पैसे के गुलाम

आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता को जोड़कर देश—विदेश के सैकड़ों बुद्धिजीवियों ने सिद्धांतों के जुमले गढ़े हैं। इन सिद्धांतों को हमारे लोकतंत्र, खासकर विकेंद्रीयकरण के बाद इसकी आधारभूत इकाई गांव की परिस्थितियों से जोड़कर परखें तो स्थिति साफ हो सकती है। कहानी का नायक रघु के पास दोहरी जिम्मेदारी है। एक तो वह सरपंच प्रत्याशी का मुख्य कर्ताधर्ता है तो एक वोटर भी है। दोनों रूपों में ये बातें उसे कितना प्रभावित करती हैं उसे प्रस्तुत करने की कोशिश है पैसे के गुलाम ​राय जरूर व्यक्त करिएगा... 
     हां, मैं मानता हूं, रमाकांत सच कहता था कि गांव में रघु ही वो दीपक है, जिसकी आंधी में भी हरहराती लौ गांव के फटेहालों, मजदूरों और किसानों का भविष्य रोशन कर सकती है। भले कम पढ़ा-लिखा है, फिर जिस दिन वह टूट गया, उस दिन गांव की तकदीर रूठ जाएगी।
हालांकि यह भी सच है कि जब तक गांववाले गुलाम पसंद रहेंगे, पैसे के गुलाम, गुरमटिया में माधो गौंटिया के रहते कोई सरपंची नहीं जीत सकता। चाहे लाख बुद्धि और इच्छाशक्ति लगा लो। मेरे पैतृक ग्राम गुरमटिया का सरपंच प्रत्याशी रमाकांत जब भी बिलासपुर आता था, मुझसे चुनावी चर्चा किए बिना नहीं लौटता था। वह अपने पक्ष में शिक्षा, लोक-शिक्षा, मताधिकार, आरक्षण, मतदाता-जागरूकता वगैरह-वगैरह राजनीति विज्ञान की ढेरों टाॅपिक को आधार बनाकर तर्क देता था। गुलामपसंदी वाली बात सुनते ही मुझे मन ही मन गालियां बकता हुआ लौट जाता था।
रमाकांत जिस रघु की बात कहता था उसे मैं भी अच्छे से जानता हूं। अच्छे से क्या बचपन से। हां, दीपक जैसा ही था छत्तीसगढ़ के सबसे सघन आबादी वाले जांजगीर-चांपा जिले के अकलतरा ब्लाॅक अंतर्गत गुरमटिया गांव में रहने वाला रघुनंदन प्रसाद वल्द जगेश्वर प्रसाद केंवट उम्र बत्तीस साल। वह था तो उम्मीद थी, आकांक्षाएं थीं, सपना था। सपना ऐसे आदमी को सरपंची जिताने का, जो गांव के बनिहार, खंती-कुदारी करने वालों और वर्गीकृत विज्ञापन पढ़कर रोजगार खोजने वालों के साथ बराबर में बैठने वाला हो। उनका सुख-दुख उसका भी सुख-दुख रहे। रघु गुरमटिया में ऐसा सपना देखने वाले आठ-दस युवकों का नेतृत्व कर रहा था। उनके सामने माधो गौंटिया के खानदानी वर्चस्व, अकूत धन-दौलत और बात-बात में लाठी बिड़गा निकालने वाले लठैतों को पराश्त कर रमाकांत को गुरमटिया का सरपंच बनाने की दलहा पहाड़ जैसी चुनौती थी।
पहले तो मुझे इतने पढ़े-लिखे रमाकांत की रघु जैसे खिलंदड़ पर भरोसा करने वाली बात पर जोर की हंसी भी आई थी। क्योंकि जिस रघु को मैं बचपन में जानता था वह काम तो दीपक जैसा ही करता था, लेकिन किसी को रोशनी देने के लिए नहीं, बल्कि जलने वालों को जलाने और सताने के लिए। मुझे याद है, एक बार जब हम नागपंचमी पर दलहा पहाड़ चढ़ने गए थे तो डेढ़ घंटे की चढ़ाई उसने पचास मिनट में कर ली थी। जल्दी पहुंचकर यह देखने के लिए कि चोटी पर खड़े होकर मुतने से पेशाब सीधे जमीन पे आता है या चट्टानों पर ही रुक जाता है। शरारतों में ही गांववालों को नानी याद करा दी थी उसने। यही कारण था कि उसका बाप जगेसर और अम्मा सोनसरहीन उसे तारनहार कहते थे।
मेरी उसकी परवरिश उस गांव में हुई थी, खुद जिसका भूत, भविष्य और वर्तमान आज भी गौंटिया खानदान की कलम से तय होता है। कल्चुरी शासनकाल के राजाओं ने गांव-गांव में व्यवस्थापन की जिम्मेदारी जिन रसूखदारों को गौंटिया बनाकर सौंपी थी, उनकी पीढ़ियां आज भी उस नाम के साथ गंगा नहा रहे हैं। दानशील और अंग्रेजों के खिलाफ देशभक्तों का साथ देने वाले गौंटिया तो अपने साथ अपने वंशजों को तार चुके हैं। वहीं सैकड़ों गांव ऐसे भी हैं, जहां के जीवन स्तर का निर्धारण वहां के रुतबेदार गौंटिया की बेरहमी के स्तर ने तय किया हुआ है। गुरमटिया गांव भी उन्हीं में से एक है। प्रकृति ने यहां विकास की हर संभावनाएं दी हैं, लेकिन गांववालों को ये गौंटिया की पुरखौती हवेली से होकर जाने के बाद मिलती हैं। बताते हैं कि जिस साल इलाके में भयंकर दुकाल (अकाल) पड़ा था, तब माधो के दादा दीनानाथ गौंटिया ने इस तीमंजिली हवेली को गांववालों को अंकरी की बनी (मजदूरी) देकर बनवाया था।
          गौंटियाई भले बरसों पहले छीन ली गई हो, लेकिन माधो के खून में उसका तेज अब भी तैरता है। गौंटियाई नहीं तो सरपंची थी। नाम बदला था, काम और ठसक वही पुरानी। उसने गौंटियाई परंपरा में एक ही बदलाव किया था। बोलता बहुत मीठा था। समय की मांग भी थी। गांव वाले उसके इन्हीं दो मीठे बोल की चाशनी में डूबते रहते थे और फिर-फिर उसे चुनाव में जीताते थे। खुद किसी से टेढ़ा मुंह बात नहीं करता। भतीजों और ठेंगहों (लठैतों) से सबको पिटवाता। माधो के दम पर लोगों को दो पैसा उधारी देते, तो दस परसेंट के हिसाब से सालभर में दुगना हगवा लेते थे। उसमें फिफ्टी परसेंट शेयर माधो का रहता था। मजाल थी कि गांव का कोई केस थाने तक पहुंचे। बैठक लेकर खुद फैसला करता था और न्याय के बदले दारू-मुर्गा की पार्टी। अपराधी दूर फरियादी तक को नहीं छोड़ता था।
               जिस गांव की मिट्टी से लेकर घरों के छानही का खपरा तक गुलाम हो वहां रघु जैसा बागी बनने के पीछे की रामकहानी गुलामी से ही शुरू हुई थी। माधो ने चुनाव के लिए ठेंगहों की एक अदृश्य फौज पाल रखी थी जो चुनाव के समय विरोधियों को निपटाने के लिए ही प्रकट होती थी। रघु उन्हीं में से एक लड़ाका था। अपनी वाचाल प्रवृत्ति से उसने माधो के दिल में अच्छी जगह बना ली और बड़बोला भी हो गया। कुछ फैसले माधो से पूछे बिना भी करने लगा जिसमें गौंटिया पट्टी से जुड़े मामले भी थे। फिर क्या था, माधो ने उसे निपटाने में जरा सी भी देरी नहीं की। इधर रघु चाहता था कि माधो उसकी और उसके परिवार की अलग खातिरदारी करे। ऊपर से माधो ने रघु की गैरमौजूदगी में उसका जी जलाने के लिए गौरा विसर्जन में उसकी घरवाली रत्ना को कलश उठाने के लिए बुलवा लिया। बाद में जब उसे पता चला कि गौंटिया ने उसकी घरवाली को फक्क उजली साड़ी पहनाकर गली-गली घुमवाया है, तब से वह कटता चला गया। एक वक्त ऐसा आया कि उनके बीच अच्छी-खासी बहस हो गई और माधो ने उसे गोड़पोछना की तरह तिरिया दिया। तब से रघु गौंटिया के नाक के नीचे पुरखों के बनाए कायदे पर बराबर गड्ढा खोदते आ रहा है।
          रघु सूरज नहीं दीपक इसलिए था, क्योंकि न तो वह ठेकेदारी करता था न किसी सरकारी नौकरी में उसका भविष्य सुरक्षित था बल्कि काम के नाम पर गोपालनगर सीमेंट फैक्ट्री में ठेका मजदूर था। प्लांट को लाफार्ज कंपनी ने जबसे खरीदा था तब से उसकी रोजी महीने में बीस से घटकर आठ से दस दिन की रह गई थी। वह भी तब जब मालगाड़ी में क्लिंकर का खेप आए। वरना महीना बिना रोजी के ही बीत जाता था। हालत भले फटेहाल थी पर रघु के बाप फोटकहा जगेसर के हिसाब से पहले संतुष्टि की बात थी। वह खुद भले चींटी मारने की औकात न रखे, लेकिन रघु के माधो गौंटिया का लठैत रहने तक उसका घर-परिवार सुरक्षित था। माधो से अलगाव के बाद रघु के खटकरम अब फिर से उसे सालने लगे। नित नई हरकतें नए खतरनाक माहौल पैदा कर रहे थे। वह इसलिए कि अब माधो का हाथ नहीं, उसकी लात सिर पर मंडरा रही थी। और रघु था जो न नल में पानी भर रही माई लोगन की परवाह करता था न लाठी टेंकते हुए बाजू से गुजर रहे सियनहा बबा की, शुरू हो जाता था अपनी धुन में, 'का तैं... का तैं मोला मोहनी डार दिए गोंदा फूल, का तैं मोला मोहनी डार दिए ना...।'
माधो के खासमखास बिसाहू ने जब मुझे रघु के माधो से अलगाव की बात बताई, तब मुझे रमाकांत की उम्मीद पर थोड़ा भरोसा होने लगा था, क्योंकि महाभारत में अर्जुन ने जिस सारथी पर भरोसा किया था वह भी किसी जमाने में गोकुल की गलियों में गोपियों के कपड़े लेकर भागा था।
खैर, रघु जगेसर और सोनसरहीन से लेकर माधो गौंटिया की मंडली के लिए जैसा भी आदमी रहा हो, उसके चाहने वाले भी कम न थे। उसकी शरारतों से एक तानों, उलाहनाओं की बौछार करता, तो दूसरा असीस और दुआओं से झोलियां भर देता।
उसी दिन को देख लीजिए। गनेस-ठंढा (विसर्जन) से ठीक पहले वाली रात रघु की युवा मंडली रघु की अगुवाई में गनेस मंच पर डांस कंपीटिशन करा रही थी। माधो गौंटिया को पहली बार गनेस समिति की कार्यकारिणी से हटाकर संरक्षक बना दिया गया था। वह मंच पर बैठकर बस तमाशा देख सकता था। गुरमटिया से लेकर अकलतरा, लटिया, पामगढ़, अर्जुनी समेत दो दर्जन गांवों से आए छत्तीस प्रतिभागी रात के तीन बजे तक डांस के जलवे बिखेरते रहेे। तभी खाल्हेपारा के गिदरु के पोते कमलकांत ने मंच पर कदम रखे थे। कदम क्या रखे थे, माधो और गांव के दो-चार बुजुर्गों के सीने को दो फाड़ करते हुए नीलकमल वैष्णव के पान मीठा-मीठा रायपुर के मोहनी तोला खवातेंव... गाने के रीमिक्स वर्जन पर लटके-झटके भी दिखाए थे। सब रघु की शह पर।
        अगली अलसुबह गुड़ी में बैठे सरपंच माधो गौंटिया, बिसंभर, जीराखन, बिसाल, सीताराम, रामबली और रामधनी की आंखों में क्रोध की ज्वाला गोता लगा रही थी। तो गांव के उत्ती (पूर्व) में नीची जात वालों की बस्ती खाल्हेपारा में मानसाय के चौंरे (चौपाल) पर बैठे युवकों की आंखों में प्रतिशोध-तुष्टि की शांति तैर रही थी।
मैं दावा करता हूं कि बिलासपुर की अंदरुनी गलियों में सामने से छोटा क्लीनिक और अंदर पचास बिस्तर का अस्पताल चलाने वाले नेत्र रोग विशेषज्ञ भले पुतलियां देखकर इलाज करें, लेकिन उस दिन गुरमटिया गांव की इन दोनों मंडलियों के लोगों की आंखों में कोई लच्छन हर्गिज नहीं बता सकते थे जब तक कि वे रघु की युवा मंडली की आंखें न पढ़ लेते। गनेस ठंडा करते हुए नाचते गाते इन आंखों में आजादी का आनंद तैर रहा था। फैसले की आजादी। माधो गौंटिया भले नीची जाति के लोगों के घर बैठकर ठर्रा पीने के साथ कुकरा, बोकरा (मुर्गा, बकरा) खा सकता था, लेकिन उन्हें सामाजिक तौर पर शामिल करने की बात पर, नहीं हर्गिज नहीं। रघु ने माधो की नाक के नीचे उनका सामाजिक क्या धार्मिक प्रवेश करा दिया था।
यह घटना गुरमटिया के लिए इसलिए बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि गांव के सबसे उम्रदराज एक सौ पांच साल के मंसा डोकरा और उसके भी बाप के पैदा होने से पहले की किसी भी पीढ़ी के आदमी ने किसी गौंटिया की आंखों में आंखें डालकर बात करने तक की हिम्मत नहीं की थी। फैसला लेना तो दूर की बात है। उस गांव में रघु ने माधो गौंटिया की चूलें तो नहीं खिसकाई थीं, लेकिन नीची जात के लोगों को देवी-देवता के पंडाल पर नहीं चढ़ने देने के एक अघोषित कायदे पर नई पीढ़ी का वार तो कर ही दिया था।
उस दिन लीलागर नदी के खड़ के टिकरा में ढेलवानी रचने (मेढ़ बनाने) के बाद घटौंधा पर नहाने गए फोटकहा जगेसर को लोगों ने घेर लिया और गनेस मंच वाले मुद्दे पर जमकर घुट्टी पिला दी। तभी उसे लगा कि जैसे माता-चौंरा की माता ने उसके मस्तक पर भाल घुसा दिया हो। उसके अवचेतन से उसके ददा की बचपन में सुनाई कहानी याद आ गई, 'गांव में छूत लगने से घरोंघर लाशें निकल रही थीं। तब माधो के आजा बबा लछमन गौंटिया को माता ने सपने में आकर कहा कि गुड़ी से लगे उनके आसन के पास किसी अछूत के लगे पांव के निशान को दूध से धुलवाओ। गौंटिया ने अगले ही दिन इक्कीस सेर दूध से आसन को धुलवाकर गंगाजल छिड़कवाया। उसी दिन खाल्हेपारा का मनोहर कोढ़ी हो गया। और तो और तुतारी से हुरसकर मनोहर को आसन की तरफ धकेलने वाला फदहा राउत जनमभर के लिए लंगड़ा हो गया था।’ जगेसर को माता के प्रकोप से भी ज्यादा डर माधो गौंटिया का था।
जब वह घर पहुंचा तो उसकी नजर रघु को तलाश रही थी। गले में लिपटे गमछे के दोनों छोर को हाथ में लेकर होंठ के आजू-बाजू में फूट आए पसीने और सूखे लार के मिश्रण को पोंछा और परछी में अनमने ढंग से खड़ा हो गया। एक कोने में सोनसरहीन आधा पालथी मारकर एड़ी के ऊपर परसूल दबाए साग काट रही थी और रत्ना अपना भारी पेट लेकर खटिया में पसरी थी। उसने पास जाकर सोनसरहीन को घुरते हुए ही गुस्से से बोला, 'तारनहार सोकर उठ गया या सो ही रहा है।'
     ’नौ बजे उठा है और भोला के ठेला के पास खड़ा है।’
     ’गांव भर एके चर्चा हे।’
     ’काए बात के?’
     ’कि जगेसर के बेटे ने गांव के नियम कायदे को जुन्ना डबरी में डूबा दिया। साक्षात माता चौंरा वाली माई का कोप लगेगा। ऊपर से पता नहीं माधो गौंटिया क्या खेला करेगा।’ आंखों में उठ आई लालिमा को उघाड़ते हुए जगेसर की भवें तन गई थी, बोला, ’क्या जरूरत थी खाल्हेपारा के लड़के को गनेस मंच में चढ़ाने की। गांव की भी एक मरजादा होती है। अपने साथ हमारी भी नाक कटवा दी।’
     सोनसरहीन साग काटना छोड़ रंधनी खोली गई और भड़वा में बासी, कटोरी में मिर्चा चटनी और गोंदली लेकर प्रकट हुई। तब तक जगेसर प्लास्टिक की फटी बोरी बिछाकर बैठ गया था। सोनसरहीन ने भड़वा को रखते हुए कहा, ’बिरस्पति दीदी गौंटिया घर गई थी तो सुनी है, गौंटिया  संझा बेरा पंचायत जोड़ने की बात कह रहा था।’
    पंचायत का नाम सुनते ही जगेसर के पेट में डर का गोला नाचने लगा। फैसले के डर से उस दिन उसका पूरा समय उलझनों में ही बीता। शाम को अपने चौंरा में बैठकर पउआ में पटुआ फंसा-फंसाकर डोरी बरता था तो उसके मन की भांति डोरी भी बार-बार उलझ जाती। बाकी कसर कोटवार ने माधो के चौंरा में रात का खाना खाने के बाद बैठक जुरने का बलाव देकर पूरी कर दी। जगेसर ने मन बहलाने के लिए पउवा पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की। बाहर झिंगुर का शोर एकाएक बढ़ गया, जिसमें घोंसलों में लौट रही गुड़ेरिया चिरई की चूं-चूं भी दब गई। जैसे गौंटिया पट्टी वाले बैठक में हो-हल्ला मचाते हैं और एक महीन स्वर दब जाता है। फरियादी और आरोपी एक बार फिर विचार कर लें...., बोलो पंचों का फैसला मंजूर है।...’ मेरे गवाह को भी आने देते मालिक।...’
     रात हुई तो भोजन गले से ही नहीं उतरा और भूखन पेट ठीक आठ बजे माधो के चौंरे पर पहुंच गया। बैठक में चर्चा उठी कि खाल्हेपारा के युवक ने गनेस मंच पर चढ़कर गांव के रिवाज को तोड़ा है। रघु की मंडली को दोषी ठहराया गया और कर्ताधर्ता होने के नाते असल गुनाहगार रघु को।
     रघु ने भी बीच बैठक में पहुंचकर बात रखने की अनुमति मांगी तो माधो को सबक सीखाने का अवसर मिल गया, बोला, ’अब पूछे के का बात हे यार, गांव मं बड़े-छोटे, ऊंच-नीच, जात-मरजादा नाम का कुछ रह ही क्या गया है जो पूछना पड़े।’
     माधो की फटफटी में बैठकर पार्टियों में चना-चबेना खाने जाने वाले बिसाहू ने रजिस्टर में आरोप का पूरा विवरण लिखकर सबको सुनाया, ’फरियादी और आरोपी भाई लोग, एक बार फिर विचार कर लें, बताओ पंचों का फैसला मंजूर होगा कि नहीं।’
    बैठक में आने से पहले ही जगेसर को पिछली बैठकों से आकर अवचेतन में बैठ चुकी इस संवाद की अनुगूंज सुनाई दे चुकी थी। जज का कथन कभी-कभी वकील के दलील से प्रेरित या पुलिस की फाइल में दर्ज कोरा विवरण ही तो होता है, लेकिन न्यायिक गरिमा का खयाल आते ही शिरोधार्य हो जाता है। जगेसर की गर्दन झुक सी गई। अंदर कलेजा बाहर आना चाहता था, लेकिन इस झुकाव में फंस गया था।
    अचानक रघु ने एक ही बात कही कि सभा में सन्नाटा पसर गया, ’नीची जाति के युवक कमलकांत मलंग को गनेस मंच पर चढ़ाने का आरोप, क्या बात है। तुम लोग इधर मुझे डांड़ करवाओ उधर मैं थाने जाता हूं। इधर-उधर का थाना नहीं, कमलकांत को लेकर सीधे हरजन थाना। लिखने वाला तो पकड़ाएगा ही, फैसले में जिनका-जिनका दसखत रहेगा उनको भी न बंधवाया तो कहना।’
    पुलिस के नाम पर थर-थर कांपते बिसाहू ने रजिस्टर से वह पन्ना ही चिरकर अलग-थलग हवा में उड़ा दिया। एक-एक करके सभी बैठक छोड़कर खिसकने लगे। रघु भी जगेसर के साथ निकल गया। तब माधो ने चिहुंरते हुए कहा, ’स्साले ननजतिया..., काल के कोला म हगइया टूरा आज हमीं ल बिजरावत हे। न मैं किसी पुलिस से डरता हूं, न किसी हरजन थाना से। लगा दूं क्या किसी को इसके पीछे। राजनीति करना ही छोड़-भुलाएगा।’
    ’अरे रहने दो माधो, मरे हुए को क्या मारोगे, साले जिसके पास एक खांड़ी का खेत नहीं है उससे क्या बदला लोगे। तुम देखते तो जाओ, एक दिन तुम्हारे पैर पर नहीं गिरा तो कहना।’, बिसाहू ने माधो को समझाया।
     फिर कोने में ले जाकर एक और गूढ़ बात कही, ’ये भी तो सोचो, चार महीना बचे हैं चुनाव को, हिंदूओं के लिए तो वीर बन जाओगे, फिर खाल्हेपारा वालों का एक भी वोट नहीं मिला तो बुद्धि ठिकाने आ जाएगी, इसलिए फूंक-फूंककर पैर रखो।’
     ’ठीक कहते हो यार, आजकल नए-नए लड़के पैदा हुए हैं, कब कौन चुनाव में खड़े हो जाए क्या ठिकाना, हिंदू का वोट तो कटेगा, खाल्हेपारा वालों का वोट भी छीन गया तो कहीं का नहीं रहेंगे।’ मन में रघु का खयाल लाते ही माधो को लगा जैसे रेत मुंह में आ गया हो। उसे जीभ से साफ करते हुए वह घर में दाखिल हो गया।
     रघु और जगेसर घर लौटे तो दोनों आपस में ऐसे मुंह बनाए चल रहे थे मानों दोनों ने सात जन्मों से बात न की हो। अंधेरे में चलते जगेसर के हाथों में धूंए से काली हुई तेंदू की मोटी लाठी थी। राह में कुत्ते भौंकते तो जगेसर उसे उठाकर ताकीद करता कि पास आके तो दिखाओ, जबड़ा न तोड़ दिया तो कहना। लाठी जगेसर के रातों का हमसफर थी। रात-बिकाल खेत में पानी पलोने जाता तो इसे ले जाना नहीं भूलता था। वह इससे दो दर्जन से ऊपर सांप-बिच्छूओं को देवदर्शन करा चुका था। हां मगर किसी आदमी से पाला पड़ जाए, तो वह उस लाठी के नाम तक से कांपता था। कहता, ’क्या पता गुस्सा तो है, कभी किसी के सिर को पड़ गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे।’, रघु इस लाठी से चिढ़ता था। उसका मानना था कि इसी लाठी ने बाबू को भिरु बना दिया है।
     ‘समझा अपने बेटे को, चार महीने में चुनाव आने वाला है। फिर जानती हो, गौंटिया के नए-नए छोकरे मार्शल में लाठी-बिड़गा लेकर कैसे घूमते हैं। कहां के गड्ढे में बोरे में लपेटकर घुसा देंगे पता ही नहीं चलेगा।’ जगेसर ने दरवाजा खोलने आई सोनसरहीन को रघु की ओर इशारा करते हुए कहा।
     ‘कभी तो शुभ-शुभ कहा करो, जब देखो मरनेच-हरने की बात। मेरे बच्चों के बारे में तो और कुछ मत कहा करो। कब अपनी ही बात दोख बन जाए कोई ठिकाना नहीं।’ सोनसरहीन ने खिसियाते हुए जगेसर से कहा। फिर पूछा, ’का बात होइस बैठक मं।’
    ‘बेटा ल समझा, मां-बाप की गुलामी पसंद नहीं आई तो अलग हो गया। अब क्या दुनिया की गुलामी पसंद नहीं है तो दुनिया को छोड़ेगा। गांव-समाज के नियम-धरम को मानने के लिए झुकना ही पड़ता है।’ खाट पर बिछे चद्दर को झाड़कर एक ओर करते हुए जगेसर ने कहा और बीड़ी सुलगाकर पीने लगा।
      रघु को तो जगेसर की बातों से कोई मतलब ही नहीं था। सीधे अपने कमरे में दाखिल हो गया। बिस्तर के आधे हिस्से में लेटी उसकी पत्नी रतना ने कुनमुनाते हुए आंखें खोली और पेट में पल रहे बच्चे के साथ दोहरी वजन को खिसकाते हुए बोली, ’आज बच्चे ने मेरे पेट में उधम मचा दिया है, रह-रहकर लात ही लात मार रहा है, आप पर ही जाएगा लग रहा है।’
रघु ने रतना के उघड़े पेट पर नाभि के ऊपरी हिस्से को चुमकर उंगली दिखाते हुए कहा, ’दुनिया में जीना है बेटा तो ठसक के साथ जीना, लुंजुर-पुंजुर जीना जीना नहीं है, बाबू जैसे लाठी छिपाने वाले धरती के बोझ हैं, तुम्हें बोझ नहीं बनना है।’ एक जोर की लात पेट के अंदर से रतना को पड़ी और वह हक्क से रह गई।
    हर गांव में एक ऐसा दल जरूर होता है, जो फटे पर टांग अड़ाता है। फाड़ तो नहीं पाते लेकिन कपड़े का मोल-तोल लोगों को जरूर बता देते हैं। गुरमटिया में भी ऐसा ही एक दल भोला के पान ठेले पर जुरता था। देश-दुनिया की बात होती थी और घूमते-फिरते गांव के मुद्दे और इतिहास से लेकर माधो की सरपंची और भ्रष्टाचार पर समाप्त होती थी। रघु का माधो से अलगाव से पहले पान ठेला चलाने और आसपास के गांवों में रमाएन गाने जाने वाला भोला उनका नेता हुआ करता था। तब रघु उन्हें विकास विरोधी मानता था। अब वह खुद उनका नेता बन गया था। बीच-बीच में ग्राम सभा की बैठक में भी गुरमटिया के ये स्वयंसेवक माधो को औकात दिखाने लगे थे। रघु के पास तो माधो के खिलाफ ढेरों कच्चे चिट्ठे भी थे।
    रघु की उसी टोली में एक स्वयंसेवक था रमाकांत, जिसने गुरु घासीदास विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एमए किया हुआ था। नौकरी के लिए अच्छा-खासा हाथ-पांव मारने के बाद थक-हारकर अब वह रसेड़ा गांव के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने जाता था। क्रांतिकारी विचार बचपन से ही पल रहे थे और प्रौढ़ावस्था में आने से पहले ही पिता की असामयिक मौत से मिले संघर्ष ने उसे और बढ़ा दिया था। उसे रघु जैसे कम पढ़े-लिखे आदमी का नेतृत्व पसंद नहीं आता था और गांव की व्यवस्था से भी चिढ़ता था।
    ’पुराने सियान तो अंगूठा छाप हैं, आजकल के नए लड़के भी पढ़ाई छोड़कर रोजी-मजदूरी करने लगे तो गांव का कभी कल्याण नहीं होगा। माधो की गुलामी की असल जड़ तो शिक्षा की कमी ही है।’ एक दिन रमाकांत ने पान को मुंह में भरकर चूना चाटते हुए रघु से कहा था।
    ’बात तो सही है। फिर पढ़ाई ही सब-कुछ तो नहीं। आदमी के पास तन पर पहनने के लिए एक कपड़ा तक नहीं है उसे तुम चुनाव लड़ने को कहो तो क्या संभव है। फिर पढ़ा-लिखा आदमी भी क्या कर रहा है। पंचायत में जाकर फटर-फटर मारने बस से कुछ नहीं होता। उसके लिए लड़ना-भिड़ना पड़ता है।’ रघु का जवाब था।
    बात पर बात बढ़ती गई और रघु ने रमाकांत को सरपंची चुनाव लड़ने की चुनौती दे डाली। यहां तक कि उसने कदम से कदम मिलाकर साथ देने का वादा भी कर दिया। लगे हाथ आठ-दस साथियों ने भी रमाकांत को उचका दिया। रमाकांत जानता था कि ओबीसी होने के नाते भले ही उसे संविधान में प्रदत्त शक्तियां मिली हैं पर वे यहां काम नहीं आने वाली। आरक्षण सामाजिक आधार पर जरूर मिला है, लेकिन उसी समय की सामाजिक व्यवस्था के हिसाब से ही इसे कुछ और होना था। अपनों के बीच गरिया दिए गए कुछ शोषित ब्राम्हण, ठाकुर और वैश्य समाज के लोगों और ओबीसी, एससी, एसटी के गौंटियों, जमींदारों, राजाओं के वंशजों पर विचार किया जाता तो स्थिति कुछ और होती। बारहवीं की परीक्षा के लिए उसने नेहरू के कथन आर्थिक आजादी के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता की बात कहना बेमानी है को भी अच्छा-खासा रट लिया था। माधो भी तो ओबीसी में आता है, लेकिन उसे चुनौती यानी नेवले को सांप की चुनौती।
     रमाकांत ने तत्काल हामी नहीं भरी, लेकिन बार-बार कहने का उस पर असर हुआ और वह चुनाव लड़ने को तैयार हो गया।
     अगली सुबह गुरमटिया में हर दिन उगने वाला वहीं सूरज उगा, लेकिन रघु की युवा टोली की स्फूर्ति ने मिजाज में नई ताजगी घोल दी थी। वे पूरे दिन गली-गली घूमकर माधो के किए भ्रष्टाचार के काले कारनामों को उजागर कर गांव के आकाश में गौंटियाई सल्तनत की चिमनी से रच-बस चुकी कालिमा को उजला करने के असंभव से काम को संभव करने की कोशिश कर रहे थे। फिर वह दिन भी आया जब रमाकांत ने चुनाव में नामांकन दाखिल कर दिया। अब तो गांव के हर कोने में एक ही बात की चर्चा थी, चलो कोई तो आया मुकाबले में। गांव की गुड़ी और भोला व गिरधारी के पान ठेले से लेकर माधो की मंडली और उसके बेडरूम तक वहीं गूंज सुनाई देने लगी।
     रघु ने तो सारा बीड़ा उठा लिया था। उसके मन में रमाकांत की जीत से ज्यादा माधो की हार की चाहत थी। मोहल्ले के बुजुर्गों और सहपाठियों का दल बनाकर घर-घर केनवासिन में जाता था। रात में योजनाएं बनती तो दिन में उसे अमलीजामा पहनाते। रघु के सिर का पसीना पांवों से होकर जमीन पर चूंता था। शुरू-शुरू में उन्हें कहीं-कहीं ही तारीफ मिलती थी। बाकी तो उलाहनाओं का बोलबाला था। कोई कहता तुम लोग माधो का एक मेछा नहीं उखान सकोगे, तो कोई गांव की परंपरा की दुहाई देकर उनकी चुनौती को गौंटिया बिरादरी का अपमान कहता था। वहीं ऐसे लोगों की कमी भी नहीं थी, जो माधो की कारगुजारियों को समझने लगे थे और उसके फैसले से सताए हुए थे। वे खुले दिल से आशीर्वाद देते थे। पैरों तले जमीन खिसकते देख माधो कुछ भी करा सकता था। कुछ भी यानी लाठी, डंडा और बेल्ट की भाषा में भी बात कर और करवा सकता था। रघु ने इससे निपटने का प्रबंध भी करा लिया था। ’देख लेबो, माधो के टूरा मन के गांड़ मां कतका दम हे।’ रघु अक्सर कहा करता था। कहता क्या था, अपनी मंडली के लोगों के मन में पैठ चुके डर को साधने की कोशिश करता था। कभी मन बहलाने के लिए करमा-ददरिया का ताल ही छेड़ देता था, ’चौंरा मां गोंदा... चौंरा मां गोंदा रसिया, मोर बारी मां पताल रे चौंरा मां गोंदा।’
    पिछले तीन दिन से उनका सघन प्रचार जारी था। सुबह आठ बजे निकलते, तो बिना दो पल सुस्ताए दो बजे तक तीस-पैंतीस घर निपटा देते थे। फिर शाम को पांच बजे शुरू कर दस बजे तक आंकड़े को साठ के आसपास पहुंचाते थे। जैसा आदमी मिलता उसे उसी की भाषा में समझाने की कोशिश होती थी। दिनभर थकने-हारने के बाद रमाकांत के कोठार में महफिल जमती। इस बीच अगले दिन की रणनीति बनती, तो दिन में मिले अनमने विचारों के कुलबुलाते कीड़े को पउवा और चेपटी के कड़वे रस से मारने का उद्यम भी होता था। अभी उसी का वक्त होने जा रहा था।
     ’हम तो भईया रे, सांसद, बिधाएक के चुनई मं भी माधो जेला कही ओई ल वोट देबो। फिर खुदे वही खड़ा है तो क्यों छोड़ेंगे। पुरखा का चलागत है, हम गोड़पोछना हैं तो वह राजा है। राजा अरियाए के गरियाए परजा का धरम है राजा का साथ देना।’ कमर पर रखे हाथ को उठाकर मटकाते हुए बचन डोकरी ने अपने घर के ओसारे में खड़े रघु, मदन, मुरारी और रमाकांत से कही। रमाकांत को उसी बात को आज तेरहवीं बार दोहरानी थी। ऐसे में उसने खुद पीछे जाकर रघु को आगे सरका दिया।
    ’कस ओ दाई, किस जमाने में रहती हो। ये राजा-रानी का जमाना नहीं है। अपनी किस्मत की मालकिन तुम खुद हो। राजा के राज मं गौंटिया मन भले आगी मं मुतंय, अब हम चाहें तो उसका कुछ नहीं चलने वाला।’ रघु ने जवाब दिया।
    फिर रमाकांत को आगे किया, कहा, ’ये देखो, रमाकांत को पहचान लो। और इसके छाप चश्मा को भी पहचान लो। अपना और अपने गांव का भला चाहती हो तो वोट के बखत याद रखना।’
    ’अ.....रे!! रमाकांत, तखतपुरहीन के बेटा। जुग-जुग जी रे बेटा। तोर बर आसीस हे रे। तुम ही तो अपने घर के तारनहार हो बेटा। फिर क्या करोगे, दरूहा-गंजहा लोगों को कौन समझाए । हम गरीबों की भी क्या गलती है। जिनके घर एक जून की रोटी की जोगाड़ नहीं वो वोट की कीमत क्या जानेगा। बिक जाते हैं बेटा बस खरीददार चाहिए।’
    रघु उसकी बात को अच्छी तरह समझ रहा था। पिछली बार वह खुद माधो के साथ चुनाव की पहली रात उसके घर साड़ी देने आया था। माधो ने एक उजली साड़ी उसके लिए तो एक लाल साड़ी उसकी बहू के लिए दिया था। वे कुछ देर तक पानी-बादर और गरुआ-बछरु के चरागन (चारागाह) की कमी जैसी गैर-चुनावी बातें करते रहे। ’ठीक हे दाई, फेर आबो’ कहते हुए रघु बाहर की ओर निकला गया। उसके पीछे-पीछे सभी निकल गए। वह जानता था कि ऐसे बेशरम लोगों को बातों से नहीं नोटों से काबू किया जाता है।
    दो दिन बाद माधो का चुनाव-प्रचार शुरू हुआ। बकायदा जीप में बैठकर एक आदमी पर्चा गिराता हुआ माइक लगाकर चिल्लाता था और माधो की महिमा गाता था। तो खुली जीप में माधो का बेटा, उसके दोस्त और माधो के भतीजे घूमते थे। ऐसे गैर जरूरी काम में माधो खुद नहीं जाता। हर बार की तरह इस चुनाव में भी उसकी मिठास बढ़ गई थी, जिसे होठों में लेकर वह चुनाव की अंतिम रात विशेष उपहारों के साथ लोगों के घर पहुंचने की तैयारी में जुट गया था।
देखते-देखते वह दिन भी आ गया, जिसके अगले दिन मतदान था। चुनाव से पहले वाली रात को कत्ल की रात मानी जाती है। क्योंकि इसी रात पांच साल तक बराबर साथ देने वाले की भी बात पर कायम रहने की गारंटी नहीं रहती। कहते हैं इस रात को जिसने साध लिया, समझो चुनाव में जीत उसी की होगी। शराब की नदिया बहती है तो घर-घर साड़ी, गमछा और रुपयों का उपहार बंटता है। वहीं दूसरे के उपहारों पर भी नजर रखनी पड़ती है। उसी के लिए रणनीति बननी थी। माधो के आंगन में जमघट लग गई, तो रघु की सेना रमाकांत के कोठार में इकट्ठी हुई।
रघु ने रमाकांत के माथे की शिकन देखी तो माहौल को हल्का करने लक्ष्मण मस्तुरिया के गाने को आजमाया-
    ’बखरी के तुमा नार बरोबर मन झूमरे,
     डोंगरी के पाके चार ले जा लानी देबे,
     ते का नाम लेबे संगी मोर,
     बखरी के तुमा नार बरोबर मन झूमरे...’
     वफादारों की पूरी फौज आ गई तो रघु ने रमाकांत से कहा, ’सब तो ठीक-ठाक चल रहा है रमाकांत, फिर डर एक ही बात का है।’
     ’किस बात का यार।’
     ’खाल्हेपारा के आखिरी के बारह घरों में दोबारा कहना था। जानते हो आदमी एक आखर बात का भूखा रहता है।’
     ’हौ यार, हमारे बोनस तो वहीं लोग हैं।’
     ’कहीं माधो हथिया लिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। असली वोट तो उधर से ही आते हैं।’
     ’तुम क्या करोगे, आज दिन में इसी काम को निपटाना है। हम रात वाला काम नहीं रखेंगे।’ रमाकांत ने मुस्कुराते हुए कहा।
     ’एकदम भोकवा हो यार। आज ही तो कतल की रात है। फिर तुम्हारी कंजूसी ने मार डाला। कितना भी ईमानदार रहो, ये चुनाव है मेरे बाप। एक-एक कुर्ते का कपड़ा तक नहीं बांटोगे तो वोट नहीं ठेंगा मिलेगा।’
     ’ठीक हे यार, फिर तुम भी अकलतरा जाओगे तो जाकर ले आएंगे। मेरा तो जी डरा रहा है। कभी हार गए तो क्या होगा। बीस हजार रखा था वो गया। तीस हजार उधारी भी चढ़ गया है।’
    ’इसीलिए कहते हैं यार चुनाव माधो जैसे कलेजे वालों का है। तुम्हारे जैसे डरपोक के बस की बात नहीं है। मुझे पहले मालूम होता तो तुम्हारा साथ नहीं देता।’ रघु ने उंगली चटकाते हुए कहा। सभा में कुछ देर के लिए खामोशी छाई रही। यह ऐसी खामोशी थी, जिसमें जीत की सुगबुगाहट दिखने के बाद भी एक डर हावी था। रघु को भी लग रहा था कि लंका में बारूद बिछ चुका है। बस चिंगारी की देरी है। लेकिन एक फूंक भी लौ पर पड़ी तो सब किए कराए पर पानी फिर जाएगा।
     बैठक चल ही रही थी कि रघु के पड़ोसी मुरारी का बेटा लल्लू हांफता हुआ आया। उसने रघु को दूर ले जाकर कान में कहा, ’भइया, भउजी के पीरा उसले हे (दर्द उठा है)। दादी ने तुम्हे तुरंत बुलाकर लाने भेजा है।
     रघु धक्क से रह गया और माथे पर बल पड़ गए। उसने आहिस्ता से पूछा, ’किसी दाई को बुलाए हैं रे घर में।’ इतना कहते हुए वह बिना जवाब की प्रतीक्षा के वहां से निकलने लगा। जल्दबाजी में रमाकांत से भी कुछ नहीं कहा। यंत्र की भांति बस घर की ओर चला जा रहा था।
घर पहुंचकर देखा तो परछी में मोहल्ले की औरतों की भीड़ जमा थी। जगेसर मोतीलाल के दुकान खोली में क्लीनिक चलाने वाले पकरिया के डाॅक्टर के साथ खाट पर बैठकर बतिया रहा था।
रघु को सामने देखकर उसने खिसियाकर कहा, ’हर बखत बस चुनई चुनई अउ चुनई। घर की थोड़ी भी संसो फिकर है। ऐसा लग रहा है कि रमाकांत का सगरी बोझा तुम्हारे ही कंधे पर है।’
रघु ने सकुचाते हुए डाॅक्टर से पूछा, ’कैसा हाल है डाक्टर साहब, नारमल होने का चांस है या अकलतरा ले जाना पड़ेगा।’
    डाक्टर रतना को दर्द बढ़ाने वाला दो इंजेक्शन लगा चुका था। सीरिंज व एंपूल की छोटी डिबिया को चमड़े के काले बैग में डालते हुए उसने कहा, ’पहली बात तो यह कि अप्रषिक्षित दाइयों का कोई भरोसा नहीं। किसी प्रषिक्षित नर्स को बुला लाइए। फिर तीन घंटे का समय है, चाहें तो इंतजार कर सकते हैं। या फिर अभी अकलतरा ले जाइए। बात घबराने की नहीं है, लेकिन अस्पताल में डिलीवरी को ज्यादा सुरक्षित माना जाता है।’
    डाक्टर के जाने के बाद जगेसर ने सोनसरहीन से घर में रखी कुल जमा रकम की जानकारी ऐसे ली मानों वह नहीं जानता कि सोसाइटी से दो रुपए किलो के भाव से मिले चावल का आधा अकलतरा के सेठ को तेरह के भाव में बेचकर आजकल बाकी के सामान आ रहे हैं और कोला (घर के पिछवाड़े) के अमली पेड़ से अमली झाड़कर बेचने से मिले पैसे से रतना के अंधरौटी का इलाज हुआ है। बीते नौ महीने में आयरन और कैल्शियम की गोलियां व मंथली चेकअप तो बेचारी ने जाना ही नहीं।
     सोनसरहीन अपने लच्छे, करधन और बिछिया को दो दिन पहले ही उतारकर एक थैले में लपेटकर रख चुकी थी। उसे लाकर जगेसर के हाथ में थमा दी। उसे पहले से ही इस अप्रत्याशित खर्च की प्रत्याशा थी।
    जगेसर ने थैले को हाथ में लेकर कहा, ’सबको बेचोगे तो गाड़ी के किराए और इलाज में ही खर्च हो जाएगा। गिरवी रखने से गाड़ी के लिए ही हो पाएगा।’ इसके बाद वह रघु की ओर मुखातिब हुआ, ’जाओ तो तुम लटिया के नर्स मैडम को ले आओ, मैं पैसे की व्यवस्था करता हूं।’
    जगेसर घर से निकलकर सीधे रतनलाल के ज्वेलरी शॉप कम गंवईहा शॉपिंग माॅल में पहुंचा। गांव में यही उसके गहने, जेवर, खेत गिरवी रखने का एकमात्र ठिकाना था। क्योंकि उनके एवज में उसे पांच परसेंट ब्याज में पैसा मिल जाता था।
    जगेसर ने देखा कि दुकान में सोनार नहीं सोनारीन बैठी है। वह भी सीधे दुकान में नहीं, बल्कि उससे लगे अंदर के गोदामनुमा कमरे में। एक औरत पानी भरने वाले बर्तन से धान को बड़े कांटा में उड़ेल रही थी। रतनलाल ने मोहल्ले की चोट्टी महिलाओं की सुविधा के लिए ही किराना दुकान और अलग कमरा बनवाया था। सोनारीन की नजर जगेसर की ओर हुई तो उसने हाथ के इशारे से सोनार के बारे में पूछा। सोनारीन ने बताया कि वह माधो के घर गया है।
    जगेसर भी जानता था कि गांव के जितने प्रतिष्ठित पेशे वाले हैं वे माधो की शह पर काले को सफेद करते हैं। चुनाव में वे माधो का एहसान चुकाने में लग जाते हैं। इस बार भी दस परसेंटिहा ब्याज वाले तो पहले दिन से भिड़ गए थे और सोनार भी दुकान छोड़कर पिछले दो दिन से केनवासिन में जा रहा है।
    जगेसर के माथे पर बल पड़ गए। उसे कोई शक नहीं था कि सोनार से भेंट करने पर उसे माधो का भी सामना करना पड़ेगा। घर की परिस्थिति से भी दिमाग भन्नाया था। एकबारगी मन में आया कि क्यों न दस परसेंट वालों को आजमा लिया जाए। उसने गली पर चलता हुआ अपना रास्ता बदल लिया। मनबोधी घर में नहीं मिला और गोबरधन ने इन दिनों ब्याज देना पूरी तरह से बंद कर देने की बात कहकर अपने हाथ खड़े कर दिए। थक-हारकर उसने फिर राह बदली और माधो के घर का रास्ता नापने लगा।
    माधो के घर से निकलकर आते हुए गली में ही रतनलाल मिल गया। ’कइसे जगेसर, बेटा रमाकांत के साथ भिड़ा है, तुम्हारा इधर सेटिंग। अच्छा है भाई तुम्हीं लोगों का।’ उम्र में जगेसर से दस साल से भी ज्यादा का छोटा होगा, लेकिन भगवान की बनाई उम्र की प्रतिष्ठा का पूंजी के ओहदे से क्या मुकाबला।
     ’नहीं सेठ, मैं तो तोरे मेर आवत रहें।’
     जगेसर ने देखा, माधो के बैठक कमरे से पांच-सात लोगों की भीड़ निकलकर उसी की ओर आ रही है। पीछे माधो भी मूछों पर तांव देता हुआ खड़ा था। कमर से भी नीचे बंधी लुंगी के ऊपर थुलथुल पेट उसकी स्थूल काया का नेतृत्व कर रहा था।
     इस मौके पर जगेसर को बाहर खड़ा देखकर अवसर को भांपने वाली उसकी अनुभवी आंखें भी कुछ समय के लिए अनियंत्रित सी हो गई। जगेसर के रूप में पसीने और धूल मिश्रित मैल से सने चिथड़े बनियान और फटी लुंगी में लिपटी काया सामने खड़ी थी, लेकिन इसमें भी उसकी सरपंची की डूबती नइया को थामने का बड़ा मौका उसे नजर आया था। वह सीधे जगेसर और रतनलाल के बीच आकर जगेसर की ओर मुंह करके खड़े हो गया। माधो ने हाथ जोड़ा और कहा, ’पालागी ग भइया, ए दारी बहुते दिन लगा देहे एती बर आए मं। घर मां सब बढ़िया हे न बाल-गोपाल मन।’
    ’भगवान भला करय गौंटिया भाई। तोर आसीरबाद ले सब बने हे।’ आशी0र्वाद देते समय जगेसर को लगा मानों वह पनही पहनकर मंदिर में प्रवेश कर गया हो।
    ’आजकल के दिन में अब हमारा आसीरबाद नहीं चलता भइया, नया जमाना है। दिन-दिन की बात होती है। जिनके पुरखे हमारे जूठन से परिवार पाला करते थे उनके बच्चे आज हमीं को आंख दिखा रहे हैं।’ माधो के अचानक बदले तेवर देखकर जगेसर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। अखर रहा था कि क्यों नहीं उसने रतनलाल का इंतजार कर लिया। कुछ ही देर में उसकी बहू एकदम से जमलोक नहीं पहुंच जाती। हाथ जोड़कर खुशामद करने लगा, ’नहीं भाई, बीधाता के बनाय रीत को न तुम बदल सकते न मैं। और जो इसकी कोशिश करेगा उसके पाप को भोगेगा।’
     ’तुम्हारा बेटा भी तो आजकल रमाकांत का कंधा उठाया हुआ है। भैया तुम्हें एक रहस्य की बात बताऊं? नए लड़कों को जानते तो हो, कह रहे थे कि इन लोगों को मजा चखा दें क्या कका। मैंने ही रोक दिया अपना ही बच्चा जानकर। फिर गरम खून का क्या भरोसा। अपने बेटे को जरा संभाले रखना।’
     थोड़ी जमीन, थोड़ा खर्चा और हक के सीमित दायरे में ही छिप-छिपाकर अपने और अपने परिवार का अस्तित्व बचाते आ रहे जगेसर की जिंदगी में यह पहला अवसर था, जिसमें उसे इस तरह की धमकी मिली थी। वह भी किसी ऐरे-गैरे का नहीं, साक्षात गांव-नरेश गौंटिया का। उसे लगा जैसे पांव से जमीन खिसक गई हो।
     माधो भी जान गया था कि बेचारे की कितनी सी जान और उसे कितना डरा चुका है। बात को संवारने की गरज से बात को पलटा, ’चल भैया होते रहता है ऐसा, जब औलाद बिगड़ जाता है तो उसे घर से निकालते नहीं बल्कि सुधारना पड़ता है। वैसे आज इधर का रास्ता कैसे याद आ गया।’
    ’हमारे यहां बहुरिया की जचकी होनी है। अकलतरा ले जाना पड़ेगा। गाड़ी किराया के लिए पैसे की जरूरत थी इसलिए सेठ को खोज रहा था।’ माधो के संवारने से जगेसर थोड़ा सहज हो गया था।
     इतना सुनते ही माधो का शातिर दिमाग तेजी से घूमने लगा और अचानक बिजली सी कौंधी। कहा, ’हत भोकवा, पहले क्यों नहीं बताया, तुम में और मेरे में कुछ अंतर है क्या। चलो मैं अभी के अभी सोनू को मार्शल लेकर भेजता हूं। एक बात और, पैसा-कौंड़ी की जरा भी चिंता मत करना। जाओ तुम तैयारी करके रखना, मैं दस मिनट में सोनू को भेजता हूं।’
    जगेसर कंधे पर रखे गमछे को अपने दोनों हाथों के बीच रखकर हाथ जोड़कर खड़ा था। हाथ जोड़कर ही वह घर जाने के लिए मुड़ा कि सहसा माधो ने उसे रुकने को कहा। बरी करने के फैसले के अचानक बाद फिर फांसी की सजा मुकर्रर कर दी गई हो की भांति उसका कलेजा सुक-सुक करने लगा।
     माधो ने उसे धीमे स्वर में कहा, ’जगेसर भइया, जचकी का कारबार है, ज्यादा रिस्क मत लो। सीधे बिलासपुर ले जाओ अग्रवाल डाक्टर के पास। तुम्हारी बहुरिया की छोटी बहन का क्या हाल हुआ मालूम है। पामगढ़ के अस्पताल में लाए दो ही घंटा हुआ था फिर भगवान जाने डाक्टर ने कौन सी सुई लगाई कि खून की धार बह गई और दो मिनट के अंदर खेल खतम।’ इस चर्चा के बीच रतनलाल वहीं खड़ा था। माधो ने जगेसर को उससे दूर ले गया और करीब पांच मिनट तक कान में खुसुर-फुसुर करने लगा। जगेसर जवाब में हर पंद्रह सेकंड में सिर हिला देता था।
रघु साइकिल से आना-जाना मिलाकर सोलह किलोमीटर की दूरी चालीस मिनट में तय कर लौटा। ऊपर से आधे रास्ते तक दो प्राणी का बोझ। हाथ-मुंह धोकर और एक गिलास पानी चढ़ाकर जगेसर का इंतजार कर रहा था। तभी एएनएम मैडम ने आकर कहा, ’रघु, बच्चा पैर की ओर से आता दिख रहा है। ऐसा केस बहुत कम होता है। मेरे हिसाब से इसे अकलतरा ले जाओ। घर का कोई भरोसा नहीं। वैसे बहुत चिंता की बात भी नहीं है। पर रिस्क क्यों लिया जाए।’
    रघु का हृदय धक्क से रह गया। माथा दर्द से भन्नाने लगा था। देह भी कुछ समय के लिए सुन्न होने लगा था। घबराकर पूछा, ’दीदी, घबराने की बात तो नहीं है।’
    एएनएम ने सांत्वना देते हुए कहा, ’इसीलिए कहने से डरती हूं, अस्पताल के नाम से इतना घबड़ाते क्यों हो। यह तो केवल एहतियात के लिए है। चाहो तो घर में भी पैदा हो सकता है, लेकिन कभी-कभार ज्यादा ब्लीडिंग का डर रहता है, इसलिए खतरा मोल लेना ठीक नहीं।’
    सहसा द्वार पर जगेसर के आने की आहट हुई। चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। खिचड़ी बाल बाकी दिनों से कहीं ज्यादा बिखरे हुए थे। मुंह को देखकर ऐसा लग रहा था कि उसने किसी खट्टे पदार्थ को मुंह में भरकर म्लान कर लिया हो। फिर भी गजब की फुर्ती दिखाते हुए वह रघु के पास गया और बोला, ’माधो का मार्शल आ रहा है। तुम्हे अभी के अभी बिलासपुर जाना है। अग्रवाल के यहां तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ेगा। सोनू साथ में रहेगा। उसे पूरा पता है।’
    ’क्यों बाबू, इतना घबराने की बात भी नहीं है, अकलतरा में भी सभी काम हो जाएगा। फोकट का पैसा नहीं आया है। फिर इतना पैसा आखिर आया कहां से।’ रघु ने कहा और एक ही पल में सारी कूटनीति, प्यादे को घेरने के लिए बिछाई बिसात सब-कुछ ताड़ गया। विपत्ति की घड़ी में माधो को क्या सूत्र मिल गया है? दोष भी तो हमारा ही है। गरीबी और असहायता का दोष, जिसका दमदार और चतुर आदमी इंतजार ही करता है। मतलब चुनाव की अंतिम वैतरणी से उसे सिरे से अलग करने की रणनीति।
    ’बस अब तुम्हारा बहुत चल गया। देख लिए कि भैंसों की लड़ाई में अपनी ही बाड़ी उजड़ती है। अब मैं जैसा कह रहा हूं वैसा ही करना पड़ेगा। आज के दिन में एक भी आदमी इस गहने को रखने वाला नहीं मिला। भगवान भी ऊपर से देख रहा है। उसके बनाए कायदे को तोड़ने का हक हमारे जैसे लोगों के बस का नहीं है।’
    जगेसर ने अपना फैसला सुना दिया था। सुना क्या दिया था बल्कि थोप दिया था। रघु चाहता तो झिक-झिक को थोड़ा और लंबा खींच सकता था। लेकिन यह वैसा वक्त नहीं था। फिर भी एक बार और बोला तो जगेसर ने भी अपना तीर चला दिया। बोला, ’जब तक मैं घर में रहूंगा तब तक मेरा चलेगा। अपने ही मन का करना है तो एक काम करो। मुझे जहर दे दो, सब टंटा दूर। फिर करते रहना अपनी सियानी। न कोई रोकने वाला रहेगा न टोकने वाला।’ इस अंतिम ब्रम्हास्त्र का तोड़ रघु के पास भी नहीं था।
     दस मिनट में माधो का मार्शल द्वार पर खड़ा था। अनमने भाव को मन में और बाहों में रतना को समेटे उसके पिछले हिस्से में बैठ गया। पैर को सहारा देकर पीछे सोनसरहीन बैठ गई और गाड़ी बिलासपुर के लिए निकल पड़ी।
    नर्सिंग होम में व्यवस्था ऐसी थी जैसे उन्हें पहले से ही इस केस की जानकारी हो। अस्पतालों की महिमा मोटी फीस और डाॅक्टर के तमगे से होती है। गरीबों को जहां ज्यादा गरियाया जाता है, अमीरों की आमद वहीं होती है। अग्रवाल नर्सिंग होम की गिनती भी इसी में होती है। वह तो माधो का परसाद था कि रघु को वहां कदम रखना नसीब हो रहा था। रतना के लिए मुश्किल से बेड नसीब हुआ। खैर यहां जितनी मुश्किल से बेड मिलता है, उससे मुक्ति भी उतनी ही मुश्किल से हो पाती है।
    कुछ घंटे के दर्द और इंतजार के बाद रतना ने स्वस्थ लड़के को जन्म दिया। नार्मल डिलीवरी हुई थी, जिसकी उम्मीद रघु को पहले से ही थी। छुट्टी तो उसी दिन देर रात तक हो जाती, लेकिन यहां की डाॅक्टर थी जो दो मिनट के लिए आती और फिर गायब। अगली सुबह भी रिसेप्शन में बार-बार बताया जाता कि डाक्टर साढ़े दस बजे आएगी। पशोपेश में घिरा रघु बार-बार आकर घड़ी देखता और रिसेप्शन की ओर दौड़ा चला आता।
     सोनू ने रात में ही डाक्टर से भेंट करके गुप्त बातें की थी, जिसे सोनसरहीन ने सुन लिया था। पर जगेसर और रघु के बीच खटपट और न बढ़ जाए इसी डर से बात को मन में ही दबा ली थी।
     दोपहर के बारह बजे डाक्टर आई और रघु से छुट्टी की बात सुनकर बिफर गई, ’तुम गांव वालों की इसी हड़बड़ाहट को देखकर तुम लोगों का इलाज करने का मन नहीं करता। अरे भाई, देखने में तुम्हारी घरवाली भले नार्मल दिख रही है। तुम्हें क्या, जब उसके शरीर को टाॅनिक, फाॅलिक एसिड और आयरन की जरूरत थी तब बेचारी को खेती में रगड़वाते थे। अब सब कुशल मंगल दिख रहा है तो जल्दी ले जाने की पड़ी है।’
    गली-मोहल्ले में लाख हेकड़ी करने वाला रघु आज डाक्टर के आगे बेबस था। डाॅक्टर सही बोले या गलत, बातों का सिरा ऐसा बांधते हैं कि लाख बार भी उनकी बातों में नहीं आने का संकल्प लेकर जाने वाला भी डर से बंध जाता है। वह मन मसोसकर रह गया। हार की एक वजह उसकी मजबूरी भी थी, क्योंकि रकम उसके हाथ में फूटी कौंड़ी भी नहीं। सब-कुछ सोनू पर निर्भर था। फिर भी वह शाम को अड़ ही गया और डाक्टर के उल्टा-सीधा सुनाने के बाद भी नहीं माना तो छुट्टी मंजूर कर ली गई। कागजी कार्रवाई होते-होते रात के दस बज गए, घर पहुंचने में सवा ग्यारह।
     जच्चा-बच्चा को भला-चंगा देखकर घर-गृहस्थी और अपने पहले बच्चे के आगमन से रमा रघु का मन फिर से गांव की चुनावी राजनीति और परिणाम पर सुबह से ही टिक गया था। सबसे बढ़कर तो खुद उसकी मेहनत और इज्जत दांव पर लगी थी। फिर अरमान दांव पर हो तो उसे मोह-माया नहीं डिगा सकता।
    रात में मार्शल चलना शुरू किया था तभी से रास्ता उसे बोझिल लगने लगता था। उसका बस चलता तो लालखदान फाटक को वह वहीं मसलकर रख देता। कभी वह अपने बच्चे के माथे को चूमता तो कभी सीट के गद्दे को हथेली से मारता। कई दफा सोनसरहीन ने तो कभी रतना ने बच्चे और उसके स्वास्थ्य के बारे में कई सारी बातें कहीं, लेकिन वह सुनने की अवस्था में नहीं रह गया था।
    घर पहुंचने पर उसने रतना और शिशु को उसके कमरे में लिटाने के बाद सोनू को विदा करना भी जरूरी नहीं समझा और दौड़ते-हांफते स्कूल में बने पोलिंग बूथ की ओर भागा। पहुंचा तो देखा पोलिंग पार्टी पेटी समेत सारे असबाब समेट बस में सवार हो गए थे। उसके सामने से ही हार्न बजाती बस आगे निकल गई।
    रघु ने आसपास नजर घूमाई तो उसे गांव की इतनी बड़ी खबर बताने वाला एक आदमी भी नहीं दिखा। रामचरन के चौपाल में बारह बजे तक भजन मंडली भजन गाती है। वहां भी आज सन्नाटा पसरा था। कोने में पड़े राख पर लेटा कुत्ता अकेले कुनमुना रहा था। अब वह डग भरता हुआ सीधे रमाकांत के घर की ओर निकल पड़ा। घर के सामने भी सन्नाटे में सनसनाहट की गूंज थी। उसने चुपके से घर की कुंडी पकड़ी और जोर-जोर से खटखटाया। रमाकांत की अम्मा तखतपुरहीन ने आकर दरवाजा खोला। रघु ने अंदर झांककर देखा तो रेंगान के एक कोने में गोरसी सुलग रही थी। कंडे से निकलने वाला धुआं चारोंओर फैल रहा था। फटा बैनर कोने में पड़ा था। पांपलेट के टूकड़े इधर-उधर बिखरे थे। एक बड़ा टूकड़ा जग के पानी में आधा तैरता हुआ आधा भीगा आधा सूखा था।
    ’अभी तुम्हें समय मिला रघु, जब सारा खेला हो गया तो।’ तखतपुरहीन ने उलाहनाओं के साथ रघु को घूरते हुए कहा।
    ’काकी क्या बताऊं आपको कि कैसी मुसीबत में फंसा था। तन उधर तो मन इधर लगा था।’
    ’मैंने पहले ही कहा था बेटा कि चुनई हमारे बस की बात नहीं है। फिर तुम लोगों को धुन चढ़ा था। पैसे का क्या है, मेरे बच्चे के मुंह को देखने की हिम्मत नहीं हो रही है। क्या मुंह बनाया है, रमाकांत के बाबू के जाने से जितना दुख हुआ था उससे दस गुना दुख उसके मुंह को देखकर हो रहा है। क्या बताऊं...’ हिचकते-सुबकते तखतपुरहीन ने इतनी बात कही और लुगरा के पल्लु से मुंह को ढंकते हुए उसने आगे की बात आंसुओं में बहा दी। रघु को भी सुनने की देरी थी कि वह भी गश् खा गया। सीधे रमाकांत के कमरे की ओर दौड़ते हुए पहुंचा।
    ’रमाकांत..., रमाकांत। उठ भाई, बारह तक नहीं बजा है और सुतना सुत रहे हो। उठ बता क्या-क्या हुआ कल रात और आज पूरे दिन।’
    ’अब क्या बात होगी यार। जो होना था सो हो गया।’
    ’अकलतरा से सामान लाना था उसे लाए?’
    ’तुम नहीं थे तो कोई जाने को तैयार नहीं हुआ यार। उल्टा साले लोग मुझे भड़का दिए। सभी तरफ पैसा बहा डाले हो। अब और मत उतरो बोल दिए। तो मैं भी कमीज कपड़े की जगह गमछा ले आया वो भी जिद करके। फिर अखर रहा है बहुत़।’
    ’खाल्हेपारा गए थे?’
    ’गए थे। फिर माधो पहले ही पहुंच गया था तो हम लौट आए।’
    ’कितने अंतर से हार-जीत हुई?’
    ’ज्यादा नहीं यार मात्र दो सौ तीस वोट। भगवान कृष्ण के बिना अर्जुन महाभारत जीत सकता है क्या? बस समझ लो मेरी जीत पक्की थी, अगर तुम साथ होते।’
    ’और मैं भी तुम्हारे साथ रहता यार अगर मेरे पास पैसा होता तो।’
    ’तो सारा खेला पैसे का ही है, नहीं...?’
    ’पैसे से बढ़कर पैसे की गुलामी। मेरा जी जानता है। प्रचार नई हो पाया अलग बात, अपना वोट तक नहीं डाल पाया यार। इसी बात का दुख है। फिर हिम्मत रख, आने वाले चुनाव में ऐसा दिन नहीं देखना पड़ेगा।’
    ’आने वाले सरपंची चुनाव को पांच साल लगेंगे, ले ये एक पउवा बचा है उसे बना फटाफट।’
   रघु रमाकांत के हाथ से दारू का बोतल लेकर कांच के गिलास में उड़ेलने लगा। कुछ ही देर में कमरा कसैले गंध से भर गया। एक सुरुर के बाद रमाकांत एक ओर लुढ़क गया तो रघु को दो पैग के बाद भी नहीं चढ़ रही थी।
    ...बहरहाल, पिछले महीने रमाकांत मुझसे मिला था। अब वह गांव की राजनीति से कोसों दूर बलौदा ब्लाॅक के किसी गांव में शिक्षाकर्मी बन गया है।
     एक और बात सुनकर मैं अवाक् रह गया। गुलाम पसंदी और पैसे के गुलाम मेरे भी शब्द थे, लेकिन दसवीं फेल रघु ने जिस परिस्थितिजन्य गुलामी की बात कही थी और जिसे उसने झेला भी था, वह बात मैंने कभी सोची ही नहीं थी। न रमाकांत के तारनहार रघु को लेकर और न खांटी वोटर रघु को लेकर।
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1 comment:

  1. बहुत सुन्दर।
    ब्लॉगर्स फालोवर्स का विजेट भी लगाइए अपने ब्लॉग पर। हम फालो कर लेंगे।
    जिससे फीड लगातार हमारे डैशबोर्ड पर आती रहे।

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