उनको करने दें ये हमारा काम नहीं:—

ये हम जो थोड़े—थोड़े इकॉनॉमिस्ट हैं, थोड़ा पॉलिटिशियंस हैं और थोड़ा बुद्धिजीवी का कीड़ा जो बैठा है खोपड़िया में ठोनकतेच रहता है बीच—बीच में। इस अलकरहा टाइप के दर्द को भूलाने कोई मोदी भक्त बना बैठा है तो कोई ऐसा लिख मार रहा है जिसे भक्तों के नजरिए से बराबर देशद्रोही करार दिया जा रहा है। बुजा के ह एके बात समझ म नई आत हे निपोर। वो ये कि जिनके उपर निसार होकर हम ये जो धारणा बना रहे हैं उन नेताओं का भी तो कोई एक दर नहीं है। कभी यहां तो कभी वहां। दर नहीं तो विचारधारा और नीतियां तो बदलते ही रहते हैं अपनी सहुलियत के मुताबिक।
   
 नोटबंदी को ही देख लीजिए, कभी कांग्रेसनीत सरकार ने 2005 के बाद के 500 के नोट बंद करने का विधेयक संसद के पटल पर रखा तो भाजपा की तत्कालीन प्रवक्ता ने बकायदा प्रेस कांफ्रेंस दे मारा उसके विरोध में। आज खुद उसकी पार्टी ने ये निर्णय ले डाला तो उ बबुआ नराज हो गया। अब क्या कहेंगे आप। भई इनके माथेच पे लिखा है जो विरोधी करे उसका विरोध करो। वो आम को आम कहे तो इनको इमली कहनेच है। वरना दुकानदारी कइसे चले। उधर मोदी काका कहत हैं कि एकेच झाड़ू में आतंकवादी, भ्रष्टाचारी, कालाबाजारी सबको पेल दिया। इधर धन्ना सेठ कह रहा है कि भई जइसन हुआ फेर अपना सेटलमेंट हो गया। इधर बैंक की लाइन में समारू कका के पेट का पोटा मारे भूख के सुख गया, तो उधर इसी माहौल में उनके ही मंत्री की बेटी की शादी में मेहमान छप्पन भोग हकन रहे हैं।
 अब हम लिए बैठे हैं एक लीक को। मोदी की ईमानदार कोशिश मतलब सब हरा ही हरा। कोई ठंड ज्यादा है कहे तो जवाब देने तैयार बैठे हैं कि क्या कांग्रेसी दौर में नहीं पड़ती थी ठंड। विरोध में हैं तो बेशर्मी के साथ यही कहने के लिए कि बिना बीवी का आदमी क्या समझेगा घर गृहस्थी का दर्द।
इसीलिए कहता हूं प्यारे, थोड़ा—थोड़ा के चक्कर में भट्ठा बइठारने से अच्छा है जनता हैं तो जनता ही बनने में नफा है। नाक में गोबर रखकर फूल सूंघने से फूल की नहीं गोबर की बू आती है। गोबर हटाइए और ठोंक बजाकर सही चीज वाजिब दाम में खरीदिए। क्या गारंटी है कि सेमसंग ​कभी डिफेक्ट माल नहीं बनाएगा और माइक्रोमेक्स धांसू।
    हमरा त एकेच फंडा है लल्लू, कोई बोले तो तोलो फिर बोलो पर अपना कोना बचाइच के बोलो।