है। क्या बताऊं...’ हिचकते-सुबकते तखतपुरहीन ने इतनी बात कही और लुगरा के पल्लु से मुंह को ढंकते हुए उसने आगे की बात आंसुओं में बहा दी। रघु को भी सुनने की देरी थी कि वह भी गश् खा गया। सीधे रमाकांत के कमरे की ओर दौड़ते हुए पहुंचा।
    ’रमाकांत..., रमाकांत। उठ भाई, बारह तक नहीं बजा है और सुतना सुत रहे हो। उठ बता क्या-क्या हुआ कल रात और आज पूरे दिन।’
    ’अब क्या बात होगी यार। जो होना था सो हो गया।’
    ’अकलतरा से सामान लाना था उसे लाए?’
    ’तुम नहीं थे तो कोई जाने को तैयार नहीं हुआ यार। उल्टा साले लोग मुझे भड़का दिए। सभी तरफ पैसा बहा डाले हो। अब और मत उतरो बोल दिए। तो मैं भी कमीज कपड़े की जगह गमछा ले आया वो भी जिद करके। फिर अखर रहा है बहुत़।’
    ’खाल्हेपारा गए थे?’
    ’गए थे। फिर माधो पहले ही पहुंच गया था तो हम लौट आए।’
    ’कितने अंतर से हार-जीत हुई?’
    ’ज्यादा नहीं यार मात्र दो सौ तीस वोट। भगवान कृष्ण के बिना अर्जुन महाभारत जीत सकता है क्या? बस समझ लो मेरी जीत पक्की थी, अगर तुम साथ होते।’
    ’और मैं भी तुम्हारे साथ रहता यार अगर मेरे पास पैसा होता तो।’
    ’तो सारा खेला पैसे का ही है, नहीं...?’
    ’पैसे से बढ़कर पैसे की गुलामी। मेरा जी जानता है। प्रचार नई हो पाया अलग बात, अपना वोट तक नहीं डाल पाया यार। इसी बात का दुख है। फिर हिम्मत रख, आने वाले चुनाव में ऐसा दिन नहीं देखना पड़ेगा।’
    ’आने वाले सरपंची चुनाव को पांच साल लगेंगे, ले ये एक पउवा बचा है उसे बना फटाफट।’
   रघु रमाकांत के हाथ से दारू का बोतल लेकर कांच के गिलास में उड़ेलने लगा। कुछ ही देर में कमरा कसैले गंध से भर गया। एक सुरुर के बाद रमाकांत एक ओर लुढ़क गया तो रघु को दो पैग के बाद भी नहीं चढ़ रही थी।
    ...बहरहाल, पिछले महीने रमाकांत मुझसे मिला था। अब वह गांव की राजनीति से कोसों दूर बलौदा ब्लाॅक के किसी गांव में शिक्षाकर्मी बन गया है।
     एक और बात सुनकर मैं अवाक् रह गया। गुलाम पसंदी और पैसे के गुलाम मेरे भी शब्द थे, लेकिन दसवीं फेल रघु ने जिस परिस्थितिजन्य गुलामी की बात कही थी और जिसे उसने झेला भी था, वह बात मैंने कभी सोची ही नहीं थी। न रमाकांत के तारनहार रघु को लेकर और न खांटी वोटर रघु को लेकर।
                                                            ---------------

कश्मीर मांगोगे तो साला चिर देंगे

मोबाइल, इंटरनेट, टेक्नोलॉजी, ऊर्जावान युवा... विकसित होता दिखाई देता देश. पर हम आखिर जा कहाँ रहे हैं. क्या ऊर्जा समाज को आइना दिखाकर रोशन कर रहा है या मोहरा बनकर सिमट जाना चाह रहा है. दूसरी ओर, देश में कुछ ऐसे हिस्से आज भी बचे हुए हैं जिन्हें मुख्यधारा वाले तो पिछड़ेपन की निशानी मानकर कन्नी काट लेते हैं, लेकिन बदलाव से दूर कुछ बातें ऐसी हैं जो वहां के लोगों को अँधेरे में रौशनी देती हैं. या यों कहें कि अन्धेरा ही उनकी सच्ची रौशनी है. दोनों पहलुओं को समेटने की कोशिश है कश्मीर मांगोगे तो साला चिर देंगे. आपकी प्रतिक्रिया के इन्तजार में...

(1)
          ट्यूनिशिया की सड़क पर हजारों की तादात में काले लिबास में लिपटी गोरी, मटमैली और गेहुंई काया के भीतर गहराइयों में गुस्से के लावे उफन रहे हैं। उनमें अमेरिका परस्त हुकुमत द्वारा जरूरी सेक्यूलर सिस्टम को तवज्जो देने को लेकर तरस से लिपटी खिन्नता है और अल्लाताला के वारिश होने का अभिमान भी बराबर उछालें मार रहा है। अंदर की तड़प आंखों से लालिमा के रूप में और जुबान से झर रहे हैं। नारा ए तकबीर, अल्लाहो अकबर की गूंज वातावरण को जोश से लबरेज कर रही है।
          झुंझलाती तश्वीरों और बीच-बीच में पुअर सिग्नल के साथ पटल से गायब होते दृश्य के एक कोने में अलजजीरा का मोनो अटका हुआ है। बेतरतीब बिखरे सामान और सीलन से उठती कसैली गंध के बीच रमजान की जर्द आंखें ही कमरे की इकलौती चीज है जो स्थायित्व पा रही है और टीवी के इन बदलते दृश्यों पर बराबर टिकी हुई हैं। इसी स्थायित्व की भेंट प्लेट में रखे ठंडा हो रहे पाश्ता के टुकड़े चढ़ रहे हैं और बेहद धीमी गति से रमजान के मुंह में जा रहे हैं, जिन्हें उसकी अम्मी रुखसार बानो ने बड़ी जतन से अपने बेटे और नए नवेले कंपाउंडर बाबू के लिए सुबह-सुबह ही बनाई हैं। टीवी पर ट्यूनिशिया की झुंझलाती तश्वीरें अभी भी चल रही हैं, लेकिन रमजान का ध्यान न जाने क्यों दो साल पहले सिटी बस से उतरकर गुरु घासीदास सेंट्रल यूनिवर्सिटी के कैंपस में उसके साथ दाखिल हो रहे एक कश्मीरी छात्र के धुंधले हो चुके चेहरे पर टिक गया।
          ’देख लेना भाईजान, तुम्हारी सरकार देखती रह जाएगी और हम कश्मीर को आजाद करा लेंगे। अभी पत्थर का जोर देखे हैं, एके-47 का स्वाद चखना बाकी है।....तो क्या सचमुच भूल चुका है हमारा कौम वो औरंगजेब की तलवार, लीग की भीड़ में बलखाती भुजाएं। या दबा दिया है काफिरों ने 47 से अब तक के नए इतिहास में पल-पल नोचते नारों और तानाकशी से। ऐसा ही विचार रमजान के मन में उस दिन उठा था जब कश्मीरी छात्र ने ये बात कही थी। तब काफिर शब्द का इस्तेमाल उसने मन में ही सही पहली बार ही किया था।
          उसका क्लासमेट जनार्दन पीठ के ठीक पीछे झुककर जय श्रीराम करके दहाड़ता हुआ उठता था, तो वह उसे मित्रता के नाम पर भूल जाता था। बीते छह दिसंबर को शौर्य दिवस मनाती कस्बे की सड़क पर बजरंगियों की बाइक रैली निकली। तभी एक निहायती कमीने शक्ल वाले लड़के ने सीट से उछलकर पुट्ठे का भोंपू बनाकर उसके कान के पास ही जाकर जय श्रीराम की दहाड़ मारी थी। उस दिन मन में आया कि क्यों न उसके सिर पर जोर का एक पत्थर मारा जाए। उसे लगने लगा था कि इन लोगों को बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराने के लिए मुगल सल्तनत के खंडहर होने से ज्यादा माकूल उनके उत्तराधिकारी मुसलमानों के मर चुके जज्बात रहे होंगे। हमारी कौमी गैरतमंदी की लाश को ही इन लोगों ने सीढ़ियां बनाई होंगी।
          एकाएक रमजान की नजर कलाई में बंधी घड़ी की ओर हुई, जिसकी सुईयां सुबह के दस बजा रही थीं। उसने खयाली दुनिया से वास्तविक दुनिया में कदम रखे। वैसे आजकल उसे खयाली दुनिया ही सच्ची दुनिया लगने लगी है। वास्तविक दुनिया ने उनके जैसों को इस छोटे कस्बे में तंग गलियां ही दी है, जिसमें दोनों ओर की श्रीराम निवास, कृष्ण कुंज लिखी इमारतों के आगे उसकी बिरादरी वालों के पान ठेले, मैकेनिक शॉप, ऑटो पार्ट्स की दुकानें ही ले-देकर फल-फूल सकती हैं। बड़े बिजनेस के लिए बैंक से लोन की उम्मीद आवेदक के नाम में मोहम्मद या खान जैसे उपनाम पढ़कर प्यून के सिकुड़ते भौंहे देखकर बड़े बाबू के टेबल पर पहुंचने से पहले ही टूट जाती है। खुद उसकी अनुकंपा नियुक्ति के समय के ढेरों चोचले वह कैसे भूल सकता है। 
          रमजान ने अपनी बाइक निकाल ली तो रुखसार ने भीतर से आकर उसके हाथ में रोटी और तरकारी से भरी टिफिन थमा दी। वह अमरैय्या भाठा को कस्बे से जोड़ने के लिए बनी नई सड़क के किनारे हाल ही में शिफ्ट हुए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जाने के लिए आगे बढ़ा। रोज की तरह एक बार फिर वहीं इमारतें उसे चिढ़ाकर उसके कौम के दोयम दर्जे पर हंस रही थीं।
          इधर रुखसार मकान के सामने अहाते के बीच लगे लोहे के गेट पर ठुड्डी टिकाकर रमजान को अस्पताल जाते हुए पुरसुकुन होकर देखे जा रही थी। उसे अपने बेटे के अंदर मची उथल-पुथल का रंचभर भी भान नहीं था। रहे भी क्यों, रमजान के अब्बा के इंतकाल के बाद भी उसके जीने का एकमात्र और बड़ा सहारा रमजान ही तो था। वरना वह तो टूट ही गई थी पूरी तरह से। आंसूओं के सैलाब के बीच उसके सिर को अपने कंधे पर टिकाकर बूढ़ी खाला ढांढस बंधाती थी तो वह और दहाड़ें मारकर रोती थी। देख, सून रुखसार, इधर देख मेरी ओर, शब्बीर मरा नहीं है, वो देख, रमजान की आंखों में वो अभी भी जिंदा है। हंस रहा है तुम्हारी रोनी सूरत देखकर।तब खाला की इस ढांढस बंधाती आवाज का जरा सा भी असर नहीं होता था। मगर धीरे-धीरे उसने रमजान के अब्बा को रमजान की आंखों में जिंदा देखना सीख गई थी। 
          सरकारी अस्पताल में रेडियोलाजिस्ट पति के रोड एक्सीडेंट में हुई मौत ने मानों रुखसार को जीते जी मौत दे दी थी। उसके बाद उसी अस्पताल में कंपाउंडर के पद पर रमजान की अनुकंपा नियुक्ति ने ऐेसी जिंदगी दी कि अब वह खुद की हिफाजत में जी-जान से जुट गई थी। कभी बिगड़ी तबीयत को खुद पर हावी होने नहीं देती, क्योंकि उसे डर था कि बेटे की ऊंची उड़ान में उसकी तबीयत हावी न हो जाए। हर काम को बड़े करीने से अंजाम देती थी, ताकि रमजान को कभी उसकी फिक्र में समय और खयाल जाया न करना पड़े। बस रमजान के बेतरतीब कमरे से वह हार मान चुकी थी। इस बात के लिए वह टोकती नहीं थी बल्कि हर दूसरे दिन आकर कमरे को सजा देती थी। करीने वाली बात उसने रमजान के अब्बा के गुजरने के बाद ही अपनी जिंदगी में लाई थी। वरना उसे तो किसी बात की जरा भी परवाह नहीं रहती थी। बेटा कौन-से क्लास में है, अच्छा रिजल्ट आया या न आया, उसका दाखिला कस्बे के कॉलेज में कराया जाए या जीजीयू में, प्लेन कोर्स ठीक रहेगा या ओनर्स जैसी बात तो वह जानती तक नहीं थी।
          रमजान के दिमाग में इन दिनों चल रहे उथल-पुथल भी रुखसार से कोसों दूर थे। कोटमी सोनार जैसे गांव में पैदा हुई थी, जहां उसने हिंदू-मुसलमान को एक जाति के रूप में ही जाना था, कौम के रूप में नहीं। वह भी बिना किसी भेदभाव के। शादी-ब्याह, मरनीए तेरही या चालीसवां सभी में परजातक के रूप में क्या हिंदू, क्या मुसलमान सभी एक पंगत में बैठते थे। त्योहार तक को तो आपस में मिलजुलकर मनाना नहीं भूले थे कोई। शहर में जरूर रहा होगा, क्योंकि इतिहास तो पढ़-लिखकर ही कुरेदा जाता है। फेसबुक, वाट्सएप और गुगल करने की कला विकसित होने के बाद ही आत्माभिमान तलाशने का शगल शुरू हुआ था, जो दूर के नफरतों, झगड़ों-टंटों को आईने की तरह रमजान जैसों के सिर में खपाने लगा था....
(2)
          ....सिर खपाना तो कोई सेमरवा पंचायत के आश्रित ग्राम बुटेना के चमरू पइकहा (मोची) से सीखे। घंटों बैठकर खुरपा से लाश की खाल ऐसे उधेड़ता है कि जरा सा भी चमड़ा लाश पर नहीं छूटता। वह लाश चाहे गाय का हो, बैल का हो या भैंसे का, चमड़ा भी कटान को छोड़कर इस तरह निकलता है कि दोबारा लाश में फीट कर दे तो किसी को पता भी न चले कि खाल उधेड़ी जा चुकी है। वैसे वह लोगों की खाल उधेड़ने में भी माहिर है। उसके लिए न राउत लगता है, न गोंड़, न केंवट और न सतनामी। जुबान की छुरी सब पर महीन चलती है। पहले तो वह किसी की परवाह ही नहीं करता था। रामभरोस केंवट के आजा बबा जग्गु गौंटिया ने ही चमरू के बाप मंगरू और उसकी घरवाली को रसेड़ा गांव से लाकर बसाया था, ताकि गांव में जचकी के समय नेरूहा (नाल) काटने, गाय-भैंस मरे तो उनका निपटारा करने जैसे काम हो सके। 
          जग्गु बबा के परसाद से ही चमरू का खानदान चढ़-बढ़ गया था। हालांकि पूरे खानदान ने कभी इसका बेजा इस्तेमाल नहीं किया। गांव में छुआछूत तो है, लेकिन बस रिवाजों में। दूसरी जात वालों से चमरू का खाना-पीना नहीं होता। छट्ठी-मरनी में सूखे सामानों का लेन-देन होता है। गांव में लड़ाई-झगड़ा तो होता है, लेकिन दुश्मनी एक सीजन से ज्यादा नहीं टिकती। जरूरतों से भेद मिट जाते थे।
          जग्गू बबा ने गांव में मंदिर से ज्यादा महत्व तालाबों को दिया था। पनभरिया, जग्गू डबरी के पाठ पर और लीलागर नदी के खड़ में बारोमहीना सब्जी लगती थी। इसलिए लोगों ने बस हाड़तोड़ मेहनत ही जाना था और धरम-करम को कुटीघाट मेले में मंदिर दर्शन तक ही सीमित रखा था। ढेड़हा बिहाव का रिवाज (दूल्हा-दुल्हन के दीदी-जीजा व बुआ-फूफा द्वारा रश्म निभाने की परंपरा) होने से सभी जात वालों की शादी-ब्याह तक बिना पंडित के निपट जाता था। इसी बात को लेकर दस खेत पार गाड़ा-रवन (भैंसागाड़ी चलने से बने निशान वाली पगडंडी) से जुड़े सेमरवा के लोग बुटेना को छोट जात वालों का गांव समझते थे और अपने गांव का हिस्सा भी शरीर में कोढ़ की तरह मानते थे।
          जिले का अंतिम गांव होने से बुटेना बरसों से कटा हुआ था और बाहरी प्रोडक्ट के रूप में सरपंच मनबोध ही पांच साल में एकात बार वोट बटोरने के लिए नजर आ जाता था। नदी पार बिलासपुर जिला को जोड़ने के लिए लीलागर में रपटा और प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत सेमरवा और बुटेना के बीच पक्की सड़क बनने से बदलाव जरूर आया था। सेमरवा में मनबोध को चुनौती देने वाली नई जमात के लोग तैयार हो जाने पर उसने खुद को बुटेना पर केंद्रित कर दिया था। सुंदर उसका खास चेला बन गया था। मनबोध की दखल से गांव में दुर्गा बैठने लगी थी और पूजा-पाठ के लिए पंडित ने पहली बार गांव में कदम रखे थे। इसी के चलते गांव की तासीर भी कुछ-कुछ बदलने लगी थी। शायद बदल नहीं रही थी, बस मनबोध के दबाव में बदलाव जैसा जरूर दिख रहा था। हालांकि चमरू से उनकी दूरी जरूर बढ़ने लगी थी और दूसरी दलित जातियों के प्रति भी मन में वैमनस्य जगह लेने लगी थी। अब चमरू के साथ-साथ उन लोगों को भी अपने दलित होने का दर्द महसूस होता जा रहा था।
          उस दिन, रात में अच्छी बारिश होने से सुबह का मिजाज बड़ा खुशनुमा था। सूरज की किरणें भरकनहा भाठा की हरी-हरी घास की नोंकों पर जमी ओस की बूंदों के साथ सतरंगी खेल खेल रही थीं। सेमरवा और बुटेना के बीच भाठा के एक किनारे पर ट्रांसफार्मर जैसे लोहे के दो खंभे एक साथ खड़े थे। उसी से सटकर एक अच्छी-खासी मोटी बलही बछिया औंधियाई पड़ी थी। चमरू रोज की तरह अपनी साइकिल के हैंडल में झोला लटकाए अंदर खुरपा और टांगी (कुल्हाड़ी) रखे और पीछे कैरियर में बोरी को चिपे सड़क के आजू-बाजू नजर हांकते ऐसे ही किसी मरे जानवर की तलाश में गुजर रहा था। औंधियाई बछिया की हट्टी-कट्टी काया को देखकर पहले तो उसे यकीन नहीं हुआ कि वह मर चुकी है। हां सिर को बाकी शरीर के समानांतर जमीन से सटे होने के चलते जरूर लगा कि यह उसके काम की है।
          साइकिल को किनारे लगाकर चमरू ने मुआयना करने की सोची और बछिया की पूछ को जैसे ही हाथ लगाया पूरा शरीर झनझना गया। वह दूर छिटक गया। समझते देर नहीं लगी कि खंभे के करंट से ही बछिया की जान गई है। तभी उसने महसूस किया कि बछिया का एक पैर खंभे से तब भी सटा था, जब उसने पूंछ को पकड़कर घसीटा था। थोड़ी सी हरकत में वह खंभे से अलग हो गई थी। पर चमरू जान का खतरा मोल नहीं लेना चाह रहा था। उसने अपनी टांगी का सहारा लिया और बेंठ का एक सिरा पकड़कर लोहे वाले हिस्से को बछिया की टांग पर फंसाकर उसे पलटा दिया। अब बछिया सुरक्षित स्थान पर आ गई थी। फिर वह जोर लगाकर उसे खंभे से और दूर ले गया।
          काम शुरू करने से पहले चमरू ने भरपूर नजरों से बछिया को देखा तो उसकी बाछें खिल गईं। हफ्तों क्या महीनों बाद उसे ऐसी ताजी तरकारी मिलने जा रही थी। उसने अपनी लुंगी खोलकर दोबारा बांधा और उसके निचले हिस्से को भी कमर में लपेटकर घुटनों से ऊपर चढ़ा लिया, ताकि हाथ सनने के बाद झिक-झिक न करना पड़े। पूरी तैयारी करने के बाद बछिया के सिर पर हाथ रखकर मां लक्ष्मी का सुमिरन किया। उसके काम पर भले कोई कैसा भी नाक-मुंह सिकोड़े, लेकिन उसे अपने काम पर गर्व होता था। किसान गाय से दूध और बछिया लेने तक और बैल से काम लेने तक पूजता है। मरने के बाद घसीटते हुए भाठा के किसी कोने में बास मारने के लिए डाल देता है। कुत्तों और गिद्धों के साथ एक वही तो है जो उसका निपटारा करता है और गउ माता को छिछालेदर होने से बचाता है।
          धूप अब बढ़ने लगी थी। रात की बारिश के चलते वातावरण में उमस भी भरपूर मात्रा में घुल चुकी थी। चमरू खुरपा से बछिया के पेटौरी के पास थन के ऊपर से चीरा लगाकर गर्दन तक फाड़ने के बाद खाल उधेड़ने में तल्लीन था। तब तक मोहल्ले के दो-तीन कुत्ते भी अपने हिस्से का बंटवारा लेने आ चुके थे। हालांकि इंसान के अतिक्रमण से उनमें मायूसी थी। एक काले कुत्ते ने जरूर विद्रोह की मुद्रा में आकर बछिया के पैर को दांत गड़ाकर खींचने की कोशिश की। चमरू ने खुरपा उठाकर उसे ललकारा। हालांकि कुत्ते भी जानते थे कि चमरू पेट का पोटा निकालकर हमेशा की तरह उनकी ओर जरूर फेंकेगा, लेकिन सब्र आजकल के इंसानों के बस की बात नहीं रही। वे तो कुत्ते ठहरे।
          अब सेमरवा के लोगों के खेत-खार निकलने, गाड़ी चढ़ने के लिए नदी पार जयरामनगर स्टेशन जाने और वहां के मार्केट से खरीदारी करने का समय हो गया था। जो भी गुजरता वह बिना दुर्गंध के ही नाक-मुंह सिकोड़ते और घिनाते हुए जगह को पार करते जाता था। यही बात चमरू की समझ में नहीं आती थी। सड़े मांस तो ठीक है, ताजे मांस से उन्हें क्यों घिन आती है। उनमें से कई अपने हाथ में छूरा-तब्बल से बकरे का गर्दन एक झटके में उड़ा देते हैं। और तो और काटने के बाद मांस के लालची पोटा धोने तक जाते हैं। उसने तो यहां तक सुन रखा है कि शहर के बड़े-बड़े होटल वाले तक पोल्ट्री-फारम से मरे मुर्गे को आधे से भी कम कीमत में लाकर लजीज से लजीज तरकारी बनाते हैं। लोग खुद को ऊंचा उठाने और दूसरों को दबाने के कायदे को धरम की गठरी में कसकर बांधते हैं। जहां अपनी चोटी फंसती दिखे वहां से खिसक लेते हैं।
          तल्लीनता की कोशिश के बाद भी आज चमरू के काम में वह सफाई नहीं आ पा रही थी। जल्दी घर जाकर बहुत से काम निपटाने हैं। उसकी पत्नी सुखमनी दो दिन से बीमार है। डाॅक्टर ने ठंडा खाने और छूने से मना किया है। खाना तो उसका काम है। पर घर का काम तो चमरू को ही निपटाना होगा। तभी जयरामनगर से लौट रहे सेमरवा के चुन्नीलाल के बेटे मन्नू ने अपनी साइकिल रोक ली और बछिया को घुरकर देखने लगा। चमरू ने संभलते हुए मन्नू की ओर देखा तो वह आगे बढ़ गया। चमरू भी नजरअंदाज करते हुए अपने काम में लगा रहा।
करीब आधे घंटे बाद हो-हल्ला सुनकर उसका ध्यान भंग हुआ। पलटकर सड़क की दिशा में देखा तो पंद्रह से बीस लोगों की भीड़ हाथ में लाठी, कुल्हाड़ी लिए उसी की ओर चली आ रही थी। उसके ठीक विपरीत दिशा में नरवा खार पड़ता है। उसने अंदाजा लगाया, फिर कोई दूसरे का पेड़ काटते पकड़ा गया होगा। सेमरवा का बंशी ही होगा। चाहे सेमरवा हो या बुटेना, जिस गांव के खार में छेरी (बकरी) चराने जाए और वहां से तुतारी के लिए एक लकड़ी की निशानी न लाए तो उसका नाम बंशी नहीं। खार सुना दिखा नहीं कि छेरी को तिवरा, अंकरी में ढील देता है और खुद सोझ, गुदार लकड़ी की खोज में जुट जाता है। सेमरवा में नवधा-रामायण बंशी के बिना होता नहीं। वहां दोहरा चरित्तर के बिना तो किसी की जय-जय ही नहीं है। चमरू बंशी के बारे में सोचता ही रहा और भीड़ उसके आसपास ही आकर कुछ दूरी बनाकर ठिठक गई। सबकी आंखों में जुगुप्सा भाव उभर आया था और भौंहें खींचकर एक-दूसरे के पास आने से माथे पर सिलवटें उभर आई थीं।
          सबसे आगे खड़ा मनबोध सिंह का बेटा भानूप्रताप, जिसने बिलासपुर के सीएमडी कालेज में चार साल पढ़ने के दौरान युवा नेता संजू तिवारी की शागिर्दी की थी। उनके कैंपेन का नतीजा था कि संजू युवा संगठन का जिला प्रमुख बन गया था, कमर से बेल्ट निकालकर हवा में लहराने लगा। चमरू सकपकाकर कमर झुकाए खड़ा हो गया था। हाथ से खुरपा भी छूट गया था।
          ’एती आ बे साले चमरा नीच कहीं के!मारे गुस्से के भानूप्रताप के हाथ-पैर झनझना रहे थे। बिलासपुर में रहने के दौरान वह यूथ ब्रिगेड के साथ गौरक्षा मंच से भी जुड़ गया था। वापस गांव आने के बाद लोकल नेता दीनदयाल तिवारी की चमचई कर रहा था। मंच से जुड़ने के बाद से वह गउ माता का परम भक्त बन गया था और गांव आकर भी आसपास के गांवों के दीनदयाल के चमचों की अलग फौज बना ली थी। वे सभी उसके साथ खड़े थे। हालांकि उसके घर की बलही बछिया उसके जवान होते तक बारह पिला जमनाकर और घरभर को हजारों लीटर दूध पिलाकर बुढ़िया गई थी पर उसे पहचानता तक नहीं था। 
          ’हरामखोर अतका सउख हे ताजा मांस खाए के त अपन डउकी (पत्नी), लइका के घेंच (गला) ल न पउल दार (काट डालो)। गउ माता को जिंदा काटते तेरा हाथ भी नहीं कांपा रे हरामी!झटके के साथ भानूप्रताप ने बेल्ट घुमाकर चमरू के बदन को सड़ाक से लपेटे में लिया। चमरू वहीं पर लड़खड़ाकर औंधे मुंह गिर पड़ा। होंठ और दाएं गाल पर लहू चुहचुहाने लगा था। इस बीच बछिया के मालिक और सुंदर के कका-बड़ा वाले भाई मनहरन को आगे कर दिया। मनहरन व दो-चार और लड़कों ने अपने हाथ की खुजली मिटाई। हालांकि छुआ लगने के फेर में हाथ किसी ने नहीं लगाया, बस लाठी-डंडे से काम चलाया। एक जोर का डंडा चमरू के कनपट्टी पर लगने से धारा-प्रवाह खून बहने लगा था।
          ’आदमी औं बेटा महूं, लक्ष्मी ल जियत काटके पांप नई बोहंव।चमरू की मुश्किल से भर्राई हुई सी आवाज निकली थी।
          ’नक्टा... स्साले... पापी कहीं के, बेटा किसको बोला बे! हत्या करके लक्ष्मी बोलते भी शरम नहीं आती क्या तेरे को?’ मार-मारके थक जाने के बाद चमरू के शब्द सुनकर मानों भानूप्रताप फिर से ऊर्जावान हो गया और दो-चार बेल्ट और जमाया। गाय को लक्ष्मी कहने से ज्यादा गुस्सा उसके बेटा कहने से आया था।
          भानूप्रताप के नेतृत्व में लोगों ने तय किया कि ट्रेक्टर मंगाकर बछिया और चमरू को लेकर थाने जाया जाए और सीधे तीन सौ दो की धारा लगवाई जाए। धार्मिक उन्माद फैलाने की धारा एक सौ तिरपन और उसके सारे सेक्शन तो भानूप्रताप का पहले से रटा-रटाया था। आधे घंटे में सारा इंतजाम करके चमरू से आधी खाल उधड़ी बछिया को ट्राली में डलवाया और उसे भी अपने सारे औजारों को लेकर ट्राली में बैठा दिया। इंजन में ड्राइवर के साथ केवल मनहरन ही बैठा। इस फौज में बुटेना गांव से वह इकलौता ही था। बाकी भानूप्रताप के साथ उसके बाप की कमाई से खरीदी गई सूमो गोल्ड में सवार हुए। उनकी गाड़ी आगे चल रही थी और सभी बेफिक्र भी थे। क्या चमरू ट्राली से कूदकर भाग नहीं सकता था? क्या भूगोल की एबीसीडी नहीं जानने और लंबा फेंकने वालों ने भी लाचारों के लिए ही कहा है कि दुनिया गोल है? या फिर इस लोकतांत्रिक जमाने में वह सत्ता का केंद्र आज भी मौजूद है जहां तिलक, तराजू और तलवार की छोड़ी गई धरती पर चमरू जैसे लोग रस्सी से बंधे मुर्गे की भांति रस्सी की लंबाई से बनी परिधि में इस गलतफहमी के साथ घूमते हैं कि वे आजाद हैं।
          उनकी गाड़ी जब थाना परिसर में दाखिल हुई तो दरोगा साहब मातहतों से रात वाला हिसाब निकलवाकर हिस्सेदारी में जुटे थे। पहले तो नया शिकार जान मूंछों पर तांव दियाए लेकिन चमरू की फटी हालत देख और माजरा जानकर मुंह में आई लार सूख गई। गौरक्षकों का तांडव तो पहले से जानते थेए लेकिन आजकल मानवाधिकार संगठनों ने भी सुस्ती से ही सही टांग खिंचना शुरू कर दिया था। लिहाजा उन्होंने जांच कराने की बात कही। भानूप्रताप भी दरोगा से सवा शेर निकला और दीनदयाल तिवारी से मोबाइल में बातचीत कर ट्रेक्टर को सीधे सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले गया।
          जय श्रीराम, गौ हत्या नहीं सहेंगे, नहीं सहेंगे-नहीं सहेंगे के नारे लगाते हुजूम में कस्बे के गौरक्षक भी शामिल हो गए थे। अधिकांश युवा चेहरे, जोश और जज्बे से लबरेज, मरने-मारने के लिए तैयार थे, लेकिन नेताओं ने फेसबुक और वाट्सएप की जुगलबंदी से उन्हें कुछ और बना दिया था। दशा तो सबकी सही थीए लेकिन धर्मांधता ने दिशाएं भटका दी थी।
          हंगामा सुनकर अस्पताल के स्टाफ से चार-पांच लोग प्रवेशद्वार तक आए और कुछ मरीजों के परिजनों के साथ खिड़कियों से कौतुहलवश झांकने लगे।
          भीड़ के बीच नाटे कद के बीएमओ साहब अपने काॅलर को ठीक करते हुए बाहर निकले। उनके पीछे दो-तीन स्टाफ के लोग थे, जिनमें से एक रमजान भी मुट्ठी भींचे चला आ रहा था।
          बीएमओ को सामने देखकर भानूप्रताप ने मनहरन को आगे किया।
          ’बीएमओ साहब! ये नीच आदमी इस बेचारे किसान की गउ माता को जिंदा मारकर काट रहा था। हमें तो पूरा यकीन है बस आपको तस्दीक करानी है कि सच में इसके काटने से ही बछिया मरी है।भानूप्रताप ने चमरू की ओर इशारा करते हुए एक सांस में बात पूरी की।
          बीएमओ को उस वक्त खिन्नता की जगह हंसी आ गई। मन ही मन सोचने लगे कि जितनी मोटी बुद्धि का यह दिख रहा है उससे ज्यादा का निकला। हालांकि भीड़ की तासीर देखकर उसे जुबान पर नहीं लाए, बोले,भाई मैं तुमसे सहमत हूं, तस्दीक तो होनी चाहिए, लेकिन यह उसकी जगह नहीं है। न तो यह चीर घर है और न चीर घर में जानवरों की चीर-फाड़ होती है। ढोर अस्पताल ले जाओ तो शायद काम बन जाए।
          ’ठीक है साहब, धन्यवाद।भानूप्रताप ने जोर लगाकर कहा और भीड़ धीरे-धीरे वहां से छंटने लगी।
लौटते समय रमजान को छोड़कर अस्पताल स्टाफ के प्रत्येक के मुख पर मुस्कान लिपटी थी तो रमजान का आभामंडल क्षोभ और व्यंग्य के मिश्रण से अलग ही रूप बना रहा था। तब तक उसे सारी मालूमात हो गई थी। वह चमरू की तड़प को भी महसूस कर रहा था।
          आमिर मोहम्मद के ब्लाॅग मुस्तकबिल ए कौम के लिंक वाले मैसेज उसके वाट्सएप ग्रुप में अक्सर आते रहते हैं। उसमें कई दफा उसने दलितों के अंतहीन शोषण और मनु स्मृति से संबंधित आलेख पढ़े हैं, जो आज साकार हुआ था। हालांकि अगड़ी, पिछड़ी सभी जातियों को लेकर रमजान की धारणा एक ही है, लेकिन उनकी यातना भरी जिंदगी रमजान की नफरतों वाली धारणा को और मजबूत करती थी।
(3)
          ...रमजान की धारणा उस वक्त और मजबूत हो गई, जब उसने प्राइम टाइम में उत्तरप्रदेश के दादरी हत्याकांड का ब्योरा देखा। हालांकि उसके ठीक बाद वाले स्लाॅट में छत्तीसगढ़ 24 में मुसलमान होकर भी जिंदगी के 68 साल रामायण की चौपाइयां गाकर जीवन गुजारने वाले दाउद खां रामायणी के निधन पर आधे घंटे के प्रोग्राम को आॅफ करके वह एफबी के पोस्ट चेक करने लगा। बड़े-बड़े शिक्षाविद् और महापुरुष शिक्षा को सम्पूर्ण इंसान बनाने का मुख्य जरिया मानते हैं, लेकिन रमजान शिक्षा व संचार के सारे माध्यमों को अपनी धारणा के अनुरूप ढालने और उसी हिस्से को लेने पर जोर देता है। उधर भानूप्रताप जैसों का भी यही हाल है।
        खाना खाने के बाद रुखसार अपने कमरे में सोने चली गई और रमजान अपने कमरे में आ गया। वह अपने शरीर को बिस्तर पर डालकर आराम तो दे रहा था, लेकिन मन आरएसएस, बाबरी विध्वंस, दादरी कांड, बाइक पर खड़े होकर पुट्ठे की भोंपू से जय श्रीराम का दहाड़ मारता बजरंगी, पाकिस्तान पर जीत की खुशी में पठान मोहल्ले की दिशा में तिरछा करके राॅकेट छोड़ने वाला माया सेल्स के मालिक का बेटा विक्की,  भानूप्रताप और चमरू के बीच रिश्ते जोड़ने में उलझ गया था। बाहुबल और संख्याबल हमेशा निरीह को देखकर ही उछालें मारता है। दुनिया का हर दमनकारी इसी के दम पर दहाड़ता है और हर कमजोर सख्श नतमस्तक होने पर मजबूर हो जाता है। तो इससे मुक्ति का मार्ग क्या है? संर्ष। मष्तिष्क के किसी कोने से निकलकर यह शब्द उसके मानस पटल पर झंकृत हुआ था। इंसान चाहे उत्तर आधुनिक हो या पथभ्रष्ट, वह किसी न किसी प्राचीन विचारधारा से अपनी सहुलियत की राह निकाल लेता है। जैसे रमजान ने संर्ष रूपी यह युक्ति निकाली थी। गीता में संर्ष के लिए कहा गया है कि मनुष्य को ईश्वर ने संर्ष करने और शक्तिवान बनने के लिए ही भेजा है। संर्षों से मुक्त सीधा-सरल जीवन स्वप्न मात्र है। कुरान भी दमित, शोषित का आर्तनाद सुनकर उनके न्याय के लिए संर्ष की इजाजत देता है। हालांकि रमजान इस समय किसी देवबंदी द्वारा संर्ष को जेहाद के रूप में की गई व्याख्या वाली वीडियो क्लिप से अपने विचारों को पोषित कर रहा था।
          रमजान की आंखें अब नींद से झुंझलाने लगी थीं। टीवी बंद कर देने से वातावरण में शांति घुली हुई थी। कस्बा होने के बाद भी इस मोहल्ले में रात के 11 बजते ही आम दिनों में ऐसा सन्नाटा पसर ही जाता है। तभी सिरहाने पर रखा मोबाइल अजान ए मदीना की मधूर धुन वातावरण में रुहानियन घोलते हुए वाइब्रेट करने लगा। घुमक्कड़ों से उसकी दोस्ती तो थी नहीं, रिश्तेदारी में भी रात गए ऐसे काॅल की उम्मीद नहीं थी। उसने स्क्रीन देखा, नया नंबर था। लगा कि रांग नंबर होगा। उसने रिसीव कर लिया।
          ’हैलो---। कौन---?’, उनींदे स्वर में रमजान ने कहा।
          ’अस्लाम वाले कुम भाईजान। सब खैरियत न।, उधर से सधी हुई आवाज गूंजी जो रियाज से गढ़े हुए शब्द लग रहे थे।
          ’ज्ज---जी! मैं पहचाना नहीं। कौन बोल रहे हैं।हकलाते हुए रमजान ने कहा।
          ’भाईजान बराओ नहींए जान-पहचान भी हो जाएगी। वैसे रमजान आप अपने हिंदुस्तान में अपने कौम की हालत को लेकर क्या खयाल रखते हैं।बर्फीली हवाओं के बीच कंपकंपाता सा स्वर गूंजा।
          ’आपको मेरा नाम कैसे पता।
          ’रमजान भाई। मुसलमान बिरादरी बड़ी आफत में सांस ले रही है। हमें सबका खयाल रखना पड़ता है। वैसे आपको अपने कौम के लिए नहीं लगता क्या कि कुछ किया जाए। कुछ बड़ा काम। आखिर कयामत वाले दिन आप क्या जवाब देंगे अल्लाह को।
          ’वैसे आप जो कोई भी हों, अपने कौम के बारे में मैं जरूर सोचता हूं, इसके लिए आपको मुझे कुछ समझाने या बताने की जरूरत नहीं है।
          ’बिल्कुल सही फरमाया भाईजान, ऐसा ही जज्बा होना चाहिए। लेकिन आप सोशल साइट पर लिखते ही रह जाएंगे और एक दिन पूरी दुनिया से हमारी बिरादरी का जनाजा निकल जाएगा।
          ’आप कहना क्या चाहते हैं?’
          ’भाईजान फिलीस्तीन, अफगानिस्तान, इराक तो तबाह कर डाले ये अमेरिकन कुत्ते। इधर कश्मीर में हमारे भाइयों का क्या हाल है किसी से छुपा है क्या। अल्लाह ने हम पर भरोसा किया है तो हमें कुछ करना पड़ेगा। अल्लाह के भरोसे हम रहेंगे तो यह हराम नहीं होगा क्या?’
          ’क्या करने की बात कह रहे हैं?’
          ’करेंगे, कुछ बड़ा सा करेंगे। ताकि आपकी काफिर सरकार की नस्लें याद रखें। और हो सके तो वो याद करने वाला नस्ल ही न रहे। ऐसा कुछ करेंगे।
          ’हां, लेकिन आपकी सरकार का मतलब समझ में नहीं आया। आप बोल कहां से रहे हैं।
          ’सब्र करिए भाईजान, सब कुछ बताऊंगा। पहले आप अच्छे से और सोच लो। ठीक है, आपसे फिर बात होगी। अल्लाह हाफिज।
          रमजान को विचारों के भंवर में डालकर अनजान सख्श ने फोन काट दिया। उसके माथे पर बल पड़ गए। नींद भी ओझल। कौन हो सकता है वह, क्या कोई फिदायीन? सुनने में आता है कि वे आजकल हर जगह सक्रिय हैं। चाहे सोशल साइट हो या वेबसाइट, मोबाइल व सिम से डेटा चुराने में भी माहिर हैं। पिछले आधे घंटे से करवटों का सिलसिला जारी है, जो उसके मन में चल रहे उधेड़बुन का अनुभाव बन गया है। घुप्प अंधेरे कुंए के रसातल में वह धंसा हुआ है। चारों ओर काले नाग गरल छोड़ते फन मार रहे हैं और वह बचने के लिए अकेले जूझ रहा है। ऊपर भी उम्मीद की कोई किरण नहीं दिख रही। अचानक एक डोरी उतारी भी तो किसने? बीहड़ के किसी दुर्दांत डाकू ने। वह तो उसका राॅबिनहूड होगा, लेकिन अमेरिकापरस्त दुनिया उसे लुटेरा कहता है। रसातल से निकलेगा भी तो आखिर बीहड़ में ही पहुंचेगा। अचानक अम्मीजान याद आई तो बरबस ही उसके साथ याकूब मेमन की मां भी चली आई। पुलिस डंडों से कमरे की दराजों-दरख्तों को पीट रही है और वह सहमी हुुई कोने में दुबककर खड़ी है। आंखें पथरा गई हैं। रमजान सिहर उठा। यह बीहड़ में जाने के बाद की उपजी कल्पना थी।
          अब वह रसातल में धंसे अपने दूसरे विकल्प को याद करने लगा जो उसका वर्तमान है। यह वर्तमान भी उसे उसके भविष्य को लेकर डरा रहा है। अचानक उसे बाजू वाले जुम्मन हज्जाम के साथ हुए वाकये याद आ गए। डेढ़ साल पहले कैसे सिसोदिया क्रेसर के संचालक के बेटे ने उसके ठेले पर कार चढ़ाई थी और भरपाई की बात पर थप्पड़ रसीदे थे। रिपोर्ट दर्ज कराने के बाद टीआई जीपी ठाकुर जुम्मन के र ही शिकायत की जांच के बहाने घुस आया था। तब कैसे बूटों की खड़खड़ से सहमकर जुम्मन के सात साल के बेटे ने पेशाब कर डाला था। खयालों के रील घुमते गए और वह भेदभाव, शक और दोयम दर्जे के व्यवहारों पर अटककर अपने इस पक्ष को मजबूत करता गया।
          अगली सुबहए फिर शाम और देर रात भी अनजान नंबर वाले का काॅल आया। इस दौरान वह सख्श अनजान नहीं रह गया। उसकी कौम का था और मसीहा बनकर उसकी जिंदगी में आया था। चारों काॅल को मिलाकर इतना तय हुआ था कि एक ग्रुप से जुड़े कुछ लोगों को बस हिंदुस्तान में अराजक माहौल चाहिएए कुछ को आजाद कश्मीर और दोनों को जरूरत थी देशभर में स्लीपर सेल की फौज की। रमजान को अपने कौम की हिफाजत करनी थी और वह हक दिलानी थी जिसमें वह बराबरी के साथ खड़ा हो सके। चाहे वह दहशतगर्दी से हो या याराना तरीके से। हालांकि याराना वाली बात उसके पिछले अनुभवों से बेमानी हो गई थी। उस सख्श ने आगे भी उसके कई सवालों के जवाब दिए। मसलनए किसी एरिया में एक्शन लेने से पहले रेकीए बम फीड करनेए असलहे मुहैया करानेए फंडिंग आदि। बस्तर सर्किल में एक हिंदू स्लीपर सेल की जानकारी भी उसने दी तो रमजान चैंक गया।
          उसने शंका का समाधान कियाएभाईजानए पैसे और सत्ता की लालच क्या नहीं कराती। गद्दारी से ही तो इतिहास रची गई है। इसके बिना हिंदुस्तान में न आर्य ?ाुस पातेए न मुगल और न अंग्रेज। विभीष.ाए सुग्रीव और मीर जाफरों ने ही रुके हुए इतिहास को रवानी दी है।
          एकाएक रमजान में ऐसा बदलाव आया कि कौमी सोच की अटकलें अब पक्की हो गईं। पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को स्कूल ले जाते समय अब्बा का तिरंगा खरीदकर देनाए त्रिपाठी अंकल के ?ार दीवाली पर सपरिवार मिलने जानाए अंबू के साथ होली में रंगों से सराबोर होनाए बिलासपुर में देवी मां की आपत्तिजनक वीडियो जारी होने के बाद भड़की भीड़ से आदित्य }ारा उसे सकुशल निकाल ले जानाए सब कुछ भूला देना चाहता है वह। पर क्यों? क्या सि)ांतवादी होने का यही फायदा है कि इससे उस प{ा को मजबूत करने के लिए हमें दूसरे प{ा को आसानी से भूला सकने की सहुलियत मिल जाती है।
(4)
          ’भूल गया क्या रमजानए आज तुझे त्रिपाठी भाईसाब के यहां ले जाने के लिए कहा था मैंने।
रिस्टवाच पहनते हुए रमजान ने दरवाजे की ओर देखा। दरवाजे पर रुखसार दुपट्टे से चेहरे पर हवा करती हुुई खड़ी थी। रमजान के हाथ रुक गएएक्यों अम्मीए क्या हमारे जाने भर से त्रिपाठी अंकल का लकवा ठीक हो जाएगा और वे दौड़ने लगेंगे?’ उसने लापरवाही भरे अंदाज में कहा और आइने के पास जाकर कं?ाी से बाल संवारने लगा।
     रुखसार को रमजान का अंदाज बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। त्यौरियां चढ़ाती हुई बोलीएरमजान! बड़ों के लिए ऐसा मजाक नहीं करतेए खासकर ऐसी दुख की ?ाड़ी में। हमें वहां देखकर कितनी तसल्ली मिलेगी उन्हें और बेचारी करु.ाा भाभी को।
     ’हां-हांए क्यों नहींए हम उनके लिए एहसान-दर-एहसान करें और उनके जैसे लोग मरे हुए आदमी के लिए खुन्नस रखें। क्या बिगाड़ा था हमने जो उन लोगों ने अब्बा के ग्रैच्यूटी का पैसा रोके रखा? उन्हीं लोगों ने न।
     ’रमजान ये तुम क्या उन्हीं लोगों नेए उन्हीं लोगों ने लगा रखा है। तेरे को मालूम भी हैए जब तुम्हारे अब्बू सड़क पर तड़प रहे थे तो उन्हें समय पर हाॅस्पिटल पहुंचाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने वाला कौन था? अमजद भी तो उस दिन उनके बाजू से गुजरा थाए लेकिन अनजान शराबी समझकर नजरअंदाज कर गया था। उसकी जगह अगर त्रिपाठी भाईसाब पहले पहुंचे होते तो तुम्हारे अब्बा अभी जिंदा होते। पेंशन की बात कर रहे हो नए उन्होंने ही कर्मचारी नेताओं को एकजुट किया था तब कहीं जाकर ग्रैच्यूटी मिली थी और पेंशन शुरू हुआ था।
     रमजान पर रुखसार के तर्क भारी पड़े। हकलाते हुए कहाएहां अम्मी यह बात तो सही हैए लेकिन ये भी तो सोचो कि हर मामले में हमें हिंदुओं ने दबाया ही तो है। प्रोफेसर चतुर्वेदी के ?ार नाश्ते के बाद प्लेट धोने की बात मैं जिंदगीभर नहीं भूल सकता। नौकरी के लिए कितना दर-दर भटका हूं। मेरे सामने बी ग्रेड वाले मयंक को ले लिया गया और मुझे मुसलमान समझकर ए प्लस रहने के बाद भी दुत्कार दिया गया। गहराई में जाकर सोचो तो सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। कुछ गिने-चुने लोग अलग सोच वाले निकल भी जाते हैं तो उनकी क्या गिनती।
    रुखसार ने आगे कुछ भी नहीं कहा और रमजान अपनी बाइक निकालने लगा। उसे डर था कि कहीं अम्मीजान बिफर न पड़ेए लिहाजा तूफान को टालने के लिए अंतिम समय में पलटकर कहाएचार बजे आऊंगा तो ले जाऊंगा।’ 
    रुखसार को पहली बार रमजान की बदली-बदली सोच का खटका लगाए लेकिन नजरअंदाज कर गईं। उधर रमजान की सोच की तुला पर पड़ा प्रतिशोध का पत्थर ही इतना भारी थाए जिसे त्रिपाठी जैसा तिनका रंच भर भी नहीं डिगा सकता। रमजान शाम को लौटा तो थका हुआ थाए लेकिन रुखसार की बात नहीं टाल सका और फ्रेश होकर उन्हें त्रिपाठी अंकल के ?ार ले गया। उनकी पत्नी करु.ाा ने जैसे ही रुखसार और रमजान को देखा आत्मीयतावश आंखें सजल हो गईं। उन्होंने चेहरे पर मुस्कान लाने की असफल कोशिश की।
    ’आओ रुखसार बहनए आज मिला हमारे ?ार का रास्ता या कहीं रास्ता तो नहीं भटक गई।रुखसार को गले से लगाते हुए करु.ाा ने कही और आंगन में रखी कुर्सी को उसकी ओर बढ़ाते हुए रमजान की ओर देखाएबाप रे बाप! ये तो बढ़ने के मामले में बांस को भी मात दे रहा है। तीन साल पहले ही राज्योत्सव में मिला था तो नन्हा सा दिखता था।
    रुखसार कुर्सी पर बैठ गई और उलाहना भरे स्वर में कहाएकाश ये छोटा और नासमझ ही रहता बहनए इसकी समझदारी ने तो जीना हराम कर दिया। फिर जिद ऐसी कि पूछो मत। नवाब साहब को रेंजर साइकिल से अस्पताल जाने में शर्म आती थी। मोटरसाइकिल खरीदोगी तो ड्यूटी पर जाऊंगा करके रट लगा दिया। क्या करतीए एडवांस निकलवाकर दिलाई हूं।
    ’रुखसार तुम मानो न मानोए ये रमजान की जरूरत थीए जिसके लिए उसने जिद की। वरना आजकल के बच्चे---ए हे भगवान! अपना गोपाल का भी तो सुन ले। वो कोई आतंकवादी नहीं थाए जिसे फांसी हुई है। अपने यूनिवर्सिटी के लफंगे दोस्तों के साथ उसका बलिदान दिवस मनाता फिर रहा था। जिद की भी हद होती है। जिद करोए हक के लिए लड़ो मगर इतना भी तो मत करो कि देश से गद्दारी कर बैठो।इतना कहते-कहते करु.ाा ने सिर पकड़ लिया।
    ’सही है बहनए ये जमाना ही खराब चल रहा है। जितना आगे बढ़ रहे हैं उतना ही पीछे भागे जा रहे हैं। पता नहीं ये राजनीति करने वाले बच्चों का कितना इस्तेमाल करेंगे। जो बच्चे आपस में मिलकर अल्लाहए ईश्वर तेरे नाम गाते थे वे जय श्रीराम और अल्लाहोअकबर करके दहाड़ रहे हैं। चंदा मांगने वाले बच्चे अब गौरक्षा के नाम पर नंगई करते फिर रहे हैं। मैं तो अल्लाह, खुदा, इबादत सब मानती हूं पर इस डर से कि मेरे बच्चे के दिमाग में कोई नफरत का जहर न घोल दे इसीलिए इन सब पर ज्यादा जोर नहीं देती। मुझे लगता है कि मैं इसमें कामयाब भी रही हूं। फिर भी पता नहीं क्यों डर लगा रहता है।
    अम्मीजान की बातें सुनकर रमजान की आंखों में सुबह की तश्वीरें नाचने लगी। क्या वह उसी की उलाहना दे रही है। उसकी खुशफहमी का असर तो रमजान पर नहीं हुआ फिर भी न जाने क्यों अनायास ही सिर किस आंतरिक प्रतिक्रिया से नीचे झुक गया।
    इस बीच त्रिपाठी को रुखसार और रमजान के आने की आहट हुई। शरीर के बाएं भाग के निष्क्रिय होने से दाएं हिस्से के सहारे खुद ही अलट-पलटकर बिस्तर से उठ गए। छड़ी से एक पैर को उचकाते और दूसरे को सीटते हुए वे बाहर आए।
    करुणा ने उनमें दिनों बाद ऐसा उत्साह देखा। रुखसार को आत्मग्लानि हुईए कहा, ’भाईसाब आप क्यों तकलीफ उठाए, हम तो अंदर आ ही रहे थे।
गर्दन नहीं घुमने की वजह से त्रिपाठी ने जवाब देने के लिए अपने आधे शरीर को घुमाया और उनकी ओर देखा। कहाएअब्बीर का एटा इतना अया हो अया।वे कहना तो चाहते थे शब्बीर का बेटा इतना बड़ा हो गया, लेकिन लकवा ने उनकी जुबान से ज्यादातर व्यंजन छीन लिए थे। रुखसार ने आंखों से रमजान को इशारा किया तो उसने आकर उनके पैर छुए।
    उन्होंने आशीर्वाद दिया और रुखसार की बातों का जवाब दिया, ’आक्टर ने अहलने के लिए अहा है। अहनजी! आप आए तो इमारी ऐसे ही उर हो गई।पुरसुकुन होकर वे पास रखी चारपाई पर ढलने लगे तो करुणा ने सहारा देकर बैठाया।
    चाय-पानी के दौर में सुख-दुख बांटना चलता रहा। इस दौरान रमजान को जो कुछ पता चला उसका लब्बोलुआब यह था कि त्रिपाठी अंकल के भाई कांग्रेसी नेता हैं और बिलासपुर के किसी मुसलमान मोहल्ले तालापारा, करबला या तारबाहर एरिया में प्रिंटिंग की दुकान चलाते हैं। रमजान को बातों-बातों में यह भी पता चला कि जीजीयू में पढ़ने के दौरान रमजान वहां के जिस मुसलमान नेता इमरान खान को कौम का शुभचिंतक समझता था वह वास्तव में मुसलमान बिल्डरों का दलाल था और अपनी पहचान के मुसलमान भाइयों से कमीशन लेकर उनके यहां फ्लैट दिलाता था। बदले में बिल्डरों से भी कमीशन खाता था। बीजेपी के कुछ लीडरों से भी उसके व्यावसायिक ताल्लुकात थे। जमीनी विवाद को लेकर ही उसने कुछ मुसलमानों को भड़काकर त्रिपाठी अंकल से झगड़ा करा दिया। त्रिपाठी अंकल बीच में सुलह कराने के लिए गए तो उसके गुंडों ने उनकी भी पिटाई कर दी। लकवा के भयावह रूप के लिए शायद वह पिटाई भी जिम्मेदार थी। पहले तो रमजान को यकीन ही नहीं हो रहा था, लेकिन त्रिपाठी अंकल की साफगोई को झूठलाया भी तो नहीं जा सकता था।
    शाम को जब रमजान और रुखसार ने त्रिपाठी अंकल के र से विदा ली तब तक इमरान खान को लेकर रमजान का सिर भन्नाने लगा था। क्या हम युवा सच में मोहरे बन गए हैं या हमारी खुद की अकल, स्ट्रेटजी, स्टेमिना, शाॅर्प माइंड से कोई खेल रहा है। फिर हम खेलने क्यों दे रहे हैं? विचारों का विश्लेषण मन में बैठे लोगों के इरादों को केले के छिलके की भांति छिलने लगा तो इमरान खान के साथ-साथ फोन वाला अनजान सख्श, ओवैशी, बाला साहब, जाकिर नाइक, हिटलर, मुसोलिनी से होते हुए मनु तक बारी-बारी से आते गए।
    रमजान को बचपन के दिन याद आने लगे। अंबू, मुरली, भोला के साथ दुर्गा का चंदा काटने, फिर ईदगाह पर उन लोगों को मौलवी साहब की नजरों से छिपाकर ले जाने, अब्बू के साथ हाथ में डंडी वाला तिरंगा लेकर स्कूल जाने, वापसी में त्रिपाठी अंकल के र जाकर उनके बेटे गोपाल के साथ बाॅर्डर फिल्म की एक्टिंग करने जैसी टनाएं उसकी आंखों में नाचने लगे। तो क्या अभी की बातें छलावा हैं? फिर आदित्य, बजरंगी और गौरक्षक कौन हैं? क्या वे भी छले जा रहे हैं? रात तक इन्हीं विचारों को लेकर रमजान उलझा रहा बिस्तर में जाने तक। सुबह नींद फोन काॅल से खुली।
   ’भाईजान!... अस्लाम वाले कुम।रमजान पहले तो चौंका कि यह आवाज दूसरी है, लेकिन तत्काल संभल भी गया कि तार उसी से जुड़ा है।
   ’वालेकुम सलाम। आप...।
   ’आहाहहा! कैसी घुटन में सांस ले रहे हो मेरे बिछड़े हुए बिरादर। काश! हमारे भाईयों ने 47 में नापाक हिंदुओं को काटने में हड़बड़ी नहीं की होती तो आप यहां सुकुन के साथ सांस ले रहे होते। वैसे अल्लाताला की पाक जमीन पर आपके कदम नहीं पड़ने का एक वाजिब कारण तो आपके बाप-दादों की गद्दारी भी रही है भाईजान। बस अब मौका आ गया है मौकापरस्ती को कौमपरस्ती में बदलने का।एक ही सांस में नए सख्श ने रमजान के कौतुहल की बिना परवाह किए बोल दिया था।
    ’लेकिन मैं समझा नहीं, आप किस गद्दारी और कैसी पाक जमीं की बात कर रहे हैं।रमजान ने अपनी जिज्ञासा जाहिर की।
    ’बिरादर इतना भी अनजान मत बनो, मैं पाकिस्तान से बोल रहा हूं। हम यहां कश्मीर को हिंदुस्तान से आजाद कराने के पाक मिशन के लिए काम कर रहे हैं। इसमें हम हिंदुस्तान के बिछुड़े हुए भाइयों को कैसे भूल सकते हैं। इसी बहाने आप लोग भी अपने कौम के लिए काम आ जाओगे। भले ही सरहद ने हमें अलग कर दिया है, लेकिन भाईजान! हम मुसलमान एक उम्मत हैं, हमारा चांद भी एक है और ईद भी एक है।
    रमजान अभी दोराहे पर खड़ा था। वह अपने फैसले से किसी भी अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाह रहा था। ऐसे में उसने नकारने या हामी भरने के बजाय बात को अगले हिस्से में टाल दिया था। उसके लिए एक ओर इस पाकिस्तानी रूपी बेसरहद कौमी भाई नजर आ रहा था तो दूसरी ओर अपने आसपास के त्रिपाठी अंकल, उनके बेटे गोपाल, कन्हैया जैसे हितैषी भाई भी उससे इतना ओझल नहीं हो पाए थे। इसी उधेड़बुन और हकीकी दुनिया से बेखयाली में उसके दो दिन कब बीते पता ही नहीं चला। दिमाग का पलीता निकलना कुछ बाकी ही था तभी तीसरे दिन रविवार को तीन-चार सालों बाद कस्बे में लौटे मोहल्ले के रहमान चाचा आ धमके।
    ’क्या बताऊं रमजान, बड़ा सुख का काम है। भोर से ही काशी विश्वनाथ की घंटियां पट खुलने के साथ सुनाई देने लगती है। लोग भी धर्म के लेन-देन में कभी झिक-झिक नहीं करते। शांत माहौल में काम होता है बस।पकोड़े को मुंह में डालते हुए रमजान के हाथ रुक गए।
    ’चाचा! आपको समझना मेरे बस से बाहर है। आप ही वो सख्श हैं, जो ईदगाह के पीछे की जमीन पर मंदिर बनाने के खिलाफ मौलवी साहब के साथ अगुआ बने थे। अब ये क्या बात हुई कि उन्हीं हिंदुओं का सेवक बनकर उन्हें वैतरणी पार करा रहे हो।उखड़ते हुए रमजान ने कहा।
    ’एक बात कहूं रमजान, आम आदमी को हमेशा बिजनेस माइंड होना चाहिए। ये जितने भी नेता, धर्मनेता होते हैं वे अपने-अपने तरीके से विचारों का नशा पिलाते रहते हैं। जब तक हम नशे में हैं तब तक उनके लिए ठीक हैं। आम आदमी खुलेआम क्या बगावत कर सकता है। उनसे निपटने और अपनी जिंदगी जीने के लिए बिजनेस माइंड कोई बुरी चीज नहीं। वो विचारों को हथियार बनाते हैं तो तुम इसे अपना असला बना लो फिर देखना कैसे मस्त चलती है अपनी जिंदगी।
    ’ये सब आप जैसे बाकेमस्त लोगों के लिए ठीक है चाचा। अपन जब तक उसूल बनाकर नहीं चलेंगे तब तक अपनी लकीर नहीं खींच सकते।
तुम आम आदमी कर भी क्या सकते हो? दुनिया में मुश्किल से सौ मिलेंगे तुम्हें लकीर खींचने वाले, लेकिन दुनिया कितनों को याद रखती है? मैं उनकी तरह नहीं बन सकता और न मेरे में विरोध करने का साहस है। इसलिए मैं बाकेमस्त जीता हूं। मौलवी साहब का विरोध करने का साहस नहीं था तो उनका अगुआ बन गया। मेरा मन कहा, मजहब कोई सा भी हो मंजिल मेरी एक है। तब भोलेनाथ की नगरी ही मेरा काबा और मेरी कर्मभूमि बन गई।लंबी सांस लेते हुए रहमान ने अपने वाक्य पूरे किए।
    रमजान भी हार मानने वालों में से नहीं था, ’हां, वो हमसे लाठी, डंडे से बात करे और आप उनकी ताबेदारी को अपनी मंजिल बनाएं। कौम के लिए कुछ कर नहीं सकते तो कम से कम इज्जत करना तो सीखें। ये जाहिल तो मुझे फूटी आंख नहीं सुहाते। जब आपकी गर्दन पकड़ी जाएगी इन जालिमों के हाथों तब आपको अपने दर और अपने कौम की याद आएगी।
    ’देख रमजान, तुम्हें एक वाकया सुनाता हूं। जब मैं अलीगढ़ में एक कैटरर्स में काम कर रहा था तो हमें केरल समाज भवन में ओणम महोत्सव के लिए खाना बनाने के लिए जाना पड़ा। अंदर सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था। प्रांग में आठ-दस मलयाली लोग बतिया रहे थे। वहीं बाजू की फुलवारी में उनके समाज के बच्चों के बीच मोहल्ले के दो-चार गरीब रों के बच्चे आ गए। इतने में एक बुजुर्ग उन्हें डांट-फटकारकर भगाने लगा। हमें बड़ा अजीब लगा। एक साथी लड़के ने कहा कि ऐसे होते हैं ये लोग। खुद बाहर से आकर यहां पनाह लेते हैं और यहीं के लोगों पर रौब झाड़ते हैं। एक मलयाली आदमी ने हमारी बात सुन ली और पास आ गए। बोले कि भाई एक खड़ूस आदमी की हरकत आप लोगों को समझ में आ गई तो हमारे प्रति ऐसी धारणा बना ली। हम जो आपस में उसकी हरकत को लेकर ही जो बात कर रहे हैं वो समझ में नहीं आई। उसकी बात मुझे खासा प्रभावित किया। ठीक ऐसा ही हम लोगों के साथ हो रहा है। सब कौमों के दो-चार लोग भौंक रहे हैं और हम पूरे कौम के प्रति अपने मन में नकारात्मक सोच भर रहे हैं।
    रमजान तर्क को स्वीकारते हुए भी अपनाने के मूड में नहीं था, ’चाचा, आपके साथ ऐसा वाकया हुआ ही नहीं तो आप क्या जानो। बजरंगियों का उन्माद तो देखे हैं न। उनके रग-रग में जो नफरत र कर गया है वो कि जिसने कारपोरेट आॅफिसों तक को नहीं छोड़ा है। हां, मैं उसका प्रत्यक्ष गवाह हूं। उनके नफरत ने कैसे टैलेंट को कौम से भारी बना दिया है और हमें सबसे निकृष्ट।
    ’कुछ कंपनियां ऐसे बताऊं जिनमें केवल मुसलमानों की ही एंट्री होती है। ऐसी सोच कहां नहीं है। हम दूसरों की फटी झोली ही देखते हैं और अपनी गिरहबान नहीं झांकते। रही बात उन्माद की। तो ये बात उन्मादियों को ही सोचना चाहिए कि कितने लोग उनकी सुन रहे हैं। उत्साही अगर उन्मादी हो रहे हैं तो हमें खुलकर आगे आना चाहिए, लेकिन नफरतों का जवाब नफरत से देंगे तो ये बढ़ता ही जाएगा।
    ’आपसे नहीं जीत सकता चाचा, अब उनकी बारी आई तो हमें नसीहत दो। न हमारे दादा होते गद्दार और न रहते हम इस मुल्क में। जो न कभी हमारा था और न कभी रहेगा। अब वक्त आ गया है कि मैं अपने कौम के लिए कुछ करूं। वरना आप जैसे लोग तो मुसलमानों को दुनिया से ही खत्म करा दोगे।
    ’उन्मादी सोच अपने मन से निकाल दो रमजान। वक्त को जो करना था कर दिया। अब समय को अपना बनाना सीखो। इतिहास कुरेदोगे तो सिवाय दुख के कुछ भी हासिल नहीं होगा। देख, शादी से पहले मैं परवीन से कैसे बेइम्तिहां प्यार करता था। उसकी निकाह के समय लगा कि जिंदगी में अब कुछ भी नहीं रह गया। आज मैं तुम्हारी चाचीजान के साथ कितना खुश हूं। उतना ही प्यार उसे देता हूं जितना एक वक्त परवीन को देता था। आज उसके बारे में सोचूं तो मैं तो दुखी रहूंगा, साथ ही तुम्हारी चाचीजान के साथ भी अन्याय करूंगा। वक्त ने पाकिस्तान की लकीर खींच दी। तुम आज के अपनों से नफरत कर उस बेगाने पर आंसू बहाओगे तो ये तुम्हारी गद्दारी नहीं तो और क्या है। नजर बदलो, नजरिया अपने आप अपना मुकाम खोज लेगा।रहमान चाचा की बातें रमजान कहने को तो ध्यान से सुनता रहा लेकिन सब बकवास की बातें लगती रही। जब वे चले गए तो चैन से लंबी सांस ली।
    रमजान के लिए ये वाकये आए-गए हो गए। कभी कश्मीर तो कभी पाकिस्तान से फोन आते रहे। एक बार उसने अपने खाते का नंबर भी बताया और जब उसमें डेढ़ लाख रुपए डल गए तो बताए गए खाते में वह रकम भी डाल आया। कुछ दिनों बाद उसका कमीशन भी आ गया। उसके लिए ये दोहरी खुशी थी। दिल में सुकुन था कि अपने कौम के लिए कुछ तो कर रहा है। कमीशन अलग से।
    एक दिन सुबह-सुबह खबर मिली कि मुंबई के रेलवे स्टेशन में भयानक बम विस्फोट हुआ है। इंसानों के चिथड़े-चिथड़े उड़ गए हैं। लाश तो लाश असबाबों के आसपास कहीं नामोंनिशान नहीं हैं। शाम होते-होते विस्फोट की जिम्मेदारी लेने वाले आतंकी संगठन का नाम भी सामने आ गया। अगले दिन से कस्बे में उन्मादी फिर से नजर आने लगे थे। चौक-चौराहों पर पुतले जल रहे हैं। रमजान ने गौर किया कि उन्मादी अबकी बार फिकरें नहीं कस रहे हैं, बल्कि सीधे-सीधे गालियों से बात करते हुए इशारे उनके मोहल्लों और रों की ओर कर रहे हैं। फिर सूचना आई कि आरपीएफ के एक जवान ने दो दिन बाद दम तोड़ा है, जिसका नाम हसन बताया जा रहा है, जो बिलासपुर के पास के किसी गांव का रहने वाला है। वही हसन जो दसवीं के एनसीसी कैंप में उससे मिला था। बताया जा रहा था कि वह घायल होने के बाद भी एक संदिग्ध को दौड़ा रहा था। तभी संदिग्ध ने उसके सिर पर बट से हमला किया था। अगले दिन तिरंगे से लिपटी बाॅडी आने की खबर आई तो रमजान को जितना गम हुआ उससे कहीं ज्यादा राहत मिली। क्योंकि इससे उन्मादियों का उन्माद थम सा गया था। इस बार ट्विटर पर धर्मनिरपेक्ष की बातें करने वालों के ट्वीट ट्रैंड होने लगे। उनमें तुष्टीकरण की राजनीति करने वालों की कमी भी नहीं थी। इधर रमजान को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। फिदायिनों ने उनके पूरे कौम को और संदिग्ध बना दिया था। वहीं हसन जैसे वतनपरश्त ने कुछ राहत दी थी। कुछ सवाल कुरेद रहे थे, जिनके जवाब उसे नहीं मिल पा रहे थे।
(5)
    मामला कितना भी बड़ा क्यों न हो, चमरू के लिए इन सब सवालों के कोई मायने नहीं हैं कि उसे कौन कब क्या बोला, किसने उस पर हाथ उठाया। कब सोंचे? जिंदगी की गाड़ी चलाने और उसमें अपने परिवार को ढोने से फुर्सत मिले तब न। शिक्षित और अघा लोग ही बाल की खाल निकाल सकते हैं। मोदी ने मुसलमान टोपी क्यों नहीं पहनी, नक्सल आॅपरेशन क्यों जरूरी है, सलवा जुड़ुम से क्या हासिल हो रहा है, दलितों को मंदिर में चढ़ने का अधिकार क्यों न मिले ऐसे ढेरों सवाल हैं। कुछ चमरू से जुड़े, कुछ अनजुड़े। उसे जुड़े हुए सवालों से भी कभी जूझने का मौका नहीं मिला। तब तक तो और नहीं, जब तक कि उनके गांव से होकर नदी में रपटा नहीं बना था।
    मनहरन के साथ उसकी अनबन मनहरन की रवाली की जचकी होने तक रही। फिर बात आई-गई हो गई। चार बेटियों के बाद र में बेटा आने का हवाला देकर सुखमनी ने उससे ठसक के एक खांड़ी धान मांगा। ऊपर से चमरू ने पीने के लिए एक चेपटी अलग से। मनहरन ने भी उनकी सारी मांगें दिल खोलकर पूरी की।
    इसी गर्मी में सेमरवा में एक टना टी। मुरलीधर की बेटी की शादी खटोला वाले जगत प्रसाद के बेटे के साथ तय हुई थी। बारात वाले दिन बैंडबाजे के साथ नाचते बारातियों की झुंड के बीच गांव के आठ-दस लड़के घुसकर नाचने लगे। इसी बात को लेकर जमकर झगड़ा हो गया। लड़कों ने लाठी-बिड़गा निकाल लाया। अकेले भानूप्रताप ने बाॅक्सिंग ग्लब लगाकर चार बाराती लड़कों के जबड़े तोड़ डाले। बाराती तो भाग निकले और शादी जैसे-तैसे कर निपट गई, लेकिन उसी दिन से खटोला के युवक सेमरवा के लोगों पर नजर गड़ाए हुए थे। सेमरवा और बुटेना उनके लिए एक ही गांव थे। लिहाजा बुटेना वाले भी उनके शिकार थे।
    मंगलवार का दिन था। चमरू पंचगंवा बाजार में अपना पसरा लगाकर चप्पलें सील रहा था। उसके बाजू में करुमहूं वाले का चाट-गुपचुप ठेला लगा था। मनहरन किसी गांव से नेवता बड़ाई करके लौट रहा था और गुपचुप खाने के लिए रुक गया था। तभी सामने एक बोलेरो आकर रुकी। आठ-दस लड़के उतरे। सभी ने स्पोट्र्स जूते पहन रखे थे। दो लड़के बैट लेकर बाहर आए। शायद कहीं से क्रिकेट खेलकर आ रहे थे। ठेले के पास उनका मजमा लगा।
    ’अतको दुरिहा के बजार करथस चमरू। धन्न हे ग, रा ए दारी सरपंच मेर बुटेना लो म बजार बइठारे के बात करबो।’ (इतनी दूर का बाजार करते हो चमरू। धन्य है, रुको इस बार सरपंच से बुटेना में बाजार बैठाने की बात करेंगे।) मनहरन ने मग से पानी पीते हुए चमरू की ओर देखकर कहा। युवकों पर उसका ध्यान नहीं था।
    ’सेमरवा वाला मनके झोलेच धरवार रइहा रे बुजा होवा। काम होही सेमरवा मं आउ हमन धरबो घंटासुलह के बाद से दोनों के बीच एक बार फिर अनौपचारिक संबंध जुड़ गए थे, जिसे बुजा जैसे उलाहने से जताते हुए चमरू ने जवाब दिया।
    पास में खड़े युवकों ने उनकी बातें सुनी। एक-दूसरे से आंखें चार हुई और एक माथे पर लकीरें बनाकर बोलेरो की ओर दौड़ पड़ा। दूसरे ने आकर मनहरन की काॅलर पकड़ ली। उसने खींचकर एक झन्नाटेदार झापड़ चलायाए जो मनहरन के कान के नीचे और आधे गर्दन पर लगी थी। दूसरा झापड़ उठाया और जोर से दहाड़ाः 
    ’ला बैट ला बंटी, दिखाते हैं हरामियों को कि मुक्केबाजी में ज्यादा दम है या क्रिकेट में। सीखा देंगे कैसे मारते हैं चौका और कैसे छुड़ाते हैं छक्का।
    ’बता देना बे उस पंचिंग ब्वाय को कि खटोला वालों से टकराने का नतीजा क्या होता है।
    सारे के सारे मनहरन पर पिले पड़े थे। कोई मुक्का जमा रहा था तो कोई झापड़ घुमा रहा था। उनकी नजर चमरू पर नहीं पड़ रही थी। पर चमरू ये होते कैसे देख सकता था। अपनी परवाह किए वह उनके बीच में घुस गया और मनहरन का बीच-बचाव करने लगा। इतने में एक लड़का बैट ले आया। उसने तड़ातड़ दो बैट चलाए जो चमरू के कूल्हे और कमर पर लगे। तीसरा बैट थोड़ा ऊपर चला और चमरू उसी समय पलट रहा था तो सीधे उसके मस्तक पर लगा। वह वहीं गिर पड़ा और छटपटाने लगा। इतने में वहां भीड़ बढ़ने लगी थी, लेकिन युवकों को रोकने की हिम्मत किसी में नहीं हो रही थी। मौका भांपकर और चमरू की हालत देखकर सारे बोलेरो में सवार हुए और नौ दो ग्यारह हो गए।
    धरम अस्पताल के केजुअल्टी वार्ड के एक बेड पर लहूलुहान चमरू लेटा हुआ है। सामने के रास्ते को छोड़कर डेस्क पर डाॅक्टर रजिस्टर में मेमो बना रहा है और मनहरन ब्योरा दे रहा है। उसके माथे पर भी पट्टी लगी थी, जिसमें खून के दाग लगे हुए थे। सुंदर साइकिल से छः कोस भुंइया नापकर सुखमनी को बैठाए रात के साढ़े आठ बजे अस्पताल पहुंचा। तब तक चमरू होश में आ चुका था और जनरल वार्ड में शिफ्ट हो गया था।
    अगली सुबह कंपाउंडर, नर्स और अन्य सहायकों का शिफ्ट चेंज होने का समय था। एक-एक कर सारे लोग निकल रहे थे और नए लोग अंदर दाखिल हो रहे थे। कस्बे का अस्पताल होने और सामान्य दिन होने से वहां करीब-करीब सन्नाटा ही पसरा था और आठ बेड वाले कक्ष में तीन बेड पर ही मरीज नजर आ रहे थे। रमजान कंपाउंडर बारी-बारी से सभी मरीजों को देखते हुए अंत में चमरू के बेड तक पहुंचा। उसने चमरू को सीधा बैठाने के लिए कहा तो मनहरन सहारा देकर उसे बैठाने लगा। रमजान ने पट्टी का गठान खोलकर चमरू के मस्तक को आजाद किया। उसे चमरू का चेहरा जाना-पहचाना लगा। रजिस्टर में नाम और पता देखकर चौंक पड़ा।
    ’ये वही आदमी है न, जिसने किसी की गाय को मारा था और लोग इसे पकड़कर लाए थे।नई पट्टी लगाते हुए रमजान उछल पड़ा था।
    ’हौ साहेब, मोरे तो बछिया रहीस हे आउ सरपंच के बेटा हम सबो ल सकेल के ले आए रहीस हे।’ (हां साहब, मेरी ही तो बछिया थी और सरपंच के बेटे ने हम सबको इकट्ठा कर ले आया था।) मनहरन ने जवाब दिया।
    ’हां यार, वो लड़का तुम्हें ही तो धकियाकर आगे खडे़ करा रहा था।रमजान के लिए ये दूसरा अजूबा था।
    ये समय आम दिनों में इस छोटे से अस्पताल में कर्मचारियों के घुमने-फिरने और मजे करने के दिन होते हैं। रमजान भी वहीं पर जम गया। मनहरन की बातों ने उसे हैरत में डाल दिया। क्या वाकई ऐसा हो सकता है? जिन दो लोगों के बीच के झगड़े में इतना बड़ा फसाद खड़ा हो जाए वे चंद महीने में ऐसे घुलमिल सकते हैं? मनहरन ने सारा किस्सा कह सुनाया। उसने यह भी बताया कि उसे आजतक नहीं पता कि बछिया आखिर मरी कैसे। चमरू से पूछने तक की उसने जरूरत महसूस नहीं की।
    ...चमरू चाहता तो चुपचाप अपने काम में लगा रहता और खटोला वाले मनहरन पर अपना कसर निकालकर भाग निकलते। मनहरन चाहता तो चमरू को जहां का तहां छोड़कर र चला जाता। उसे तो हल्की चोट ही लगी थी। दर्द मिटाने के लिए थोड़ी सी हल्दी और सरसों का तेल काफी था। फिर किसने ये सब दोनों को कराया? रमजान के पल्ले नहीं पड़ रहा था। कस्बा या बड़े शहर में लोग पड़ोसी तक को छोड़कर भाग निकलते हैं। जैसे अब्बा को तड़पता छोड़कर अमजद भाग आया था। उनके बीच कोई तल्खी भी नहीं थी। ये दोनों तो उस समय एक-दूसरे के जान के प्यासे नजर आ रहे थे।
    रमजान के माथे पर बल पड़ गए, उसने लंबी सांस ली और मनहरन से पूछा, ’तुम लोगों के बीच इतनी बड़ी दुश्मनी थी कि गांव के गांव उमड़ पड़े थे, फिर एक-दूसरे की मदद क्यों की?’
    ’हमन गांव के मनखे अन साहेब, एक गांव मं लड़बो-मरबो। एक कुरिया मं रहईया मन लो तो लड़थें, झगड़थें फेर एके हो जाथें। एके ठन बात ल धरे रहीबो त तो हो गिस काम। तुमन त पढ़े-लिखे मनखे हौ। हमर का हे, छोट-छोट बात मं लड़ पारथन। फेर ए घलो नई देखन के असल बात काए हे। पढ़े-लिखे होतेन त अइसन बातेच काबर होतीस।’ (हम गांव के लोग हैं साहब, एक गांव में लड़ेंगे-मरेंगे। एक कमरे में रहने वाले भी तो लड़ते-झगड़ते हैं फिर एक हो जाते हैं। एक ही बात को पकड़े रहें तो हो गया काम। आप तो पढ़े-लिखे आदमी हैं। हमारा क्या है, छोटी-छोटी बात पर लड़ जाते हैं। फिर यह भी नहीं देखते की असल बात क्या है। पढ़े-लिखे होते तो ऐसी बात ही क्यों होती।) मनहरन ने एक सांस में पूरी बात कह दी।
    रमजान जैसे सोच में पड़ गया। वह अपने अंदर देखना चाह रहा है कि क्या सचमुच वह पढ़ा-लिखा समझदार है या इस अनपढ़ गंवार मनहरन ने उसकी हंसी उड़ाई है।
    उनकी बात सुनकर चमरू ने अपनी पलकें खोली, धीमे स्वर में कहा, ’एक गांव मं काकर झगरा नई होवय साहेब, फेर आने गांव के बात आइस त हमन सब एके भाई अन।’ (एक गांव में किसका झगड़ा नहीं होता साहब, फिर दूसरे गांव की बात आई तो हम लोग सब एक भाई हैं।)
    रमजान चेतन-शून्य होकर मनहरन और बेड पर फिर से लेट चुके चमरू की आंखों को गौर से देखने लगा। मानों उनकी आंखें पढ़ रहा हो। लेकिन वह पढ़ भी नहीं पा रहा था और इस मामले में खुद को अनपढ़ महसूस कर रहा था। तो क्या ज्यादा पढ़-लिखकर आदमी आदमी को समझने में अनपढ़ बन जाता है। सरल लोगों की ऐसी सरलता ने उसके विचारों को वह तरलता दे दी थी, जिसे घाट-घाट का पानी पी चुके रहमान चाचा भी न दे सके थे।
    ’रमजान!जैसे रहमान चाचा की आवाज वह अब अच्छे से सुन पा रहा था। कहने लगे, ’वक्त ने पाकिस्तान की लकीर खींच दी रमजान। तुम आज के अपनों से नफरत कर उस बेगाने पर आंसू बहाओगे तो ये तुम्हारी गद्दारी नहीं तो और क्या है। नजर बदलो, नजरिया अपने आप अपना मुकाम खोज लेगा।नहीं यह तो अनपढ़ गंवार चमरू कह रहा है, क्या कह रहा है?, ’एक गांव मं काकर झगरा नई होवय साहेब, फेर आने गांव के बात आइस त हमन सब एके भाई अन।चमरू की इस बात ने उसकी पिछली धारणाओं को कुरेदकर रख दिया था। 
    वह अपने विचारों में बैठे लोगों को सवालों के कटरे में लाने लगा। फिर वो पाकिस्तानी कौन है? हां, गुनहगार है। मुंबई का रेलवे स्टेशन उजाड़ने वाला, हजारों र उजाड़कर सैकड़ों बच्चों को अनाथ करने वाला। मरने वालों में कितने हिंदू, कितने मुसलमान थे? उसकी बिरादरी को संदिग्ध किसने बनाया? उसे जवाब मिलने लगे थे। फिर शहीद होने वाला हसन कौन है? मुसलमान है फिर भी हरदिल अजीज क्यों हो गया? देशभक्त था इसलिए न, फिर पूरी बिरादरी को संदिग्ध होने के दाग से किसने मुक्त किया? हसन ने ही न, तो सच्चा मुसलमान कौन, हसन या पाकिस्तानी? वो सब ठीक है, ये बजरंगी कौन हैं? कहीं मेरा ही अक्श तो नहीं हैं बजरंगी। अब वह खुद अपने सवालों से घिर चुका था।
    रात साढ़े दस बजे उसके मोबाइल ने फिर अजान ए मदीना की धुन छेड़ी। स्क्रीन देखा, फिर से नया नंबर था। वैसे भी वह हर नए नंबर को पीके-1, पीके-2, पीके-3.... करके सेव करते जा रहा था, लेकिन हर बार नए नंबर से परेशान होकर उसने सेव करना ही छोड़ दिया था। उम्मीद के अनुरूप फिर वही आवाज नए नंबर से आ रही थी।
    ’शुक्रिया भाईजान! कमीशन के बाद दूसरा किश्त और ट्रांसफर किए जाने वाला अकाउंट नंबर भेज दिया हूं। ये काम कर दिए क्या?’ घराती आवाज उधर से आई।
    ’भेजा तो नहीं हूं, लेकिन चला जाएगा वाजिब जगह पर। आतंकवाद पीड़ित राहत कोष के खाते में बहुत जल्द।रमजान ने धीमे-धीमे स्वर में बुदबुदाए थे।
    ’अच्छा मजाक कर लेते हो बिरादरअनजान सख्श ने कहकहे लगाए थे, ’अबकी बार तो वे फंड बनाने वाले भी बौराने वाले हैं, समझ में ही नहीं आएगा कि हिंदुस्तान के किस-किस कोने में राहत भेजी जाए। भाईजान! इस बार सेंट्रल के चार जोन मिलाकर कुल आठ जोन का पैसा भेजा हूं। अब ऐसी तबाही होने जा रही है कि हिंदुस्तान की नस्लें याद रखेंगी। कश्मीर तो हमारा होगा और वक्त आपका।
    ’कुत्ते! मैं मजाक नहीं कर रहा हूं। अब ये सिम बंद होेने जा रहा है हमेशा-हमेशा के लिए। कान खोलके सून, मेरे हिंदुस्तान को नेस्तनाबूद करने से पहले अपनी औकात देख लेना। और हां, अब दोबारा कश्मीर की बात अपनी गंदी जुबान पर मत लाना। वरना कश्मीर मांगोगे तो साला चीरके रख देंगे।
    रमजान ने झट से फोन काट दिया और लंबी-लंबी कई सांसें ली। तभी एक आवाज बहुत दूर रसातल से फिर निकल आई... सब कौमों के दो-चार लोग भौंक रहे हैं और हम पूरे कौम के प्रति अपने मन में नकारात्मक सोच भर रहे हैं।फिर ठेठ गवइंहा अंदाज में सुना, ’आन गांव के बात आइस त हमन सबो एके भाई अन।
    इस बार की आवाज मनहरन, चमरू या रहमान चाचा की अनुगूंज नहीं थी। शायद रमजान के अंदर से ही निकल रही थी।
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