गरीबों के सब्र का ‘चीर हरण’

"नईदुनिया के पत्रकार दिलीप यादव के FB वाल से साभार"
कभी एक-एक एक प्याली चाय बेचने वाले पीएम नरेंद्र मोदी गरीबी को नजदीक से समझते ही नहीं, बल्कि गरीबी का दंश भी झेल चुके हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान ‘अच्छे दिन आने वाले हैं...’ नारे के साथ मजदूर, किसान और गरीबों के बीच गए. मोदी का जादू कहें या अच्छे दिन की लालसा, भाजपा ने रिकार्ड सीटों से केंद्र की सत्ता पर वापसी की. इसी के साथ ही भाजपा शासित राज्य सरकारों के सामने पीएम मोदी के अच्छे दिन के वायदों को कागज से बाहर निकालकर लोगों के जीवन में साकार करने की चुनौती बढ़ गई है. खासकर रमन सरकार की, जिन्होंने राज्य की सत्ता पर हैट्ट्रिक बनाई है. अपनी तीसरी पारी के दौरान रमन सरकार और उनके नुमाइंदे यह कहते नहीं थक रहे हैं कि अच्छे दिन आने वाले हैं. पर किनके लिए? पत्थर से पानी निकालने वाले मजदूर, हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले किसान या दो जून की रोटी के लिए पलायन करने वाले गरीब. या फिर दूसरों की कमाई पर दलाली करने वाले व्यापारी या महलों में रहने वाले धनाढ्यों के लिए. 
रमन सरकार की तीसरी पारी की शुस््रआत से अब तक के कामकाज का आंकलन तो यही बयां करता है कि रमन राज में राम राज्य की कल्पना सिर्फ कोरी कल्पना ही है. भाजपा सरकार ने अपनी तीसरी पारी की शुस््रआत में समर्थन मूल्य पर धान खरीदी में कटौती और बोनस बंद कर किसानों की आंखों से खून के आंसू टपका दिए. राइस मिल और मंडी के दलालों क¨ अपनी खून-पसीने की कमाई औने-पौने दाम में सौंपने के बाद किसानों की आंखों से आंसू सूख ही पाए थे कि ध्न खेती-किसानी के मौके पर सरकार ने कृषि ऋण पर खिले फूल की जगह कांटे ब¨ दिए. यानी कि खाद-बीज और नगद ऋण की मात्रा 50-50 फीसद निर्धारित कर दी गई. विरोध में शोर-शराबा भी हुआ, लेकिन खाद-बीज और ऋण की मात्रा को 40-60 फीसद कर बुलंद होती गरीबों की आवाज को कारवां मिलने से पहले दबा दिया दिया. राज्य की सत्ता के दो कार्यकाल के बीच डाॅ. रमन गरीबों के बीच च¦र वाले बाबा के नाम से मशहूर हुए और तीसरे कार्यकाल में उन्होंने गरीबों के राशन पर पारी-पारी कैंची चला दी. पहले एपीएल का पूरा राशन बंद किया. फिर गरीबों के कोटे से दाल-गेहूं छीन लिया. बदले में एक बीपीएल कार्ड पर 35 किलो चावल देने का सब्जबाग दिखाया, लेकिन फिर से प्रति यूनिट चावल का कोटा तय कर दिया गया. अब बारी आई है गरीब परिवार के मासूम बच्चों की, जिन्हें सरकारी स्कूलों के युक्तियुक्तकरण के बहाने दूसरी जगह तालीम लेने जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है. इसके लिए जुमला यह फेंका जा रहा है कि राज्य में लिंग भेद को मिटाना है. इसी जुमले के सहारे राज्य के 2000 से अधिक सरकारी स्कूलों में ताले जड़ने की तैयारी पूरी कर ली गई है. सरकारी नुमाइंदों की जुबां पर सफाई यह कि कम दर्ज संख्या वाले स्कूल ही बंद किए जा रहे हैं. सरकार के इस निर्णय से बिलासपुर से लेकर सरगुजा संभाग तक, रायपुर से लेकर दुर्ग और बस्तर संभाग तक के पालक झल्ला गए हैं. अपने बच्चों के भविष्य को चिंतित अभिभावक भी सड़क पर उतर आए हैं. वे यही पूछ रहे हैं कि चौक-चौराहों, बाजार और सार्वजनिक स्थलों पर छेड़खानी की घटनाएं किसी से छिपी नहीं हैं. फिर सह शिक्षा के नाम पर लड़कियों क¨ लड़कों के स्कूलों में जाने मजबूर क्यों किया जा रहा है? आखिर गरीबों के सब्र का चीर हरण कब तक किया जाएगा? आंकड़े बताते हैं कि सह शिक्षा के नाम पर अकेले बिलासपुर जिले में ही 110 कन्या शालाओं को बंद कर दिया गया है. इसमें आदिवासी ब्लाॅक व भालू प्रभावित मरवाही, गौरेला व पेंड्रा के स्कूल भी शामिल हैं. छात्राओं समेत पालक उसी स्कूल में इस साल भी पढ़ाई कराने अड़े हुए हैं. इसके लिए आंदोलन का सहारा लिया जा रहा है, लेकिन अब तक का अनुभव यही कहता है कि गरीबों की आवाज में इतना दम नहीं है, जो ज्यादा देर तक टिक सके. हमेशा की तरह बगावत के इनके सुर को दमन कर दिया जाएगा. बात सब्र के चीर हरण की हो रही है तो महाभारत की द्रोपती के चीर हरण का भी जिक्र होना लाजिमी है. द्वापर युग में उनकी लाज बचाने वाले तो वासुदेव कृष्ण थे, लेकिन इन गरीबों की लाज बचाने वाला इस कलयुग में कौन है?